एस धम्मो सनंतनो--(प्रवचन--10)
एक युवक भिक्षु नागार्जुन के पास आया और उसने कहा कि मुझे मुक्त होना है। और उसने कहा कि जीवन लगा देने की मेरी तैयारी है। मैं मरने को तैयार हूं, लेकिन मुक्ति मुझे चाहिए। कोई भी कीमत हो, चुकाने को राजी हूं।
अपनी तरफ से तो वह बड़ी समझदारी की बातें कह रहा था।
चिन्मय ने भी यही पूछा है आगे प्रश्न में:
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है
उसने भी यही कहा होगा नागार्जुन को कि मरने की तैयारी है; अब तुम्हारे हाथ में सब बात है। मुझसे न कह सकोगे कि मैंने कुछ कमी की प्रयास में। मैं सब करने को तैयार हूं। अपनी तरफ से वह ईमानदार था। उसकी ईमानदारी पर शक भी क्या करें! मरने को तैयार था--और क्या आदमी से मांग सकते हो? लेकिन ईमानदारी कितनी ही हो, भ्रांत थी।
नागार्जुन ने कहा, ठहर। एक छोटा सा प्रयोग कर। फिर, अभी इतनी जल्दी नहीं है मरने-मारने की। यह भाषा ही नासमझी की है। यहां मरना-मारना कैसा? तू एक तीन दिन छोटा सा प्रयोग कर, फिर देखेंगे। और उससे कहा कि तू चला जा सामने की गुफा में, अंदर बैठ जा,और एक ही बात पर चित्त को एकाग्र कर कि तू एक भैंस हो गया है। भैंस सामने खड़ी थी,इसलिए नागार्जुन को खयाल आ गया कि 'तू एक भैंस हो गया है।' यह सामने भैंस खड़ी है। उस युवक ने कहा जरा चिंतित होकर कि इससे मुक्ति का क्या संबंध? नागार्जुन ने कहा, वह हम तीन दिन बाद सोचेंगे। बस तू तीन दिन बिनाखाए-पीए, बिना सोए, एक ही बात सोचता रह कि तू भैंस हो गया है। तीन दिन बाद मैं हाजिर हो जाऊंगा तेरे पास। अगर तू इसमें सफल हो गया, तो मुक्ति बिलकुल आसान है। फिर मरने की कोई जरूरत नहीं।
उस युवक ने सब दांव पर लगा दिया। वह तीन दिन न भोजन किया, न सोया। तीन दिन अहर्निश उसने एक ही बात सोची कि मैं भैंस हूं। अब तीन दिन अगर कोई सोचता रहे भैंस है--वह भैंस हो गया! हो गया, नहीं कि हो गया; उसे प्रतीत होने लगा कि हो गया। एक प्रतीति पैदा हुई। एक भ्रमजाल खड़ा हुआ।
जब तीसरे दिन सुबह उसने आंख खोलकर देखा तो वह घबड़ाया--वह भैंस हो गया था! और भी घबड़ाया, क्योंकि अब बाहर कैसे निकलेगा! गुफा का द्वार छोटा था। आए तब तो आदमी थे; अब भैंस थे, उसके बड़े सींग थे। उसने कोशिश भी की तो सींग अटक गए। चिल्लाना चाहा तो आवाज तो न निकली, भैंस का स्वर निकला। जब स्वर निकला तो नागार्जुनभागा हुआ पहुंचा। देखा, युवक है। कहीं कोई सींग नहीं हैं। मगर सींग अटक रहे हैं। कहीं कोई सींग नहीं हैं। वह आदमी जैसा आदमी है। जैसा आया था वैसा ही है। लेकिन तीन दिन काआत्मसम्मोहन, तीन दिन का सतत सुझाव! तीन बार भी सुझाव दो तो परिणाम हो जाते हैं, तीन दिन में तो करोड़ों बार उसने सुझाव दिए होंगे। फिर बिना खाए, बिना सोए!
जब तुम तीन दिन तक नहीं सोते तो तुम्हारी सपना देखने की शक्ति इकट्ठी हो जाती है। तीन दिन तक सपना ही नहीं देखा! जैसे भूख इकट्ठी होती है तीन दिन तक खाना न खाने से, ऐसा तीन दिन तक सपना न देखने से सपना देखने की शक्ति इकट्ठी हो जाती है। वह तीन दिन की सपना देखने की शक्ति, तीन दिन की भूख...!
