मूर्ति की प्राण—प्रतिष्ठा का रहस्य:
प्रश्न: ओशो प्राण—प्रतिष्ठा का क्या महत्व है?
हां, बहुत महत्व है। असल में, प्राण—प्रतिष्ठा का मतलब ही यह है। उसका मतलब ही यह है कि हम एक नई मूर्ति तो बना रहे हैं,लेकिन पुराने समझौते के अनुसार बना रहे हैं। और पुराना समझौता पूरा हुआ कि नहीं, इसके इंगित मिलने चाहिए। हम अपनी तरफ से जो पुरानी व्यवस्था थी, वह पूरी दोहराएंगे। हम उस मूर्ति को अब मृत न मानेंगे, अब से हम उसे जीवित मानेंगे। हम अपनी तरफ से पूरी व्यवस्था कर देंगे जो जीवित मूर्ति के लिए की जानी थी। और अब सिंबालिक प्रतीक मिलने चाहिए कि वह प्राण—प्रतिष्ठा स्वीकार हुई कि नहीं। वह दूसरा हिस्सा है, जो कि हमारे खयाल में नहीं रह गया। अगर वह न मिले, तो प्राण—प्रतिष्ठा हमने तो की, लेकिन हुई नहीं। उसके सबूत मिलने चाहिए। तो उसके सबूत के लिए चिह्न खोजे गए थे कि वे सबूत मिल जाएं तो ही समझा जाए कि वह मूर्ति सक्रिय हो गई।
मूर्ति एक रिसीविंग प्वाइंट:
ऐसा ही समझ लें कि आप घर में एक नया रेडियो इंस्टाल करते हैं। तो पहले तो वह रेडियो ठीक होना चाहिए, उसकी सारी यंत्र व्यवस्था ठीक होनी चाहिए। उसको आप घर लाकर रखते हैं, बिजली से उसका संबंध जोड़ते हैं। फिर भी आप पाते हैं कि वह स्टेशन नहीं पकड़ता, तो प्राण—प्रतिष्ठा नहीं हुई, वह जिंदा नहीं है, अभी मुर्दा ही है। अभी उसको फिर जांच—पड़ताल करवानी पड़े; दूसरा रेडियो लाना पड़े या उसे ठीक करवाना पड़े।
मूर्ति भी एक तरह का रिसीविंग प्याइंट है,जिसके साथ, मरे हुए आदमी ने कुछ वायदा किया है वह पूरा करता है। लेकिन आपने मूर्ति रख ली, वह पूरा करता है कि नहीं करता है, यह अगर आपको पता नहीं है और आपके पास कोई उपाय नहीं है इसको जानने का, तो मूर्ति है भी जिंदा कि मुर्दा है, आप पता नहीं लगा पाते।
तो प्राण—प्रतिष्ठा के दो हिस्से हैं। एक हिस्सा तो पुरोहित पूरा कर देता है—कि कितना मंत्र पढ़ना है, कितने धागे बांधने हैं, कितना क्या करना है, कितना सामान चढ़ाना है, कितना यज्ञ—हवन, कितनी आग—सब कर देता है। यह अधूरा है और पहला हिस्सा है। दूसरा हिस्सा—जो कि पांचवें शरीर को उपलब्ध व्यक्ति ही कर सकता है, उसके पहले नहीं कर सकता—दूसरा हिस्सा है कि वह कह सके कि हां, मूर्ति जीवित हो गई। वह नहीं हो पाता। इसलिए हमारे अधिक मंदिर मरे हुए मंदिर हैं, जिंदा मंदिर नहीं हैं। और नये मंदिर तो सब मरे हुए ही बनते हैं;नया मंदिर तो जिंदा होता ही नहीं।
सोमनाथ का मंदिर मृत था:
अगर एक जीवित मंदिर है तो उसका नष्ट होना किसी भी तरह संभव नहीं है, क्योंकि वह साधारण घटना नहीं है। वह साधारण घटना नहीं है। और अगर वह नष्ट होता है, तो उसका कुल मतलब इतना है कि जिसे आपने जीवित समझा था, वह जीवित नहीं था। जैसे सोमनाथ का मंदिर नष्ट हुआ। सोमनाथ के मंदिर के नष्ट होने की कहानी बड़ी अदभुत है और सारे मंदिर के विज्ञान के लिए बहुत सूचक है। मंदिर के पांच सौ पुजारी थे। पुजारियों को भरोसा था कि मंदिर जीवित है। इसलिए मूर्ति नष्ट नहीं की जा सकती। पुजारियों ने अपना काम सदा पूरा किया था। एकतरफा था वह काम, क्योंकि कोई नहीं था जो खबर देता कि जिंदा मूर्ति है कि मृत। तो जब बड़े—बड़े राजाओं और राजपूत सरदारों ने उन्हें खबर भेजी कि हम रक्षा के लिए आ जाएं, गजनवी आता है, तो उन्होंने स्वभावत: उत्तर दिया कि तुम्हारे आने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि जो मूर्ति सबकी रक्षा करती है, उसकी रक्षा तुम कैसे करोगे? उन्होंने क्षमा मांगी, सरदारों ने।
