कानो सुनी सो झूठ सब--प्रवचन-04
कानो सुनी सो झूठ सब-(दरिया)
सुख-दुख से कोई परे परम पद
प्रवचन: चौथा
दिनांक: १४.७. १९७७
श्री रजनीश आश्रम, पूना
आखिरी प्रश्न: आप में असंभव संभव हुआ है, अघट घटित हुआ है। और आपको समझना भी असंभव सा ही लगता है। ऐसा क्यों?
प्रवचन सुनें (Audio File)
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समझना चाहोगे तो असंभव हो जाएगा। समझने की चाह में ही दूरी पैदा हो जाती है। तुम प्रेम से सुनो, समझने इत्यादि की फिक्र छोड़ो। तुम सिर्फ प्रेम से सुनो और समझ जाओगे। समझने चले तो चूक जाओगे।
क्यों? क्योंकि जब तुम समझने बैठते हो तब तुम बुद्धि को बीच में ले आते हो। तुम पूरे वक्त सजग होकर देख रहे हो कि कौन सी बात ठीक,कौन सी बात ठीक नहीं। कौन सी बात ठीक नहीं। कौन सी बात तर्क के अनुकूल, कौन सी बात तर्क के प्रतिकूल। कौन सी बात मेरे शास्त्र के अनुकूल, कौन सी बात मेरे शास्त्र के प्रतिकूल। तुम इस सब उधेड़बुन में पड़ जाते हो। वह शास्त्र की धूल तुम्हारे भीतर अंधड़ होकर उठने लगती है। तुम मुझे तो भूल ही जाते हो। उस अंधड़ में तुम्हें कभी-कभी कुछ-कुछ सुनाई पड़ता है। कुछ का कुछ भी सुनाई पड़ता है। और फिर तुम व्याख्या कर लेते हो। फिर तुम अपने हाथ में उलझन खड़ी कर लेते हो।
ये बातें समझने की नहीं हैं। ये बातें प्रेम में उतरने की हैं। तुम सिर्फ सुनो। क्या फिक्र समझने की?समझें तो ठीक, न समझें तो ठीक। यह समझने का हिसाब ही अलग रख दो। यह समझने की दुकानदारी की हटा दो। तुम सिर्फ सुन लो। ऐसे सुन लो, जैसे कोई झरने का कल-कल नाद सुनता है। वहां तो तुम समझने के लिए नहीं जाते। वहां तो तुम नहीं कहते कि यह झरना कुछ समझ में नहीं आ रहा। कल कल कल तो हो रही है, लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा है। समझने को है क्या? झरना है कल कल है, और क्या समझना है, इसमें डूबो। जब पक्षी गुन-गुन करते तब तुम समझते तो नहीं। मगर कहते हो,बड़ा रस आता है। जब कोई वीणा बजाता है तो तुम क्या समझते हो? लेकिन डोलने लगते हो। ये बातें डोलने की हैं, समझने की नहीं।
मैंने सुना है, लखनऊ का एक पागल नवाब,उसके दरबार में एक संगीतज्ञ आया, बड़ा वीणावादक। उस संगीतज्ञ ने कहा कि बजाऊंगा तो वीणा लेकिन मेरी एक शर्त है। मैं इस बिना शर्त के कभी बजाता ही नहीं। मुझे सुनते वक्त कोई सिर न हिले। नवाब तो पागल था। शायद वाजिब अली हो या कोई और हो, मगर पक्का लखनवी था। उसने कहा, तुम फिक्र मत करो। सिर हिला कि उसी वक्त उतरवा देंगे। तलवार तैयार रखेंगे।
डुंडी पिटवा दी लखनऊ में कि जो लोग सुनने आएं, वे सोचकर आएं। अगर सिर हिला तो गरदन उतार दी जाएगी। संगीतज्ञ का बड़ा नाम था और लखनऊ के रसिक लोग बड़े दिन से प्रतीक्षा करते थे कि कब यह शुभ घड़ी आएगी कि इसको सुनेंगे। लेकिन यह बड़ी झंझट खड़ी हो गई। लाखों लोग आए होते। दूर-दूर से लोग आए होते सुनने, लेकिन मुश्किल से हजार एक लोग आए। क्योंकि यह बड़ा खतरनाक था। हजार में भी ऐसे ही लोग आए होंगे, जो बिलकुल हर हालत में अपने पर काबू रख सकें। जिनको यम-नियम आसन इत्यादि का पता होगा कि बिलकुल मारकर सिद्धासन बैठ जाएंगे आंख बंद करके। हिलेंगे ही नहीं तो फिर क्या होगा?