भूख में भी जितना शरीर कमजोर हो जाता है, उतना मन मजबूत हो जाता है। भूख से शरीर तो कमजोर होता है, मन मजबूत होता है। इसलिए तो बहुत से धर्म उपवास करने लगे और बहुत से धर्मों ने रात्रि-जागरण किया। अगररातभर जागते रहो तो परमात्मा जल्दी दिखायीपड़ता है। सपना इकट्ठा हो जाता है।
अभी इस पर तो वैज्ञानिक शोध भी हुई है। और वैज्ञानिक भी इस बात पर राजी हो गए हैं कि अगर तुम बहुत दिन तक सपना न देखोतो हैलूसिनेशन्स पैदा होने लगते हैं। फिर तुम जागते में सपना देखने लगोगे। आंख खुलीरहेगी और सपना देखोगे। सपना एक जरूरत है। सपना तुम्हारे मन का निकास है, रेचन है।
तीन दिन तक जागता रहा। सपने की शक्ति इकट्ठी हो गयी। तीन दिन भूखा रहा, शरीर कमजोर हो गया।
यह तुमने कभी खयाल किया! बुखार में जब शरीर कमजोर हो जाए तो तुम ऐसीकल्पनाएं देखने लगते हो जो तुम स्वस्थ हालत में कभी न देखोगे। खाट उड़ी जा रही है! तुम जानते हो कि कहीं उड़ी नहीं जा रही। अपनी खाट पर लेटे हो, मगर शक होने लगता है। क्या,हो क्या गया है तुम्हें? शरीर कमजोर है।
जब शरीर स्वस्थ होता है तो मन पर नियंत्रण रखता है। जब शरीर कमजोर हो जाता है तो मन बिलकुल मुक्त हो जाता है। और मन तो सपना देखने की शक्ति का ही नाम है। तो बीमारी में लोगों को भूत-प्रेत दिखायी पड़नेलगते हैं। स्त्रियों को ज्यादा दिखायी पड़ते हैं पुरुषों की बजाय। बच्चों को ज्यादा दिखायीपड़ते हैं प्रौढ़ों की बजाय। जहां-जहां मन कोमल है और शरीर से ज्यादा मजबूत है, वहीं-वहीं सपना आसान हो जाता है।
तीन दिन का उपवास, तीन दिन की अनिद्रा, और फिर तीन दिन सतत एक ही मंत्र--यही तो मंत्रयोग है। तुम बैठे अगर राम-राम,राम-राम कहते रहो कई दिनों तक, पागल हो हीजाओगे। एक सीमा है झेलने की। वह तीन दिन तक कहता रहा: मैं भैंस हूं, मैं भैंस हूं, मैं भैंस हूं। हो गया। मंत्रशक्ति काम कर गयी। लोग मुझसे पूछते हैं मंत्रशक्ति? उनको मैं यह कहानी कह देता हूं। यह मंत्रशक्ति है।
नागार्जुन द्वार पर खड़ा हंसने लगा। वह युवक बहुत शघमदा भी हुआ और उसने कहा,लेकिन आप हंसें, यह बात जंचती नहीं। तुम्हारे ही बताए उपाय को मानकर मैं फंस गया हूं। अब मुझे निकालो। सींग बड़े हैं, द्वार से निकलते नहीं बनता। और मैं भूखा भी हूं। नींद भी सतारही है।
नागार्जुन उसके पास गया, उसे जोर सेहिलाया। हिलाया तो थोड़ा वह तंद्रा से जागा। जागा तो उसने देखा, सींग भी नदारद हैं, भैंस भी कहीं नहीं है। वह भी हंसने लगा। नागार्जुनने कहा: बस यही मुक्ति का सूत्र है। संसार तेरा बनाया हुआ है, कल्पित है।
संसार को छोड़ना नहीं है, जागकरदेखना है। इसलिए जिन्होंने तुमसे कहा कि संसार छोड़ो, उन्होंने तुम्हें मोक्ष में उलझा दिया। मैं तुम्हें संसार छोड़ने को इसीलिए नहीं कह रहा हूं। छोड़ने की बात ही भ्रांत है। जो है ही नहीं उसे छोड़ोगे कैसे? छोड़ोगे तो भूल में पड़ोगे। जो नहीं है उसे देख लेना, जान लेना कि वह नहीं है, मुक्त हो जाना है।
इसलिए बुद्ध ने कहा: असत्य को असत्य की तरह देख लेना मोक्ष है। असार को असार की तरह देख लेना मोक्ष है। सारा राज देख लेने में है।
यह तो पूछो ही मत कि खोपड़ी से कैसे मुक्ति हो जाए। यह कौन है जो पूछ रहा है? यहखोपड़ी ही है जो पूछ रही है। अगर इस खोपड़ीकी बात मानकर चले, तो इससे तुम कभी मुक्त न हो पाओगे। जागकर देखो, कौन पूछता है?गौर से सुनो, कौन प्रश्न उठाता है? यह कौन है जो मुक्त होना चाहता है? क्यों मुक्त होना चाहता है? बंधन कहां है?
