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ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है - ओशो

हंसा तो मोती चूने--(लाल नाथ)-प्रवचन-10

अवल गरीबी अंग बसै—दसवां प्रवचन


 दसवा प्रवचन;
दिनाक 20 मई1979;
श्री रजनीश आश्रमपूना

यह महलोंयह तख्तोंयह ताजों की दुनिया
यह इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया 
यह दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया 
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
हर एक जिस्म घायलहर इक रूह प्यासी
निगाहों में उलझनदिलों में उदासी
यह दुनिया है या आलमे-बदहवासी
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
यहां इक खिलौना है इन्सां की हस्ती
यह बस्ती है मुर्दा -परस्तों की बस्ती
यहां पर तो जीवन से है मौत सस्ती
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
जवानी भटकती है बदकार बनकर
जवा जिस्म सजते हैं बाजार बनकर
यहां प्यार होता है व्योपार बनकर
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
यह दुनिया जहां आदमी कुछ नहीं है
वफा कुछ नहींदोस्ती कुछ नहीं है
जहां प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
जला दो उसे फूंक डालो यह दुनिया
मेरे सामने से हटा लो यह दुनिया
तुम्हारी है तुम ही सम्हालो यह दुनिया 
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
मनुष्य के समक्ष जो शाश्वत प्रश्न है वह एक है। वह प्रश्न है कि मैं क्या पाऊं कि तृप्त हो जाऊंधन मिल जाता हैतृप्ति नहीं मिलती। पद मिल जाता हैतृप्ति नहीं मिलती। यश मिल जाता हैतृप्ति नहीं मिलती। तृप्ति मिलनी तो दूरजैसे धनपद और यश बढ़ता है वैसे ही वैसे अतृप्ति बढ़ती है। जैसे - जैसे ढेर लगते हैं धन के वैसे -वैसे भीतर की निर्धनता प्रगट होती है। बाहर तो अंबार लग जाते हैं स्वर्णों के - और भीतरभीतर की राख और भी प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ने लगती है।
धन के बढ़ने के साथ दुनिया में निर्धनता बढ़ती हैं। इस अनूठे गणित को ठीक से समझ लेना। जितना धनी व्यक्ति होता है उतना ही उसका निर्धनता को बोध गहरा होता है। जितना सम्मानित व्यक्ति होता हैउतना ही उसे अपने भीतर की दीनता प्रतीत होती है। सिर पर ताज होता है तो आत्मा की दरिद्रता पता चलती है। गरीब कोभूखे को तो फुर्सत कहांभूख और गरीबी ?बी में ही उलझा रहता है। भूख और गरीबी को देखने के लिए भी समय कहां,सुविधा कहांलेकिन जिसकी भूख मिट गयी,गरीबी मिट गयीउसके पास समय होता है,सुविधा होती है कि जरा झाककर देखेकि जरा लौटकर देखेकि जिंदगी पर एक सरसरी नजर डाले। कहां पहुंचा हूंक्या पाया है। और दिन चूके जाते हैं और मौत करीब आयी जाती है। और मौत कब दस्तक देगी द्वार परकहा नहीं जा सकता। और हाथ से जीवन की संपदा लुट गयी। और जो इकट्ठा किया है वे कौड़िया हैं!
यह महलों यह तख्तोंयह ताजों की दुनिया
यह इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया
यह दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
लेकिन मिल जाने पर ही पता चलता है। जब तक यह मिल न जाएतब तक पता भी चले तो कैसे चलेहीरे हाथ में आते हैं तो ही पता चलता है कि न इनसे प्यास बुझती हैन भूख मिटती है। हीरे हाथ में आते हैं तो ही पता चलता है कि ये भी कंकड़ ही हैंहमने प्यारे नाम दे दिये हैं। हमने अपने को धोखा देने के लिए बड़े सुंदर जाल रच लिए हैं।
हर एक जिस्म घायलहर इक रूह प्यासी
निगाहों में उलझनदिलों में उदासी
यह दुनिया है या आलमे-बदहवासी
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
यहां लोग सोए हुए हैंमूर्च्छित हैं। चलें जा रहे हैं नींद में। क्यों जा रहे हैंकहां जा रहे हैंकिसलिए जा रहे हैंकौन हैं-कुछ भी पता नहीं। और सब जा रहे हैं इसलिए वे भी जा रहे हैं। भीड़ जहां जा रही है वहां  लोग चले जा रहे हैं-इस आशा में कि भीड़ ठीक ही तरफ जा रही होगीइतने लोग जाते हैं तो ठीक ही तरफ जाते होंगे। मां -बाप जाते हैंपीढ़ियां -दर -पीढ़िया इसी राह पर गयी हैंसदियों -सदियों से लोग इसी पर चलते रहे हैं-तों यह राजपथ ठीक ही होगा।
और कोई भी नहीं देखता कि यह राजपथ सिवाय कब्र के और कहीं नहीं ले जाता। ये सब राजपथ मरघट की तरफ जाते है।
इब्राहीम सूफी फकीर हुआसम्राट था। एक रात सोया था। नींद आती नहीं थी। सम्राट होकर नींद आनी मुश्किल ही हो जाती है-इतनी चिंताएंइतने उलझावजिनका कोई सुलझाव नहीं सूझताइतनी समस्याएं जिनका कोई समाधान दिखाई नहीं पड़ता! सोए तो कैसे सो?और तभी उसे आवाज सुनाई पड़ी कि ऊपर छप्पर कर कोई चल रहा है। चोर होगा कि लुटेरा होगा कि हत्यारा होगाजिनके पास बहुत कुछ है तो भय भी बहुत हो जाता है। आवाज दी जोर से कि कौन है ऊपरऊपर से उत्तर जो आया,उसने जिंदगी बदल दी इब्राहीम की। ऊपर से उत्तर आयाएक बहुत बुलंद और मस्त आवाज ने कहा : कोई नहींनिश्चित सोए रहे! मेरा ऊंट खो गया है। उसे खोज रहा हूं।
