गौतम बुद्ध से किसी ने पूछा एक सुबह, एक भिक्षु ने, एक खोजी ने, एक सत्यार्थी ने मैं क्या करूं? और बुद्ध ने जो उत्तर दिया, बहुत आकस्मिक था, अनपेक्षित था। बुद्ध ने कहा "चरैवेति, चरैवेति"! चलते रहो, चलते रहो! रुको मत, पीछे लौट कर देखो मत। आगे की चिंता न लो। प्रतिपल बढ़े चलो। क्योंकि गति जीवन है। गत्यात्मकता जीवन है। और जैसे दौड़ती हुई पर्वतों से नदी की धार एक न एक दिन चलते-चलते सागर पहुंच जाती है, ऐसे ही तुम भी चलते रहे तो परमात्मा तक निश्चित पहुंच जाओगे। न तो नदी के पास नक्शा होता, न मार्गदर्शक होते, न पंडित-पुरोहित होते, न पूजा-पाठ, न यज्ञ-हवन, फिर भी पहुंच जाती है सागर। कितना ही भटके, कितने ही चक्कर खाए पर्वतों में, लेकिन पहुंच जाती है सागर। कौन पहुंचा देता है उसे सागर? उसकी अदम्य गति! चरैवेति, चरैवेति। फिक्र नहीं लेती, सोच-विचार नहीं करती कितना भटकाव हो गया, कितना समय बीत गया, कितना और समय लगेगा, ऐसा अधैर्य नहीं पालती। मदमाती, मस्त, प्रतिपल आनंदमग्न। इससे बोझिल भी नहीं होती कि सागर अभी तक क्यों नहीं मिला? इसका संताप भी उसकी छाती पर भारी नहीं हो पाता। मिलेगा ही, ऐसी को...
Thanks For sharing 👍👍👍
ReplyDeleteIt is very helpful to me
ReplyDeletethx bro
ReplyDeleteThank you very much
ReplyDeleteThanks for sharing, Friend...., 🙏🙏
ReplyDeleteThank you very much....����
ReplyDeleteOne of the amazing book I have ever read. Thank for sharing and thanks to Osho :-)
ReplyDeleteThanku so much dear god bless u.
ReplyDeletethanks 🙏 🙏
ReplyDeleteThank you sir ji
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