और जिसने भी जागकर देखा, वह हंसनेलगा; क्योंकि बंधन उसने कभी पाए नहीं।जागने में कोई बंधन नहीं है। इसलिए बुद्ध चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं, प्रमाद में मत जीयो। अप्रमाद! जागो! होश में आ जाओ! और तुम कहीं भी गए नहीं हो। तुम वहीं हो जहां तुम्हें होना चाहिए। भैंस तुम कभी हुए नहीं हो। तुम वही हो जो तुम हो। तुम परमात्मा हो। इससे तुम रत्तीभर यहां-वहां न हो सकते हो, न होने का कोई उपाय है।
हां, तुम भ्रांति में रह सकते हो। तुम अपने को जो चाहे समझ लो। मन शक्तिशाली है। तुम जो चाहोगे वही बन जाओगे। और जिस दिन भी तुम देखना चाहोगे, उस दिन तुम दृष्टि बनजाओगे।
दृष्टि मुक्ति है।
समझे थे तुझसे दूर निकल जाएंगे कहीं
समझे थे तुझसे दूर निकल जाएंगे कहीं
देखा तो हर मुकाम तेरी रहगुजर में है
कहां जाओगे दूर निकलकर परमात्मा से? कहीं भी जाओगे, पाओगे उसके ही रास्ते में तुम्हारा मुकाम है।
समझे थे तुझसे दूर निकल जाएंगे कहीं
देखा तो हर मुकाम तेरी रहगुजर में है
हर मुकाम उसी का है। हर पल उसी का है। अस्तित्व से दूर जाने का उपाय कहां है? कैसेजाओगे दूर? हां, सोच सकते हो, विचार कर सकते हो कि दूर निकल गए। और जब दूर निकलने का खयाल आ जाएगा तो तुमचिल्लाओगे, पूछोगे, पास कैसे आ जाएं? अब जो तुम्हें पास आने का रास्ता बता देगा, वह तुम्हें भटका देगा। क्योंकि दूर अगर निकले होते, तो पास भी आ सकते थे। दूर कभी निकले ही नहीं,इसको ही जानना है।
तो अगर सार मैं तुमसे कहूं: बंधन की तरफ आंख करो। जहां-जहां बंधन दिखता हो,वहीं-वहीं ध्यान को लगाओ। बंधन ध्यान का विषय बन जाए। और तुम पाओगे, तुम्हारे ध्यान की ज्योति जैसे-जैसे सघन होती है, वैसे-वैसे बंधन तरल होकर बिखर जाता है। जिस दिन ध्यान की ज्योति परिपूर्ण सघन हो जाती है,अचानक तुम पाते हो कि बंधन गया। सपना था,टूट गया। नींद का खयाल था, मिट गया।
बिखरा ध्यान हो, तो खोपड़ी है। इकट्ठा ध्यान हो, खोपड़ी गयी। विचार ध्यान के टुकड़े हैं। छितर गया ध्यान, जैसे दर्पण को किसी ने पटक दिया, खंड-खंड हो गया। इकट्ठा जमा लो;बस उतना ही राज है। इसलिए ध्यान को चिंतन,मनन, विमर्श बनाओ। खोपड़ी से मुक्त हो जाने की बात मत पूछो। खोपड़ी में कुछ भी बुरा नहीं है; वहां भी परमात्मा ही विराजमान है। वह भी उसी का मंदिर है। वह भी उसकी ही रहगुजर है। वहां से वही गुजरता है।
अगर तुम गलत न समझो तो मैं तुमसेकहूंगा, विचार भी उसी के हैं, निर्विचार भी उसी का है। तनाव भी उसी का है, और शांति भी उसी की है। संसार भी उसी का है और मोक्ष भी उसी का है।