छप्परों पर ऊंट नहीं खोते-मकानों के छप्परों पर! महलों के छप्परों पर ऊंट नहीं खोते। इब्राहीम उठासैनिक दौड़ाए कि पकड़ो कौन आदमी हैक्योंकि आवाज में एक मस्ती थी। आवाज में एक गीत थाएक मादकता थी। आवाज जैसे किसी और लोग की थी! जैसे आवाज में एक गहराई थी-जैसी गहराई इब्राहीम ने कभी किसी आवाज में नहीं देखी थी! आवाज इब्राहीम के भीतर कोई तार छेड़ गयी। बेबूझ भी थी। उलटबासी थी। महलों के छप्परों पर ऊंटों की तलाश आधी रात... या तो कोई पागल है या कोई परमहंस है। पागल हो नहीं सकताक्योंकि आवाज का जादू कुछ और कहता हैं। पागल हो नहीं सकताक्योंकि आवाज का गणित कुछ और कहता है। पागल हो नहीं सकता। पागल तो इब्राहीम ने बहुत देखे थे। पागलों से ही घिरा था। सारा दरबार पागलों से भरा था। सारी दुनिया पागलों से भरी है। यह आदमी कुछ और ही ढंग का आदमी होगा। लेकिन नहीं पकड़ा जा सका। सिपाही भागे -दौड़ेलेकिन वह आदमी हाथ आया नहीं आया। सुबह इब्राहीम उदास है,चिंतित है कि उस आदमी से मिलना न हो सका। जिसकी आवाज में जादू थाउसकी आंख  में भी झांकने के इरादे थे। उसके पास दो क्षण बैठ लेने की आकांक्षा जगी थी।
और तभी द्वारपाल से कोई आदमी झगडू। करने लगाद्वारपाल से कोई आदमी उलझने लगा। आवाज पहचानी हुई लगी। है।,वही आवाज है और वह जो कह रहा था फिर उलटबासी थी। द्वारपाल कह रहा था : तुम पागल तो नहीं हो! यह सराय नहींसम्राट का निवास -स्थल हैं। और वह आदमी कह रहा था कि मेरी मानोयह सराय हैं। यहां कौन सम्राट है और किसके निवास -स्थान हैंयह सारी दुनिया सराय है। ठहर जाने दो चार दिन देखोकहता हूं ठहर जाने दो -चार दिन। चार दिन के लिए सराय से इनकार न करो।
आवाज पहचानी-सी लगी और फिर बात में भी वही उलझाव थाबात में वही राज और रहस्य था। इब्राहीम भाग।बाहर आया। था आदमी अदभुतउसे भीतर ले गया और पूछा : शर्म नहीं आतीराजमहल को सराय कहते हो! यह सिर्फ उकसाने को पूछायह भड़काने को पूछा। वह आदमी खिलखिलाकर हंसने लगा। उसने कहा : राजमहलतुम्हारा निवास - स्थान?तो तुम्हारा ही यह निवास- स्थान हैलेकिन कुछ वर्षों पहले मैं आया था तब एक दूसरा आदमी यही दावा करता था।
इब्राहीम ने कहा : वे मेरे पिता थेस्वर्गीय हो गये। और उस फकीर ने कहा : उसके पहले भी मैं आया थातब एक तीसरा आदमी यही दावा करता था। इब्राहीम ने कहा : वे मेरे पिता के पिता थेमेरे पितामह थेवे भी स्वर्गीय हो गये। वह फकीर कहने लगा : तो फिर जो मैं कहता हूं ठीक ही कहता हूं कि यह निवास नहीं हैसराय है। तुम कब तक स्वर्गीय होने का इरादा रखते होफिर भी मैं आऊंगाफिर कोई चौथा आदमी कहेगा कि यह मेरा निवास -स्थान है। यहां लोग आते हैं और जाते हैं। मानो मेरी,चार दिन ठहर जाने दो। यह कोई महल नहीं है न कोई निवास -स्थान है।
बात चोट कर गयी। किन्हीं क्षणों में बात चोट कर जाती है। कोई अपूर्व क्षण होते हैं तब छोटी- सी बात भी चोट कर जाती है। बात दिखाई पड़ गयी। जैसे किसी ने झकझोर कर जगा दिया। जैसे किसी ने जबर्दस्ती आंख  खोल दी। इब्राहीम थोड़ी देर तो ठिठका रह गया,जवाब दे तो क्या दे! जवाब देने को कुछ था भी नहीं। और इस आदमी की मौजूदगी और इस आदमी का आह्लाद और इस आदमी की सचाई और इस आदमी की वाणी की गहराई प्राणों के आर -पार हो गयी। उसने कहा कि आप सिंहासन पर विराजे और इस सराय में जब तक ठहरना हो ठहरें। मैं चला।
इब्राहीम बाहर हो गया। महल छोड़ दिया। सराय में क्या रुकना! फिर वह गांव के बाहर रहता था। और अक्सर ऐसा हो जाता था,राहगीर आते... वह एक चौराहे पर रहने लगा थाएक झाडू के नीचे... राहगीर उससे पूछते कि बाबाबस्ती का रास्ता किस तरफ हैतो कह देता कि बायें चले जाओ। देखो बायें ही जानातो बस्ती पहुंच जाओगे। दाएं भूलकर मत जानानहीं तो मरघट पहुंच जाओगे।
फकीर की बात मानकर लोग बाएं चले जातेदो -चार मील चलने के बाद मरघट पहुंच जाते। पह मरघट का रास्ता था। लौटकर बड़े नाराज आते कि यह भी कोई मजाक की बात है। हम थके -मांदे यात्रीदूर से आये यात्री और तुमने कहाबाएं ही जाना तो बस्ती पहुंचोगे और हम मरघट पहुंच गये!
तो इब्राहीम कहता : तो हमारी भाषाओं में कुछ भेद हैक्योंकि वहां  मरघट जिसको तुम कह रहे होजो लोग बसे हैं वे कभी उखड़ते नहीं। इसलिए मैं उसे बस्ती कहता हूं -जो बस गया सो बस गया। बस्ती उसको कहना चाहिए,जहां से लेकिन तुमने बस्ती क्यों कहातो मरघट इस तरफ हैदाइ तरफ चले जाओ। जिसको तुम बस्ती कह रहे हो वह मरघट हैं,क्योंकि वहां  सब आदमी मरने को तत्पर हैं। आज कोई मराकल कोई मरापरसों कोई मरा!
