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संयमित आहार के सूत्र || भोजन करने का सही तरीका - ओशो

संयमित आहार के सूत्र - ओशो 


मेरे पास बहुत लोग आते हैं, वे कहते हैं, भोजन हम ज्यादा कर जाते हैं, क्या करें? तो मैं उनसे कहता हूं, होशपूर्वक भोजन करो। और कोई डाइटिंग काम देनेवाली नहीं है। एक दिन, दो दिन डाइटिंग कर लोगे जबर्दस्ती, फिर क्या होगा? दोहरा टूट पड़ोगे फिर से भोजन पर। जब तक कि मन की मौलिक व्यवस्था नहीं बदलती, तब तक तुम दो-चार दिन उपवास भी कर लो तो क्या फर्क पड़ता है! फिर दो-चार दिन के बाद उसी पुरानी आदत में सम्मिलित हो जाओगे। मूल आधार बदलना चाहिए। मूल आधार का अर्थ है, जब तुम भोजन करो, तो होशपूर्वक करो, तो तुमने मूल बदला। जड़ बदली।
होशपूर्वक करने के कई परिणाम होंगे। एक परिणाम होगा, ज्यादा भोजन न कर सकोगे। क्योंकि होश खबर दे देगा कि अब शरीर भर गया। शरीर तो खबर दे ही रहा है, तुम बेहोश हो, इसलिए खबर नहीं मिलती। शरीर की तरफ से तो इंगित आते ही रहे हैं। शरीर तो यंत्रवत खबर भेज देता है कि अब बस, रुको। मगर वहां रुकनेवाला बेहोश है। उसे खबर नहीं मिलती। शरीर तो टेलीग्राम दिये जाता है, लेकिन जिसे मिलना चाहिए वह सोया है। उसे कुछ पता नहीं चलता। फिर धीरे-धीरे इस बेहोशी की मात्रा इतनी बढ़ जाती है कि शरीर की सूचनाओं का खटका भी मालूम नहीं होता।
होशपूर्वक भोजन करो। भोजन करते वक्त सिर्फ भोजन करो। उस समय न बाजार की सोचो, न व्यवसाय की सोचो, न राजनीति की सोचो--न धर्म की सोचो। उस समय कुछ सोचो ही मत। उस क्षण तुम्हारा सारा उपयोग, उस क्षण तुम्हारा सारा बोध भोजन करने की सहज-क्रिया में संलग्न हो। तो पहली बात, जैसे ही शरीर खबर देगा रुकने का क्षण आ गया, वह तुम्हें सुनायी पड़ेगा। दूसरी बात, अगर तुम होशपूर्वक भोजन करोगे, तो ज्यादा चबाओगे। बेहोशी में आदमी सिर्फ किसी तरह धकाये जाता है अंदर। जब तुम ठीक से चबाते नहीं, तो अतृप्ति बनी रहती है। रस उत्पन्न नहीं होता। शरीर में भोजन तो भर जाता है, लेकिन प्राण नहीं भरते। शरीर में भोजन तो पड़ जाता है, लेकिन यह भोजन पचेगा नहीं। यह मांस-मज्जा न बनेगा। इसलिए शरीर की जरूरत भी पड़ी रह गयी। भोजन भी जरूरत से ज्यादा भर दिया और शरीर की जरूरत भी पूरी न हुई। तो तुम दो अर्थों में चूके।
अगर होशपूर्वक भोजन करोगे...इसलिए समस्त धर्मशास्त्र कहते हैं, भोजन करते समय बोलो मत, बात मत करो, क्योंकि बात तुम्हें हटायेगी, चुकायेगी। भोजन करते समय सिर्फ भोजन करो। भोजन करते वक्त भोजन को ही ब्रह्म समझो।
इसलिए उपनिषद कहते हैं--"अन्नं ब्रह्म।' और ब्रह्म के साथ कम से कम इतना तो सम्मान करो कि होशपूर्वक उसे अपने भीतर जाने दो।
इसलिए सारे धर्म कहते हैं, भोजन के पहले प्रार्थना करो, प्रभु को स्मरण करो। स्नान करो, ध्यान करो, फिर भोजन में जाओ, ताकि तुम जागे हुए रहो। जागे रहे तो जरूरत से ज्यादा खा न सकोगे। जागे रहे, तो जो खाओगे वह तृप्त करेगा। जागे रहे, तो जो खाओगे वह चबाया जाएगा, पचेगा, रक्त-मांस-मज्जा बनेगा, शरीर की जरूरत पूरी होगी। और भोजन शरीर की जरूरत है, मन की जरूरत नहीं।