इसलिए झेन फकीरों ने एक बड़ी अनूठीबात कही है, जिसको सदियों तक लोग सोचते रहे हैं और समझ नहीं पाते हैं। झेन फकीरों ने कहा है: संसार और मोक्ष एक ही चीज के दो नाम हैं। ठीक से न देखा तो संसार, ठीक से देख लिया तो मोक्ष। लेकिन सत्य एक ही है।
गैर-ठीक से देखने का ढंग क्या है? आंख बचा-बचाकर चलते हो। भीतर कामवासना है,तुम उसे देखते नहीं। तुम्हारे न देखने में ही वह बड़ी होती चली जाती है--भैंस के सींग बड़े होते चले जाते हैं। भीतर क्रोध है, तुम उसकी तरफ पीठ कर लेते हो डर के मारे कि कहीं आ ही न जाए, ऊपर न आ जाए, किसी को पता न चल जाए! भीतर-भीतर क्रोध की जड़ें फैलती जाती हैं। तुम्हारा पूरा व्यक्तित्व विषाद, दुख, उदासी,भय और क्रोध के जहर से भर जाता है। और जितना ही यह बढ़ने लगता है, उतने ही तुमडरने लगते हो। जितने तुम डरने लगते हो,उतना ही तुम देखते नहीं; तुम आंख बचाने लगते हो। तुम अपने से आंख बचा-बचाकर कब तक भागोगे, कहां भागकर जाओगे?
तुम अपने से आंख बचा रहे हो, यही उलझन है। बचाओ मत। जो है, जैसा है, उसे देख लो। और मैं तुमसे कहता हूं, उसके देखने में ही मोक्ष है। जिसने देख लिया ठीक से अपने को, उसने सिवाय परमात्मा के और कुछ भी न पाया।
समझे थे तुझसे दूर निकल जाएंगे कहीं
देखा तो हर मुकाम तेरी रहगुजर में है
दूसरा प्रश्न:
कभी-कभी भगवान बुद्ध औरलाओत्से का बोध एक सा लगता है; मगर हैं दोनों एक-दूसरे के उलटे छोर पर। मेरी अपनी समस्या यह है कि मेरा स्वभाव प्रेम से ज्यादा ध्यान पर लगता है, और मैं सबसे ज्यादा लाओत्से से प्रभावित हूं। इसे कैसेसुलझाऊं?
सुलझाना क्या है? अगर सुलझी-सुलझीबात को उलझाना हो, तो बात अलग। इसमें कहां समस्या है?
कभी-कभी मैं हैरान होता हूं कि तुम कितने कुशल हो गए हो समस्या बनाने में! जहां नहीं होती वहां बना लेते हो! अगर ध्यान में मन लगता है तो समस्या क्या है? कौन तुमसे कह रहा है प्रेम में मन लगाओ? ध्यान में मन लग गया है, बस हो गयी बात। जिनका ध्यान में न लगता हो, वे प्रेम में लगाएं।
लेकिन मेरे पास लोग आ जाते हैं, वे कहते हैं: प्रेम में मन लगता है, ध्यान में नहीं लगता। बड़ी समस्या है! क्या करें?
अगर तुमने जिद्द ही बना ली है कि समस्या तुम बनाए ही चले जाओगे, तुम्हारी मौज है।
फिर से इस प्रश्न को गौर से सुनो, यह सभी का प्रश्न है:
'कभी-कभी भगवान बुद्ध और लाओत्सेका बोध एक सा लगता है; मगर हैं दोनों एक-दूसरे के उलटे छोर पर। मेरी अपनी समस्या यह है कि मेरा स्वभाव प्रेम से ज्यादा ध्यान पर लगता है।'
इसमें समस्या कैसी है? यह तो समाधान है। छोड़ो प्रेम की बकवास। तुम्हारे लिए बकवास है, उसकी तुम चिंता में मत पड़ो। हां,अगर समस्या ही बनानी हो, बिना समस्या के रहना ही मुश्किल पड़ता हो, तो बात अलग! फिर तुम्हारी मर्जी!