यहां इक खिलौना है इन्सां की हस्ती
यह बस्ती है मुर्दा-परस्तों की बस्ती
यहां पर तो जीवन से है मौत सस्ती
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
लेकिन दौड़ रहे हैं लोग...। कितनी आपाधापी है इस दुनिया को पा लेने के लिए! और इस पाने में सिर्फ एक बात घटती है-खुद लुट जाते हैं। कंकड़ -पत्थर इकट्ठे हो जाते हैं,आत्मा बिक जाती है। खुद को बरबाद कर लेते हैं। है।कुछ चीजें छोड़ जाते हैं। कुछ मकान बना जाते हैं। कुछ पत्थरों पर नाम खोद जाते हैं। इससे जो सावधान होता हैवही व्यक्ति धर्म के जगत में प्रवेश करता है। वह वस्तुस्थिति के प्रति जो जागरूक होता हैवही धार्मिक है।
धर्म का मंदिर - मस्जिदों और गिरजों से कुछ लेना नहींगीता- कुरान और बाइबिल से कुछ लेना नहीं। धर्म का संबंध है इस बौध सें-यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है! तर की तरह यह बात चुभ जाए भीतरतो जीवन में एक झरना फूटता है। तुम्हारे ही प्राणों मेंतुम्हारे ही अंतःकरण में एक संगीत उपगत। है- तुम्हारे भीतर ही एक ज्योति जलनी शुरू होती है-जों शायद जल ही रहीं थीलेकिन तुम्हारी आखें चूंकि बाहर भटक रही थीचूंकि तुम दुनिया की तलाश पर निकले थे और तुमने कभी पीछे लौटकर अपने भीतर नहीं देखा थाइसलिए पता न चला था। इसलिए प्रत्यभिज्ञा न हो सकी थी।
जिस दिन दिखाई पड़ जाता है कि यह पूरी दुनिया भी मिल जाए तो कुछ मिलेगा नहीं,उस दिन आदमी आंख  बंद करता है और अपने भीतर देखता है। तब अपना स्वरूप दिखाई पड़ता है -मैं कौन हूं! और जिसने जान लिया मैं कौन हूं, उसने सब जान लिया। जो भी जानने योग्य है सब जान लिया। जो भी पाने योग्य है सब पा लिया।
स्वयं को जानते ही तृप्ति की वर्षा हो जाती हैअमृत के मेघ घिर आते हैं। शाश्वत जीवन का द्वार खुल जाता है। बाहर तो जो कुछ है सब क्षणभंगुर है। पानी के बबूले हैं। इंद्रधनुष हैं। क्षितिज की तरह जो कुछ भी है सब झूठ है;दिखाई पड़ता है और फिर भी नहीं है।
देखते नहींथोड़ी ही दूर पर आकाश पृथ्वी से मिलता हुआ दिखाई पड़ता है- और कहीं मिलता नहीं! दौड़ते रहोदौड़ते रहोदौड़ते रहो... दौड़ते -दौड़ते गिर जाओगे। दौड़ते -दौड़ते कब्र में पड़ जाओगे। झूले से लेकर कब्र तक दौड़ते ही रहोगे और क्षितिज कभी आयेगा नहीं।
इस दुनिया के मिल जाने से भी कुछ मिलता नहीं हैऐसी प्रतीति... और एक क्रांति घटती है। कंकड़ -पत्थरों से नजर हट जाती है और आत्मा की तलाश शुरू होती है। धन मूल्यहीन हो जाता हैध्यान का मूल्य प्रतिष्ठित होता है। उसी ध्यान के मूल्य के ये सूत्र हैं।
हंसा तो मोती चुगैं! हंस बनो! चुगना हो तो मोती चुगो। कब तक कंकड़ -पत्थर का इकट्ठा करते रहोगेकब तक ठीकरों में उलझे रहोगेकब तक व्यर्थ को ही सार्थक समझकर दौड़ते रहोगेकब जागोगे मृग-मरीचिका से?कब स्मरण करोगे कि हंस हो तुमकि मान-सरोवर तुम्हारा देश है! कि मोती ही तुम्हारा भोजन हो सकते हैं! कि मोती चुगो तो ही तृप्ति हैतो ही तोष हैतो ही मुक्ति हैतो ही मोक्ष है! कि मोती ही चुगो तो निर्वाण है।
चहल -पहल की इस नगरी में हम तो निपट बिराने हैं
हम इतने अज्ञानीनिज को हम ही स्वयं अजाने हैं!
इसीलिए हम तुमसे कहते
दोस्त हमारा नाम न पूछो!
हम तो रमते -रमते सदा के
दोस्त हमारा गाम न पूछो! 
एक यंत्र - साजो कि नियति के
हाथों से संचालित होता
कुछ ऐसा अस्तित्व हमारा,
दोस्त हमारा काम न पूछो!
यहां सफलता या असफलताये तो सिर्फ बहाने हैं।
केवल इतना सत्य कि निज को हम ही स्वयं अजाने हैं।
चरणों में कंपन हैमस्तक पर शत-शत शंकाएं हैं
अंधकार आखों मेंउर में चुभती हुई व्यथाएं हैं!
अपनी इन निर्बलताओं का,
हम कहते हैं -हमें ज्ञान है,
इसीलिए हम ढूंढ रहे हैं जो शाश्वत है,
जो महान है! जितने देखे-मिटने वाले।
जीवन औनिर्माण लिए जो प्रेम अकेला शक्तिवान है!
बुरा न मानोजनम -जनम के हम तो प्रेम दीवाने हैं
इसीलिए हम तुमसे कहतेहम तो निपट बिराने हैं!
चहल -पहल की इस नगरी में हम तो निपट बिराने हैं
हम इतने अज्ञानीनिज को हम ही स्वयं अजाने हैं!
अपने से ही परिचय नहीं हैदूसरे का परिचय हम करने चले हज। अपने से संबंध नहीं हैदूसरों से संबंध हम बनाने चले हैं। इसलिए हमारे सारे संबंध विषाद लाते हैंसंताप लाते हैं।
जिसे हम प्रेम कहते हैं वह सच्चा नहीं हो सकताक्योंकि जब तक ध्यान से न उमगे तब तक कैसे सच्चा होगाजो अपने से ही संबंध नहीं बना पायावह किस और से संबंध बना सकेगापति पत्नी सेभाई बहन सेमित्र मित्र सेमां बेटे सेकिससे संबंध बनाओगेअभी तो प्राथमिक संबंध का पाठ भी पूरा नहीं हुआ। अभी तो तुम पहली सीढ़ी भी नहीं चढ़े।