जागे हुए भोजन करोगे तो तुम एक क्रांति घटते देखोगे कि धीरे-धीरे स्वाद से आकांक्षा उखड़ने लगी। स्वाद की जगह स्वास्थ्य पर आकांक्षा जमने लगी। स्वाद से ज्यादा मूल्यवान भोजन के प्राणदायी तत्व हो गये। तब तुम वही खाओगे, जो शरीर की निसर्गता में आवश्यक है, शरीर के स्वभाव की मांग है। तब तुम कृत्रिम से बचोगे, निसर्ग की तरफ मुड़ोगे
महावीर कहते हैं, इस उपयोग की क्रिया को हर क्रिया से जोड़ देना है। स्नान करो, तो उपयोगपूर्वक। सुनो, तो उपयोगपूर्वक। जैसे मुझे तुम सुन रहे अभी। एक ही सम्यक ढंग है सुनने का। असम्यक ढंग तो बहुत हैं। सम्यक ढंग एक ही है, और वह है कि जब तुम सुन रहे हो, तो सिर्फ सुनो, सोचो मत। जब तुम सुन रहे, तो सिर्फ कान ही हो जाओ। तुम्हारा सारा शरीर ग्राहक हो जाए। सोच लेना पीछे। दो क्रियाएं एक साथ न करो। अभी एक क्रिया में ही होश नहीं सधता, तो दो में कैसे सधेगा? एक में साध लो, तो फिर दो में भी सध सकता है, फिर तीन में भी सध सकता है, फिर और भी जटिल आधार उपयोग के लिये दिये जा सकते हैं।
छोटी-छोटी क्रियाओं से शुरू करो! चलना बड़ी छोटी क्रिया है। राह पर चल रहे हैं, कुछ करने जैसा कर भी कहां रहे हैं! उस समय इतना ही होश रहे कि चल रहा हूं। जब मैं यह कह रहा हूं कि इतना होश रहे चल रहा हूं--जयं चरे--तो इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम भीतर दोहराओ कि मैं चल रहा हूं, मैं चल रहा हूं। अगर तुमने ऐसा दोहराया, शब्द निर्मित किये, तो तुम चूक गये। तुम शब्द में लग गये, फिर चूक गये। जब मैं कह रहा हूं जागकर चलो, तो इसका केवल इतना ही अर्थ है, मन में कोई चिंतन न चले। निर्मल दर्पण हो मन का, सिर्फ चलने की छाया पड़े; सिर्फ चलने का भान रहे--बेभान न चलो।
कभी रास्ते के किनारे खड़े होकर देखना, लोग कितने बेभान चल रहे हैं! चले जा रहे हैं, जैसे नींद में हों--अलसाये, तंद्रिल! आंखों में कोई नशा, भीतर कोई मूर्च्छा, बेहोशी! अनेकों को तुम पाओगे कि वे बात करते चल रहे हैं, चाहे साथ कोई भी न हो। उनके ओंठ फड़क रहे हैं, वे कुछ कह रहे हैं। बहुतों को तुम पाओगे, वे हाथ से कुछ इशारे भी कर रहे हैं; किसी अनजाने साथी को सिर हिलाकर हां भी भर रहे हैं; सिर हिलाकर ना भी कर रहे हैं। चल नहीं रहे हैं और बहुत-कुछ कर रहे हैं। तुम अपने को बार-बार पकड़ो। यह चोर पकड़ में आ जाए, यह मूर्च्छा का चोर तुम्हारी पकड़ में आ जाए और इसकी जगह तुम उपयोग के पहरेदार को अपने जीवन में जगा लो, तो सब हो जाएगा। यह शुरुआत है।
"गमन-क्रिया में तन्मय हो, उसी को प्रमुख महत्व देकर उपयोगपूर्वक चले।'
हम जब चलते हैं, तब हम कुछ और करते हैं। जब हम कुछ और करेंगे, तब शायद हम चलने के संबंध में सोचेंगे। हमारा मन बड़ा अस्त-व्यस्त है।