आ गई, बैठ तो गए लोग लेकिन सब तैयार होकर बैठ गए। सबने अपने शरीर का अकड?लिया कि कभी भूल-चूक में भी हिल जाओ, तो यह पागल नवाब है। फिर यह भी नहीं तय करेगा कि भूल-चूक से मक्खी आ गई थी इसलिए शरीर हिल गया था। यह तो पागल तो पागल। यह सुनेगा नहीं। और उसने चारों तरफ नंगी तलवारें लिए सिपाही खड़े कर दिए। वीणावादक ने वीणा बजाई। कोई दस-पंद्रह मिनट तक तो कोई नहीं हिला, मूर्तियों की तरह लोग बैठे रहे। फिर पांच-सात लोग हिलने लगे,फिर दस-पंद्रह लोग हिले, फिर बीस-पच्चीस लोग हिले, फिर कोई सौ लोग...
नवाब तो घबड़ाने लगा। उसने यह नहीं सोचा था कि कटवाना ही पड़ेगा। मगर अब तो मामला ऐसा है कि कटवाना ही पड़ेगा। अब तो अपने वचन दे दिया है। नवाब तो सुन ही न पाए। वह तो बार-बार यही देखता रहे कि और मरे। कितने लोग गए! सिपाही भी डरने लगे, खड़े थे आसपास, कि यह नाहक की हत्या होगी। भले-अच्छे लोग हिल रहे हैं। यह पागलों को हुआ क्या है? लेकिन जैसे-जैसे लोग हिलने लगे,संगीतज्ञ डूबने लगा। फिर तो कोई दोत्तीन सौ लोग डुबकी लगाने लगे, डोलने लगे, जैसे सांप बीन की आवाज सुनकर डोलने लगे।
आधी रात संगीतज्ञ ने वीणा बंद की। सम्राट ने कहा कि पकड़ लिए जाएं वे लोग। कोई तीन-साढ़े तीन सौ लोग पकड़ लिए गए। संगीतज्ञ ने कहा, बाकी को जाने दें, इनको रोक लें। बाकी चले गए। नवाब ने पूछा, इनका क्या करना?इनको कटवा दें? संगीतज्ञ ने कहा, नहीं, यही तो मेरे सुननेवाले हैं। अब इनको असली सुनाऊंगा। नकली गए। वे जो आसन इत्यादि लगाकर बैठे थे उनको संगीत का कुछ पता नहीं। यही...
पर सम्राट ने कहा, इसके पहले कि तुम इन्हें सुनाओ कुछ और, मैं इनसे पूछना चाहता हूं कि पागलो, हिले क्यों? तुम्हें जिंदगी का कोई लगाव नहीं है? तो उन लोगों ने कहा, हम हिले नहीं। हमें तो पता नहीं। जब तक हमें अपना पता था तब तक तो हम बिलकुल संभले बैठे रहे। कौन मरना चाहता है? जब हम लापता हो गए, जब वीणा ही रह गई, जब हम बचे ही नहीं तो फिर कौन रोके कौन संभाले? संभालनेवाला ही विदा हो गया। तो हम यह नहीं कहते हैं कि हम हिले। हम तो नहीं हिले। हम तो जब तक थे तब तक नहीं हिले। हि जब हम रहे ही नहीं तो फिर हिलना हुआ। परमात्मा ने हिलाया। संगीत ने हिलाया। हम नहीं हिले। हमारा कोई कसूर नहीं है। और संगीतज्ञ ने कहा, ये ठीक कहते हैं। इसलिए इनको चुना है। यही मेरे सुननेवाले हैं,यही मेरे समझने वाले हैं।
यही मैं तुमसे कहता हूं। समझना हो तो बुद्धि को एक तरफ रखो और समझ जाओगे। लेकिन अगर बुद्धि को बीच में लिया और समझने की बहुत खींचातानी की तो चूक जाओगे। ये कुछ बातें ऐसी हैं कि हिलोगे तो समझोगे। ये बातें कुछ ऐसी हैं कि डोलोगे तो समझोगे? ये बातें कुछ ऐसी हैं कि नाचोगे तो समझोगे। ये बातें बुद्धि की पकड़ में आनेवाली बातें नहीं हैं। ये पागलों की, दीवानों की बातें हैं। तुम मेरी दीवानगी में अगर मेरे पागलपन में हाथ बटाओ तो तो जरूर समझ में आएगी।
तो इस विरोधाभास को मैं फिर से दोहरा दूं--समझना चाहा, समझ में न आएंगी। हिलने की हिम्मत रखी तो कोई तुम्हें समझने से नहीं रोक सकता। यह समझ में आने ही वाली है। मगर यह समझ हृदय की है, भाव की है, प्राण की है;बुद्धि की नहीं, विचार की नहीं, भक्ति की है। रस निष्पन्न होती है। रस की निष्पत्ति से आती है,तर्क से नहीं। डोलो। इस मन-मयूर को नाचने दो,जरूर समझोगे।
आज इतना ही।
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