ध्यान पहली सीढ़ी है। ध्यान का अर्थ होता है : अपने से संबंध। ध्यान को ठीक से समझो तो ध्यान का अर्थ होता है : अपने से प्रेम। और जो निज के प्रेम में डुबकी मारता है,उसे पता चलता है कि वहां  मैं जैसी कोई इकाई नहीं है। लहर हूं सागर की। जिसने मैं में डुबकी मारी वह पाता है कि मैं तो हूं ही नहीं। तब एक नये अर्थों मेंएक नये आयाम मेंएक नयी भाव- भंगिमा में प्रेम का उदय होता है। वह प्रेम संबंध नहीं हैवह प्रेम तुम्हारी स्वयं की सहज,स्वस्फूर्त अवस्था है। लाल के सूत्र ध्यान से प्रेम कैसे जन्मेंइसके सूत्र हैं।
अवल गरीबी अंग बसैसीतल सदा सुभाव।
पावस बूढ़ा परेम राजल सूं सींचो जाव।।
अवल गरीबी अंग बसै...। सबसे पहले तो यह समझ लो कि तुम हो ही नहीं। इतने गरीब हो कि तुम हो ही नहीं। यह मैं जब तक है तब तक तुम अपने को कुछ-न-कुछ समझे बैठे हो -कुछ -न -कुछ अमीरी का दावा। मैं तुम्हारी सबसे  बड़ी संपदा हैशेष सारी संपदाएं तो मैं का ही विस्तार हैं। मेरा मकानमेरी दुकानमेरा मंदिरमेरा धनमेरा पदमेरी प्रतिष्ठा-यह सारा मेरा मैंका ही विस्तार है। और हम मेरे का विस्तार इसीलिए तो करते हैं ताकि मैं मजबूत होता जाएसघन होता जाएसुदृढ़ होता जाए।'मेरा' 'मैंका रक्षण करता है। 'मेराजैसे जल बन जाता है 'मैंकी मछली को जिलाए रखने को। लेकिन 'मेरेके पीछे छिपा हमेशा ही 'मैं 'है।
और अपने में उतरो तो पाओगे पहली बात कि मैं तो है ही नहीं। इसलिए प्रथम ही भूल हो गयी। इसलिए यात्रा का पहला कदम ही गलत दिशा में पड़ गया। फिर तुम मंजिल तक न पहुंचो तो आश्चर्य क्या!
अवल गरीबी अंग बसै...। सबसे पहले तो अपने अंतर मेंअंतरतम मेंअपने भीतर से भीतर एक बात को समझ लेना कि मैं नहीं हूं। ऐसे गरीब हो जाना कि मैं नहीं हूं। ऐसे निर्बल हो जाना कि मैं नहीं हूं। और जो इतना निर्बल हो जाता हैउसे बहुत कुछ मिलता है। निर्बल के बल राम! जो इतना भीतर शून्य हो जाता है,अधिकारी हो जाता है। जिसने अपने को मिटा ही दियावह मंदिर बन गया। उसके भीतर परमात्मा को उतरना ही होगाअपरिहार्य रूप से उतरना होंगे। अवल गरीबी अंग बसै...। तो सबसे पहले तो अंग- अंग में यह मैं - भाव मर जाएयह अहंकार चला जाए कि मैं पृथक हूं कि मैं विशिष्ट हूं कि मैं दूसरों से ऊपर हूं कि मैं कुछ खास हूं। और यह मैं - भाव इतना सूक्ष्म है और चालबाज है कि बड़े बारीक रास्ते खोज लेता है। धन हो तो अकड़ जाता है- कि मैंने पद का त्याग कर दिया! धन छोड़ दे तो अकड़ जाता है-कि मैंने धन का त्याग कर दिया! बाजार में होता है तो अकड़।बाजार छोड्कर पहाड़ की गुफा में बैठ जाता है तो अकड़ा-कि मैंने लाखों पर लात मार दी! मगर अकड़ अपनी जगी खड़ी रहती है। रस्सी जल भी जाती है तो भी ऐंठन नहीं जाती।
इस मैं के प्रति बड़ी सचेतना चाहिए। इसके एक-एक ढंग को पहचानना होगा। पर्त - पर्त इसको उघाड़ना होगा। इसका साक्षात्कार करना होगा। इसे देखना होंगा-इसकी हर भाव- भंगिमा मेंहर मुद्रा में। यह कभी पीछे के दरवाजों से भी आता हैवहां  भी जांच -पड़ताल रखनी होगी। सावचेत रहना होगा।
अवल गरीबी अंग बसै सीतल सदा सुभाव। और जिस दिन तुम पाओगे कि यह मैं मर गया और तुम मैं से गरीब  हो गएउसी दिन तुम्हारे जीवन में एक शीतलता उतर आयेगी। तुम्हारा स्वभाव एकदम शीतल हो जायेगा। क्योंकि सारी उष्णता और गरमी अहंकार की है। सारा क्रोधसारा उत्ताप अहंकार का है। तुम जो जले - भुने जाते होसारा बुखार अहंकार का है।
अहंकार गया तो रोग गया। तुम ख्याल करोजितना अहंकार हो उतनी ही जीवन में ज्वालाएं सहनी पड़ती हैंउतना ही उत्ताप झेलना पड़ता हैउतने ही घाव...। जितना अहंकार कम हो उतने ही घाव नहीं। अहंकार ही नहीं तो घाव लगे कैसेअहंकार ही नहीं तो कोई गाली भी दे जायेगा तो फूल जैसी पड़ेगी। और अहंकार हो तो फूल भी मार दो किसी को,तो पत्थर जैसा लगेगा। अहंकार के कारण ही तुम्हारा जीवन आग की लपटों में झुलसा जा रहा है। तुम शीतल नहीं हो पा रहे। तुम शांत नहीं हो पा रहे। तुम जीवन का परम आनंद नहीं अनुभव कर पा रहे। तुम अपने ही हाथों नर्क में हो। स्वर्ग तुम्हारा हो सकता है। स्वर्ग तुम्हारा अधिकार हैतुम्हारा स्वरूप -सिद्ध अधिकार है। मगर शर्त पूरी करनी होगी।
मेरी भूलों से मत उलझो,
जनम जनम का मैं अज्ञानी!
कांटो से निज राह सजाकर,
मैंने उस पर चलना सीखा,
श्वासों में निःश्वास बसाकर
मैंने उस पर पलना सीखा
गलना सीखा मैंने निशि-दिन 
निज आखों का पानी बन कर,
अपने घर में आग लगा कर
मैंने उसमें जलना सीखा।
मुझे नियति ने दे रक्खी है