'और मैं सबसे ज्यादा लाओत्से से प्रभावित हूं।'
इसमें भी क्या बुराई है? यह तो बहुत ही बढ़िया है। बुद्ध को भूल ही जाओ। लेना-देना क्या है? लाओत्से काफी है।
तुम्हारी हालत ऐसी है कि तुम बाएं रास्ते पर चलते हो तो दायां रास्ता समस्या बन जाता है, कि दाएं पर चलते! अगर दाएं पर चलते हो तो बायां समस्या बन जाता है। दोनों रास्तों पर एक साथ चलोगे भी कैसे? तुम अकेले हो, रास्ते बहुत हैं। अनेक रास्ते हैं, अगर सब पर चलना चाहा तो पागल हो जाओगे। इतना तो होश रखोकि जो जम जाए, उस पर चल जाना है।
मैं तुमसे बुद्ध, लाओत्से, महावीर, कृष्ण,क्राइस्ट की बात कर रहा हूं, ताकि कोई तुम्हें जम जाए। मगर मैं जानता हूं, तुम खतरनाक हो। तुम बजाय किसी को जमाने के, अगर तुम कहीं थोड़े-बहुत जमे भी होओगे, तो उसको भीउखाड़ डालोगे।
मैं तुम्हें सब रास्ते खोले दे रहा हूं, ताकि जिससे तुम्हारा तालमेल बैठ जाए, वहीं से तुम्हारी मंजिल आ जाए। कोई बुद्ध ने ठेका नहीं लिया है कि बुद्ध के साथ ही जाओगे तो हीपहुंचोगे। लाओत्से एकदम बढ़िया है। रास्ता ठीक है। तुम चल पड़ो। डगमगाते क्यों हो?जहां समस्या नहीं है वहां तुम समस्या कैसे देख लेते हो? ऐसा लगता है कि बिना समस्या देखे तुम जी नहीं सकते, क्योंकि फिर तुम करोगेक्या?
एक मेरे पुराने मित्र हैं। मेरे साथ पढ़े भी। फिर मेरे साथ विश्वविद्यालय में शिक्षक भी थे। कोई पंद्रह साल बाद मुझे मिलने आए। कहने लगे, आपकी सब समस्याएं मिट गयीं? कोई प्रश्न न रहा? तो फिर आप करते क्या होओगे? खाली आदमी जीएगा कैसे? कुछ तो करने को चाहिए!
उनकी तकलीफ मैं समझता हूं। वे सोच भी नहीं सकते कि खाली होने में भी कोई रस हो सकता है। खाली होना उन्हें घबड़ाहट देगा। कुछ भी करने को नहीं है। कोई समस्या नहीं है, कोई प्रश्न नहीं है। न हो, तो आदमी बना लेता है।
मैं तुमसे कहता हूं, समस्याएं हैं नहीं,तुमने बनायी हैं। इस प्रश्न की ही बात नहीं कर रहा हूं; तुम्हारे सब प्रश्नों की बात कर रहा हूं। यह प्रश्न तो बहुत सीधा-साफ है, इसलिए तुम पकड़ में आ गए। तुम बहुत चालबाजी भी करते हो। तुम ऐसे भी प्रश्न बनाते हो कि कोई पकड़ नहीं सकता।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, सब प्रश्न तुम्हारे बनाए हुए हैं। तुम चूंकि खाली होने से डरते हो, इसलिए कोई न कोई समस्या बनाए चले जाते हो। समस्या है, तो हल करने की सुविधा है। हल होगा तब होगा! विधि खोजेंगे,विधान खोजेंगे, शास्त्र खोजेंगे--कुछ व्यस्ततारहेगी!
इस संसार में बड़ी अजीब अवस्था है! आदमी दुख को भी इसीलिए नहीं छोड़ता कि दुख में उलझा तो रहता है, लगा तो रहता है,कुछ काम तो करता रहता है। तुम कहते जरूर हो कि दुख मिट जाए; लेकिन तुमने सच में कभी चाहा नहीं कि दुख मिट जाए, क्योंकि फिर तुम करोगे क्या! तुम कहते हो अशांति मिट जाए, लेकिन तुमने कभी पूछा कि अशांति मिट जाएगी तो तुम करोगे क्या! नहीं, भीतर एक भरोसा है कि मिटने वाली नहीं है, इसलिए पूछतेरहो, कोई हर्जा नहीं है। मिटेगी थोड़े ही!