लेकिन वह भूल हो गई। भूल यह हो गई कि वह शतइr जिंदा न थी। पुजारी इस आशा में रहे कि मूर्ति जिंदा है और जिंदा मूर्ति की रक्षा की बात ही सोचनी गलत है। उसके पीछे हमसे ज्यादा विराट शक्ति का संबंध है, उसको बचाने का हम क्या सोचेंगे! लेकिन गजनवी आया और उसने एक गदा मारी और वह चार टुकड़े हो गई मूर्ति। फिर भी अब तक यह खयाल नहीं आया कि वह मूर्ति मुर्दा थी। फिर भी अब तक... अब तक यह खयाल नहीं आया कि वह मूर्ति मुर्दा थी, इसलिए टूट सकी।
नहीं, मंदिर की ईंट नहीं गिर सकती है,अगर वह जीवित है। वह जीवित है तो उसका कुछ बिगड़ नहीं सकता।
मंदिर के जीवित होने का गहन विज्ञान:
लेकिन अक्सर मंदिर जीवित नहीं हैं। और उसके जीवित होने की बड़ी कठिनाइयां हैं। मंदिर का जीवित होना बड़ा भारी चमत्कार है और एक बहुत गहरे विज्ञान का हिस्सा है। जिस विज्ञान को जाननेवाले लोग भी नहीं हैं, पूरा करनेवाले लोग भी नहीं हैं, और जिसमें इतनी कठिनाइयां हो गई हैं खड़ी; क्योंकि पुरोहितों और दुकानदारों का इतना बड़ा वर्ग मंदिरों के पीछे है कि अगर कोई जाननेवाला हो तो उसको मंदिर में प्रवेश नहीं हो सकता। उसकी बहुत कठिनाई हो गई है। और वह एक धंधा बन गया है जिसमें कि पुरोहित के लिए हितकर है कि मंदिर मुर्दा हो। जिंदा मंदिर पुरोहित के लिए हितकर नहीं है। वह चाहता है कि एक मरा हुआ भगवान भीतर हो, जिसको वह ताला—चाबी में बंद रखे और काम चला ले। अगर उस मंदिर से कुछ और विराट शक्तियों का संबंध है तो पुरोहित का टिकना वहां मुश्किल हो जाएगा;उसका जीना वहां मुश्किल हो जाएगा। इसलिए पुरोहित ने बहुत मुर्दा मंदिर बना लिए हैं और वह रोज बनाए चला जा रहा है। मंदिर तो रोज बन जाते हैं, उनकी कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन वस्तुत: जो जीवित मंदिर हैं वे बहुत कम होते जाते हैं।
जीवित मंदिरों को बचाने की इतनी चेष्टा की गई, लेकिन पुरोहितों का जाल इतना बड़ा है हर मंदिर के साथ, हर धर्म के साथ कि बहुत मुश्किल है उसको बचाना। और इसलिए सदा फिर आखिर में यही होता है.. .इसलिए इतने मंदिर बने, नहीं तो इतने मंदिर बनने की कोई जरूरत न पड़ती। अगर महावीर के वक्त में उपनिषदों के समय में बनाए गए मंदिर जीवित होते और तीर्थ जीवित होते, तो महावीर को अलग बनाने की कोई जरूरत न पड़ती। लेकिन वे मर गए थे। और उन मरे मंदिरों और पुरोहितों का एक जाल था, जिसको तोड़कर प्रवेश करना असंभव था। इसलिए नये बनाने के सिवाय कोई उपाय नहीं था। आज महावीर का मंदिर भी मर गया है; उसके पास भी उसी तरह का जाल है।
शर्तें पूरी न करने पर वायदे का टूट जाना:
दुनिया में इतने धर्म न बनते, अगर जो जीवंत तत्व है वह बच सके। लेकिन वह बच नहीं पाता। उसके आसपास सब उपद्रव इकट्ठा हो जाता है। और वह जो उपद्रव है, वह धीरे— धीरे, धीरे— धीरे सारी संभावनाएं तोड देता है। और जब एक तरफ से संभावना टूट जाती है तो दूसरी तरफ से समझौता भी टूट जाता है। वह समझौता किया गया समझौता है। उसे हमें निभाना है। अगर हम निभाते हैं तो दूसरी तरफ से निभता है, नहीं तो विदा हो जाता है, बात खत्म हो जाती है।
जैसे कि मैं कहकर जाऊं कि कभी आप मुझे याद करना तो मैं मौजूद हो जाऊंगा। लेकिन आप कभी याद ही करना बंद कर दो या मेरे चित्र को एक कचरेघर में डाल दो और फिर उसका खयाल ही भूल जाओ, तो यह समझौता कब तक चलेगा! यह समझौता टूट गया आपकी तरफ से, इसे मेरी तरफ से भी रखने की अब कोई जरूरत नहीं रह जाती। ऐसे समझौते टूटते गए हैं।
लेकिन प्राण—प्रतिष्ठा का अर्थ है। और प्राण—प्रतिष्ठा का दूसरा हिस्सा ही महत्वपूर्ण है कि प्राण—प्रतिष्ठा हुई या नहीं, उसकी कसौटी और परख है। वह परख भी पूरी होती है।
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