पागलपन से भरी जवानी!
मेरी भूलों से मत उलझो,
जनम -जनम का मैं अज्ञानी!
लगातार मैं जीता जाता,
भरता जाता मेरा प्याला!
मैं क्या जानूं क्या है अमृत?
क्या जानू क्या यहा हलाहल?
खारा- खारा नीर उदधि का,
मीठा-मीठा है गंगा-जल!
सुनने को तो सुन लेता हूं 
कडुवे - मीठे बोल जगत के
तड़प-तड़प उठती है बिजली,
बरस -बरस पड़ते हैं बादल!
कौन पिलाने तालाबोलो,
कौन यहां पर पीने वाला?
लगातार मैं पीता जाता,
भरता जाता मेरा प्याला!
सीधा-सादा ज्ञान तुम्हारा,
बहकी-बहकी मेरी बातें!
एक तड़प उसकी हर धड़कन,
जिसको तुम सब कहते हो दिल
और स्वयं मैं एक लहर हूं
मैं क्या जानूं क्या है साहिल?
मेरे मन में नयी उमंगें मेरे पैरों में चंचलता,पिछली मंजिल छोड़ चुका हूं।
ज्ञात नहीं है अगली मंजिल!
सबके सपने अलग- अलक हैं,
यद्यपि वही हैं सबकी रातें!
सीधा-सादा ज्ञान तुम्हारा,
बहकी-बहकी मेरी बातें!
जरा मनुष्य को देखो।
उसके डावांडोल होते पैरों को देखो। ऐसे चलता है जैसे शराब चल रहा हो। चलता जाता है। गिरता हैउठता हैचलने लगता है। मगर कुछ स्पष्ट नहीं है। न कोई दिखा -बोध है। न कोई जीवन में कम है। अगर किसी को झकझोर कर पूछो कि कहां जा रहे होतो किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रह जाता है। कंधे बिचकाता है।
इसलिए लोग इस तरह के प्रश्न पूछते भी नहीं एक -दूसरे से। अशिष्टाचार मालूम होगा ऐसे प्रश्न पूछो तो। लोग फिजूल की बातें करते हैंमौसम की बातें करते है-कि आज बादल घिरे हैंकि आज सूरज निकला हैकि तबियत कैसी हैकि स्वास्थ्य कैसा हैलोग फिजूल की बातें पूछते हैं। मतलब की कोई बात पूछता नहीं।
रवींद्रनाथ ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि जब गीताजलिउनकी प्रसिद्ध कृति,प्रकाशित हुईजिसमें उन्होंने ठीक वैसे अमृत- वचन लिखे हैं जैसे उपनिषदों के वचन हैंतो एक पड़ोस का व्यक्तिएक बूढ़ा आदमी सुबह-सुबह घूमते उन्हें पकड़ लियादोनों कंधे हिलाकर बोला : ईश्वर को देखा हैउसकी आखें बड़ी पैनी थीं कि भेद जाएं भीतर तक। और जिस ढंग से उसने पूछा और जिस बेवक्त पकड़कर पूछारवींद्रनाथ न कह सके कि देखा है। चुप खड़े रह गए। वह आदमी खिलखिलाकर हंसने लगा। उसकी खिलखिलाहट छाती में छुरी की तरह चुभ गयी। और फिर वह आदमी जब भी मिलता और अक्सर मिल जातापड़ोस में ही थाकहीं भी आते -जाते मिल जाता-तों वह छोड़ता नहीं था मौकापकड़ लेता : ईश्वर के देखा हैईमान से बोलोईश्वर को देखा है?
रवींद्रनाथ ने एक दिन उससे कहा : भई,यह प्रश्न मुझसे बार -बार क्यों पूछते होउसने कहा : गीताजलि क्या लिखीअगर ईश्वर के देखा नहीं है तो क्यों ये गीत लिखेकैसे ये गीत लिखेये सब गीत झूठे हैं!
रवींद्रनाथ बचते थे। अगर उनको निकलना भी होता तो चक्कर मारकर जाते उसके घर के आसपास से न निकलते। तो वह आदमी उनके घर आने लगा। दरवाजा खटखटाने लगा। सुबह से ही आकर बैठ जाता। जब तक मिल न ले तब तक जाता नहीं। और मिलता तो वही सवालवही तीखी आखें,जिनके सामने झूठ न बोला जा सके।
लेकिन एक सुबह रवींद्रनाथ सागर तट पर गए थे। वहां उन्होंने सूरज को सागर पर चमकते देखासुबह होती थी और सूरज निकलता था। और सूरज की लालिमा आकाश में भी फैल गयी थी और सागर में भी। रात वर्षा हुई थी। रास्ते के किनारे गड्डों में जल भर गया था। जब झलक रहा था।
विराट सागर में! और रास्ते के किनारे गंदे डबरों में भी चमक रहा थाउतना ही सुंदर! कुछ भेद न था डबरों में और सागर में। सूरज के लिए कोई भला न था। डबरे भी वैसे ही थे जैसे सागर। गंदे थे डबरे और सागर स्वच्छ था। लेकिन सूरज का जो प्रतिबिंब बन रहा थायह न तो गंदा होता है और न स्वच्छ होता है। गंदगी प्रतिबिंब को कैसे छुएगीप्रतिबिंब तो अछूता रहता है। प्रतिबिंबों संन्यासी है। उसे कुछ भी नहीं छूता।
यह भाव-बोध और जैसे एक द्वार खुल गया! अब तक जो मन में ख्याल था बुरे आदमी और अच्छे आदमियों कासज्जन का दुर्जन कासाधु का असाधु का-गिर गयाएक क्षण में गिर गया! और आज पहली बार उस आदमी पर क्रोध नहीं आया। उल्टा रवींद्रनाथ आगे बढ़े और उस आदमी को गले लगा लिया। और वह आदमी हंसने लगा। तो उसने कहा कि फिर,दर्शन हुआ! तो लगता है दर्शन हुआ! तो लगता है झलक मिली! अब बात ठीक हुई। अब तुम गीताजलि के गीत गाने योग्य हुए।
क्या हो गया उस दिनबुरे - भले का भेद मिट गया। पदार्थ -परमात्मा का भेद मिट गया। संसार-संन्यास का भेद मिट गया। भेद मिट गया!
जिस दिन तुम्हारे भीतर अहंकार गिर जायेगाउस दिन तुम्हारे भीतर से सारे भेद मिट जायेंगेक्योंकि सारे भेदों का निर्माता अहंकार है। जिस दिन अहंकार गयातुलना गयी। फिर तुम तौलोगे नहीं- कौन अच्छा कौन बुराकौन ऊपर कौन नीचे।