तुम्हारे सामने अगर एकदम से शून्य का द्वार खुल जाए, तुम भाग खड़े होओगे। तुम फिरलौटकर न देखोगे।
रवींद्रनाथ का गीत है कि जन्मों-जन्मों तक खोजा परमात्मा को। जब तक न मिला,तब तक बड़ी बेचैनी थी, और दौड़ थी, औरतड़फ थी। लोग तड़फ का भी बड़ा मजा लेते हैं,बड़ा प्रदर्शन करते हैं। परमात्मा को खोजने जा रहे हैं! अहंकार की बड़ी तृप्ति होती है! कहीं दूर उसकी झलक मिलती है तो जन्मों-जन्मों तक यात्रा करके वहां पहुंचते हैं, लेकिन तब तक वह कहीं और जा चुका होता है।
पर एक दिन मुश्किल हो गयी, उसके द्वार पर ही पहुंच गए! तख्ती लगी थी। पुराना जोश जन्मों-जन्मों का पाने का--एकदम चढ़ गएसीढ़ी। सांकल हाथ में ले ली। तभी समझआयी, कि अगर वह मिल ही गया तो फिर क्या करेंगे! कहीं यह घर सच में ही उसका हुआ! धोखा हुआ, तब तो कोई अड़चन नहीं है, फिर खोज पर निकल जाएंगे। खोज भरे रखती है। अगर सच में ही यह घर उसका हुआ--फिर?
रवींद्रनाथ की कविता बड़ी महत्वपूर्ण है। लिखा है कि आहिस्ता से सांकल छोड़ दी कि कहीं बज न जाए--भूल-चूक--कहीं वह द्वार खोल ही न दे! जूते उतारकर हाथ में ले लिए कि कहीं सीढ़ियों से उतरते वक्त आवाज न हो जाए! और फिर जो भागा हूं तो पीछे लौटकर नहीं देखा। अब फिर खोजता हूं, हालांकि मुझे उसका घर पता है। उस जगह को छोड़कर सब जगह खोजता हूं। वहां भर नहीं जाता, क्योंकि मुझे मालूम है।
यह कहीं हालत तुम्हारी भी तो नहीं है?जब मैं गौर से तुम्हारे भीतर देखता हूं तो पाता हूं, यही हालत तुम्हारी है। तुम्हें भी उसका घर पता है। तुम भाग खड़े हुए हो। वह घर तुम्हारे भीतर है। वहां तुम जाते ही नहीं, सब जगह तुम खोजते हो। वहां भर जाकर तुम ठिठकते हो,डरते हो।
नहीं, कोई समस्या मत बनाओ। अगर ध्यान में रस आ गया, तो प्रेम अपने आप आ जाएगा। यही तो मैं तुमसे कह रहा हूं कि दो ढंग हैं। उनको दो ढंग भी कहना ठीक नहीं; वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ध्यान से चलो, तो प्रेम अपने आप आ जाता है। प्रेम से चलो, तो ध्यान अपने आप आ जाता है। और हर आदमी अलग-अलग ढंग से बना है।
मुहब्बत के लिए कुछ खास दिल मखसूसहोते हैं
ये वो नग्मा है जो हर साज पर गाया नहीं जाता
यह गीत है मुहब्बत का, जो किन्हीं साजोंपर गाया जाता है। सभी साजों पर नहीं गाया जाता। लेकिन यही बात ध्यान के लिए भी सच है। उसके लिए भी कुछ खास दिल मखसूस होते हैं। वह भी:
ये वो नग्मा है जो हर साज पर गाया नहीं जाता
मीरा के साज पर प्रेम का गीत जमा। बुद्ध के साज पर ध्यान का गीत जमा। गाया--यह असली बात है। भरपूर गाया। समग्रता से गाया। ध्यान को गाया या प्रेम को गाया--ये पंडित सोचते रहें। गा लिया! गीत अनगाया न रहा! जो छिपा था वह प्रगट हो गया! जो बंद था कली में वह फूल बना! वह जो बीज में दबा था,चांदत्तारों से उसने बात की! खुले आकाश में गंध फेंकी! दूर-दूर तक संदेश दिए! लुट गया! परिपूर्ण हुआ!
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