जिन सूत्र-(भाग--2) प्रवचन--11


समता ही सामायिक—प्रवचन—            ग्‍यारहवां

Comments

ओशो देशना (अविरल,अविस्मरणीय और आनंददायी)

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कृष्ण स्मृति-ओशो Pdf

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होश की साधना - ओशो || मुल्ला नसीरुद्दीन पर ओशो || Osho Jokes in Hindi

होश की साधना - ओशो   एक सुंदर अध्यापिका की आवारगी की चर्चा जब स्कूल में बहुत होने लगी तो स्कूल की मैनेजिंग कमेटी ने दो सदस्यों को जांच-पड़ताल का काम सौंपा। ये दोनों सदस्य उस अध्यापिका के घर पहुंचे। सर्दी अधिक थी, इसलिए एक सदस्य बाहर लान में ही धूप सेंकने के लिए खड़ा हो गया और दूसरे सदस्य से उसने कहा कि वह खुद ही अंदर जाकर पूछताछ कर ले। एक घंटे के बाद वह सज्जन बाहर आए और उन्होंने पहले सदस्य को बताया कि अध्यापिका पर लगाए गए सारे आरोप बिल्कुल निराधार हैं। वह तो बहुत ही शरीफ और सच्चरित्र महिला है। इस पर पहला सदस्य बोला, "ठीक है, तो फिर हमें चलना चाहिए। मगर यह क्या? तुमने केवल अंडरवीयर ही क्यों पहन रखी है? जाओ, अंदर जाकर फुलपेंट तो पहन लो।" यहां होश किसको? मुल्ला नसरुद्दीन एक रात लौटा। जब उसने अपना चूड़ीदार पाजामा निकाला तो पत्नी बड़ी हैरान हुई; अंडरवीयर नदारद!! तो उसने पूछा, "नसरुद्दीन अंडरवीयर कहां गया?" नसरुद्दीन ने कहा कि अरे! जरूर किसी ने चुरा लिया!! अब एक तो चूड़ीदार पाजामा! उसमें से अंडरवीयर चोरी चला जाए और पता भी नहीं चला!! चूड़ीदार पाजामा नेतागण पहनते

भक्ति सूत्र -ओशो। Narad Bhakti Sutra Pdf file

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प्यास और संकल्प | ध्यान सूत्र - ओशो

संकल्प कैसे लें - ओशो 1. सबसे पहली बात ,  सबसे पहला सूत्र , जो स्मरण रखना है ,  वह यह कि आपके भीतर एक वास्तविक प्यास है ?  अगर है ,  तो आश्वासन मानें कि रास्ता मिल जाएगा। और अगर नहीं है , तो कोई रास्ता नहीं है। आपकी प्यास आपके लिए रास्ता बनेगी। 2. दूसरी बात ,  जो मैं प्रारंभिक रूप से यहां कहना चाहूं ,  वह यह है कि बहुत बार हम प्यासे भी होते हैं किन्हीं बातों के लिए ,  लेकिन हम आशा से भरे हुए नहीं होते हैं। हम प्यासे होते हैं , लेकिन आशा नहीं होती। हम प्यासे होते हैं , लेकिन निराश होते हैं। और जिसका पहला कदम निराशा में उठेगा ,  उसका अंतिम कदम निराशा में समाप्त होगा। इसे भी स्मरण रखें , जिसका पहला कदम निराशा में उठेगा ,  उसका अंतिम कदम भी निराशा में समाप्त होगा। अंतिम कदम अगर सफलता और सार्थकता में जाना है ,  तो पहला कदम बहुत आशा में उठना चाहिए। 3. तीसरी बात ,  साधना के इन तीन दिनों में आपको ठीक वैसे ही नहीं जीना है ,  जैसे आप आज सांझ तक जीते रहे हैं। मनुष्य बहुत कुछ आदतों का यंत्र है। और अगर मनुष्य अपनी पुरानी आदतों के घेरे में ही चले ,  तो साधना की नई दृष्टि खोलने म