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जीवन की खोज – Jeevan Ki Khoj अनुक्रम       #1: प्यास       #2:  मार्ग       #3: द्वार       #4: प्रवेश Download Jeevan Ki Khoj (जीवन की खोज) "Osho" PDF जीवन क्या है? उस जीवन के प्रति प्यास तभी पैदा हो सकती है, जब हमें यह स्पष्ट बोध हो जाए, हमारी चेतना इस बात को ग्रहण कर ले कि जिसे हम जीवन जान रहे हैं, वह जीवन नहीं है। जीवन को जीवन मान कर कोई व्यक्ति वास्तविक जीवन की तरफ कैसे जाएगा? जीवन जब मृत्यु की भांति दिखाई पड़ता है, तो अचानक हमारे भीतर कोई प्यास, जो जन्म-जन्म से सोई हुई है, जाग कर खड़ी हो जाती है। हम दूसरे आदमी हो जाते हैं। आप वही हैं, जो आपकी प्यास है। अगर आपकी प्यास धन के लिए है, मकान के लिए है, अगर आपकी प्यास पद के लिए है, तो आप वही हैं, उसी कोटि के व्यक्ति हैं। अगर आपकी प्यास जीवन के लिए है, तो आप दूसरे व्यक्ति हो जाएंगे। आपका पुनर्जन्म हो जाएगा। ओशो

ध्यान सूत्र। (Dhyan sutra -ओशो Pdf file

ध्यान सूत्र। (Dhyan sutra)                                 -ओशो DHYAAN SUTRA 〰〰 🎙HINDI 📆1965 💿9 DISCOURSES अनुक्रमणिका : प्रवचन 1 - प्यास और संकल्प    3 प्रवचन 2 - शरीर-शुद्धि के अंतरंग सूत्र    18 प्रवचन 3 - चित्त-शक्तियों का रूपांतरण    42 प्रवचन 4 - विचार-शुद्धि के सूत्र    62 प्रवचन 5 - भाव-शुद्धि की कीमिया    77 प्रवचन 6 - सम्यक रूपांतरण के सूत्र    96 प्रवचन 7 - शुद्धि और शून्यता से समाधि फलित    119 प्रवचन 8 - समाधि है द्वार    133 प्रवचन 9 - आमंत्रण--एक कदम चलने का  👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻 Download Dhyan Sutra (ध्यान सूत्र) PDF

Shiv sutra शिव सूत्र (ओशो) PDF

शिव—सूत्र—(ओशो) (समाधि साधपा शिवर, श्री ओशो आश्रम, पूना। दिनांक 11 से 20 सितंबर, 1974 तक ओशो द्वारा दिए गए दस अमृत—प्रवचनो का संकलन। Download Shiv Sutra (शिव सूत्र) PDF अनुक्रम         #1: जीवन-सत्य की खोज की दिशा         #2: जीवन-जागृति के साधना-सूत्र         #3: योग के सूत्र : विस्मय, वितर्क, विवेक         #4: चित्त के अतिक्रमण के उपाय         #5: संसार के सम्मोहन, और सत्य का आलोक         #6: दृष्टि ही सृष्टि ‍है         #7: ध्यान अर्थात चिदात्म सरोवर में स्नान         #8: जिन जागा तिन मानिक पाइया         #9: साधो, सहज समाधि भली!         #10: साक्षित्व ही शिवत्व है   Description Reviews

जिन खोजा तिन पाइयां -ओशो Pdf

जिन खोजा तिन पाइयां।                          -ओशो (कुंडलिनी - योग पर ध्यान शिविर, नारगोल में ध्यान प्रयोगों के साथ प्रवचन एवम मुम्बई में प्रश्नोत्तर चर्चाओं सहित "19" ओशो प्रवचनों का अपूर्व संकलन) pdf file  428 pages Download Pdf file Here Language :- Hindi  Size :- 3.3mb Type :- Pdf file जिन खोजा तिन पाइयां ऊर्जा का विस्तार है जगत और ऊर्जा का सघन हो जाना ही जीवन है। जो हमें पदार्थ की भांति दिखाई पड़ता है, जो पत्थर की भांति भी दिखाई पड़ता है, वह भी ऊर्जा, शक्ति है। जो हमें जीवन की भांति दिखाई पड़ता है, जो विचार की भांति अनुभव होता है, जो चेतना की भांति प्रतीत होता है, वह भी उसी ऊर्जा, उसी शक्ति का रूपांतरण है। सारा जगत-- चाहे सागर की लहरें, और चाहे सरू के वृक्ष, और चाहे रेत के कण, और चाहे आकाश के तारे, और चाहे हमारे भीतर जो है वह, वह सब एक ही शक्ति का अनंत-अनंत रूपों में प्रगटन है। ओशो  कुंडलिनी-यात्रा पर ले चलने वाली इस अभूतपूर्व पुस्तक के कुछ विषय बिंदु: शरीर में छिपी अनंत ऊर्जाओं को जगाने का एक आह्वान सात चक्रों व सात शरीरो

कृष्ण स्मृति-ओशो Pdf

     कृष्ण स्मृति             -ओशो। (ओशो द्वारा कृष्ण के बहु-आयामी व्यक्तित्व पर दी गई 21 र्वात्ताओं एवं नव-संन्यास पर दिए गए एक विशेष प्रवचन का अप्रतिम संकलन। यही वह प्रवचनमाला है जिसके दौरान ओशो के साक्षित्व में संन्यास ने नए शिखरों को छूने के लिए उत्प्रेरणाली और "नव संन्यास अंतर्राष्ट्रीय' की संन्यास-दीक्षा का सूत्रपात हुआ।) File name :- कृष्ण स्मृति  Language :- Hindi Size:- 6mb 504 pages  Download Pdf file here अनुक्रमणिका : प्रवचन 1 - हंसते व जीवंत धर्म के प्रतीक कृष्ण    2 प्रवचन 2 - इहलौकिक जीवन के समग्र स्वीकार के प्रतीक कृष्ण    22 प्रवचन 3 - सहज शून्यता के प्रतीक कृष्ण    53 प्रवचन 4 - स्वधर्म-निष्ठा के आत्यंतिक प्रतीक कृष्ण    72 प्रवचन 5 - "अकारण'’ के आत्यंतिक प्रतीक कृष्ण    96 प्रवचन 6 - जीवन के बृहत् जोड़ के प्रतीक कृष्ण    110 प्रवचन 7 - जीवन में महोत्सव के प्रतीक कृष्ण    141 प्रवचन 8 - क्षण-क्षण जीने के महाप्रतीक कृष्ण    167 प्रवचन 9 - विराट जागतिक रासलीला के प्रतीक कृष्ण    196

होश की साधना - ओशो || मुल्ला नसीरुद्दीन पर ओशो || Osho Jokes in Hindi

होश की साधना - ओशो   एक सुंदर अध्यापिका की आवारगी की चर्चा जब स्कूल में बहुत होने लगी तो स्कूल की मैनेजिंग कमेटी ने दो सदस्यों को जांच-पड़ताल का काम सौंपा। ये दोनों सदस्य उस अध्यापिका के घर पहुंचे। सर्दी अधिक थी, इसलिए एक सदस्य बाहर लान में ही धूप सेंकने के लिए खड़ा हो गया और दूसरे सदस्य से उसने कहा कि वह खुद ही अंदर जाकर पूछताछ कर ले। एक घंटे के बाद वह सज्जन बाहर आए और उन्होंने पहले सदस्य को बताया कि अध्यापिका पर लगाए गए सारे आरोप बिल्कुल निराधार हैं। वह तो बहुत ही शरीफ और सच्चरित्र महिला है। इस पर पहला सदस्य बोला, "ठीक है, तो फिर हमें चलना चाहिए। मगर यह क्या? तुमने केवल अंडरवीयर ही क्यों पहन रखी है? जाओ, अंदर जाकर फुलपेंट तो पहन लो।" यहां होश किसको? मुल्ला नसरुद्दीन एक रात लौटा। जब उसने अपना चूड़ीदार पाजामा निकाला तो पत्नी बड़ी हैरान हुई; अंडरवीयर नदारद!! तो उसने पूछा, "नसरुद्दीन अंडरवीयर कहां गया?" नसरुद्दीन ने कहा कि अरे! जरूर किसी ने चुरा लिया!! अब एक तो चूड़ीदार पाजामा! उसमें से अंडरवीयर चोरी चला जाए और पता भी नहीं चला!! चूड़ीदार पाजामा नेतागण पहनते

भक्ति सूत्र -ओशो। Narad Bhakti Sutra Pdf file

भक्ति सूत्र           -ओशो। Narad Bhakti Sutra Pdf file अनुक्रम :- १. परम प्रेमरूपा है भक्ति २. स्वयं को मिटाने की कला है भक्ति ३. बड़ी संवेदनशील है भक्ति ४. सहजस्फूर्त अनुशासन है भक्ति ५. कलाओं की कला है भक्ति ६. प्रसादस्वरूपा है भक्ति ७. योग और भोग का संगीत है भक्ति ८. अनंत के आंगन में नृत्य है भक्ति ९. हृदय का आंदोलन है भक्ति १॰. परम मुक्ति है भक्ति ११. शून्य की झील में प्रेम का कमल है भक्ति १२. अभी और यहीं है भक्ति १३. शून्य का संगीत है प्रेमा-भक्ति १४. असहाय हृदय की आह है प्रार्थना-भक्ति १५. हृदय-सरोवर का कमल है भक्ति १६. उदासी नहीं–उत्सव है भक्ति १७. कान्ता जैसी प्रतिबद्धता है भक्ति १८. एकांत के मंदिर में है भक्ति १९. प्रज्ञा की थिरता है मुक्ति २॰. अहोभाव, आनंद, उत्सव है भक्ति Book:- Narad Bhakti Sutra Osho Language :-Hindi Size :- 3mb 440 pages Download Bhakti Sutra Pdf (भक्ति सूत्र) भक्ति-सूत्र : एक झरोखा भक्ति यानी प्रेम–ऊर्ध्वमुखी प्रेम। भक्ति यानी दो व्यक्तियों के बीच का प्रेम नहीं, व्यक्ति और समाष्टि के बीच का प्रेम। भक्

संयमित आहार के सूत्र || भोजन करने का सही तरीका - ओशो

संयमित आहार के सूत्र - ओशो  मेरे पास बहुत लोग आते हैं ,   वे कहते हैं ,   भोजन हम ज्यादा कर जाते हैं ,   क्या करें ?   तो मैं उनसे कहता हूं ,   होशपूर्वक भोजन करो। और कोई   डाइटिंग   काम देनेवाली नहीं है। एक दिन ,   दो दिन   डाइटिंग   कर लोगे जबर्दस्ती ,   फिर क्या होगा ?   दोहरा टूट पड़ोगे फिर से भोजन पर। जब तक कि मन की मौलिक व्यवस्था नहीं बदलती ,   तब तक तुम दो-चार दिन उपवास भी कर लो तो क्या फर्क पड़ता है! फिर दो-चार दिन के बाद उसी पुरानी आदत में सम्मिलित हो जाओगे। मूल आधार बदलना चाहिए। मूल आधार का अर्थ है ,   जब तुम भोजन करो ,   तो होशपूर्वक करो ,   तो तुमने मूल बदला। जड़ बदली। होशपूर्वक करने के कई परिणाम होंगे। एक परिणाम होगा ,   ज्यादा भोजन न कर सकोगे। क्योंकि होश खबर दे देगा कि अब शरीर भर गया। शरीर तो खबर दे ही रहा है ,   तुम बेहोश हो ,   इसलिए खबर नहीं मिलती। शरीर की तरफ से तो इंगित आते ही रहे हैं। शरीर तो यंत्रवत खबर भेज देता है कि अब बस ,   रुको। मगर वहां   रुकनेवाला   बेहोश है। उसे खबर नहीं मिलती। शरीर तो टेलीग्राम दिये जाता है ,   लेकिन जिसे मिलना चाहिए वह सोया ह

प्यास और संकल्प | ध्यान सूत्र - ओशो

संकल्प कैसे लें - ओशो 1. सबसे पहली बात ,  सबसे पहला सूत्र , जो स्मरण रखना है ,  वह यह कि आपके भीतर एक वास्तविक प्यास है ?  अगर है ,  तो आश्वासन मानें कि रास्ता मिल जाएगा। और अगर नहीं है , तो कोई रास्ता नहीं है। आपकी प्यास आपके लिए रास्ता बनेगी। 2. दूसरी बात ,  जो मैं प्रारंभिक रूप से यहां कहना चाहूं ,  वह यह है कि बहुत बार हम प्यासे भी होते हैं किन्हीं बातों के लिए ,  लेकिन हम आशा से भरे हुए नहीं होते हैं। हम प्यासे होते हैं , लेकिन आशा नहीं होती। हम प्यासे होते हैं , लेकिन निराश होते हैं। और जिसका पहला कदम निराशा में उठेगा ,  उसका अंतिम कदम निराशा में समाप्त होगा। इसे भी स्मरण रखें , जिसका पहला कदम निराशा में उठेगा ,  उसका अंतिम कदम भी निराशा में समाप्त होगा। अंतिम कदम अगर सफलता और सार्थकता में जाना है ,  तो पहला कदम बहुत आशा में उठना चाहिए। 3. तीसरी बात ,  साधना के इन तीन दिनों में आपको ठीक वैसे ही नहीं जीना है ,  जैसे आप आज सांझ तक जीते रहे हैं। मनुष्य बहुत कुछ आदतों का यंत्र है। और अगर मनुष्य अपनी पुरानी आदतों के घेरे में ही चले ,  तो साधना की नई दृष्टि खोलने म