उम्र के प्रत्येक सात वर्ष के बाद खुलता है अमृत का द्वार - ओशो
मनुष्य के जीवन में प्रत्येक सात वर्ष के बाद क्रांति का क्षण होता है। जैसे चौबीस घंटे में दिन का एक वर्तुल पूरा होता है, ऐसे सात वर्ष में चित्त की सारी वृत्तियों का वर्तुल पूरा होता है। हर सात वर्ष में वह घड़ी होती है कि अगर चाहो तो निकल भागो। हर सात वर्ष में एक बार द्वार खुलता है। सात साल का जब बच्चा होता है तब द्वार खुलता है। और अगर चूक गये तो फिर सात साल के लिए गहरी नींद हो जाती है। हर सात साल में तुम परमात्मा के बहुत करीब होते हो। जरा-सा हाथ बढ़ाओ कि पा लो। इसी सात साल को हिसाब में रखकर हिंदुओं ने तय किया था कि पचास साल की उम्र में व्यक्ति को वानप्रस्थ हो जाना चाहिए। उनचास साल में सातवां चक्र पूरा होता है। तो पचासवें साल का मतलब है, उनचास साल के बाद, जल्दी कर लेनी चाहिए। आदमी अब सत्तर साल जीता है। वह सौ साल के हिसाब से बांटा गया था। अब आदमी सत्तर साल जीता है।
तो तुम्हारे जीवन में थोड़े मौके नहीं आते, बहुत मौके आते हैं, लेकिन हर मौका अपने साथ बड़े आकर्षण भी लेकर आता है; दरवाजा भी खुलता है और संसार भी अपनी पूरी मनमोहकता में प्रगट होता है। सात साल का बच्चा अगर जरा जाग जाये, या सदगुरु का साथ मिल जाये, तो क्रांति घट सकती है, क्योंकि यह घड़ी है जब अहंकार पैदा होता है। और यही घड़ी है कि अगर इसी घड़ी में कोई अपने को सम्हाल ले तो सदा के लिए निरहंकारी हो जाता है। अहंकार के पैदा होने का मौका ही नहीं आता।
तुमने देखा, सात साल के बाद बच्चे हर बात में नहीं कहने लगते हैं। तुम कहो, ऐसा नहीं करो;वे कहेंगे, करेंगे! कहें न, तो भी करके दिखायेंगे,करेंगे। तुम कहो सिगरेट मत पीना, वे पीयेंगे। तुम कहो सिनेमा मत जाना; वे जायेंगे। तुम कहो ऐसा नहीं, वे वैसा ही करेंगे।
सात साल के बाद बच्चे के भीतर अहंकार पैदा होता है कि मैं कुछ हूं, मुझे अपनी घोषणा करनी है जगत के सामने। बच्चा आक्रमक होने लगता है। यही घड़ी है जब अहंकार जन्म लेता है। और जब अहंकार जन्म लेता है ,उसी का दूसरा पहलू है: अगर संयोग मिल जाये, सौभाग्य हो, प्रतिभा हो, तो आदमी निरअहंकार में सरक जा सकता है।
यह ख्याल रखना। दोनों चीजें एक साथ होती हैं--यो तो अहंकार में सरकना होगा और या निर-अहंकार में। या तो दरवाजे से बाहर निकल जाओ या दरवाजा बंद कर दो, दरवाजे के विपरीत चल पड़ो। ऐसा ही फिर चौदह साल में होता है कामवासना का जन्म होता है। या तो कामवासना में उतर जाओ और या ब्रह्मचर्य में। वह संभावना भी करीब है, उतने ही करीब है।
ऐसा ही फिर इक्कीस साल में होता है। या तो प्रतिस्पर्धा में उतर जाओ जगत की-र्-ईष्या संघर्ष, प्रतियोगिता, द्वेष--और या अप्रतियोगी हो जाओ।
ऐसा ही फिर अट्ठाइस साल कि उम्र में होता है। तो संग्रह में पड़ जाओ, परिग्रह पड़ जाओ--इकट्ठा कर लूं, इकट्ठा कर लूं, इकट्ठा कर लूं--या अपरिग्रही हो जाओ, देख लो कि इकट्ठा करने से क्या इकट्ठा होगा? मैं भीतर तो दरिद्र हूं और दरिद्र रहूंगा। ऐसा ही फिर पैंतीस साल की उम्र में होता है। पैंतीस साल की उम्र में तुम अपनी मध्यावस्था में आ जाते हो। दुपहरी आती है जीवन की। या तो तुम समझो कि अब ढलान के दिन आ गये, अब रूपांतरण करूं। अब वक्त आ गया, उतार की घड़ी आ गयी, अब जिंदगी रोज-रोज उतरेगी, अब सूरज ढलेगा और सांझ करीब आने लगी।
पैंतीस साल की उम्र में सुबह भी उतनी दूर है,सांझ भी उतनी दूर है। तुम ठीक मध्य में खड़े हो। लेकिन अधिक लोग बजाय समझने के कि मौत करीब आ रही है, अब हम मौत की तैयारी करें; मौत करीब आ रही है, यह सोच कर हम कैसे मौत से बचें, इसी चेष्टा में लग जाते हैं। इसलिए दुनिया की सर्वाधिक बीमारियां पैंतीस साल और बयालीस साल के बीच में पैदा होती हैं। तुम लड़ने लगते हो मौत से। मौत से लड़ोगे,जीतोगे कहां? जितने हार्ट-अटैक होते हैं, जितने मानसिक तनाव होते हैं, वे पैंतीस और बयालीस के बीच में होते हैं। यह बड़े संघर्ष का समय है।
अगर पैंतीस साल की उम्र में एक व्यक्ति समझ ले कि मौत तो आनी ही है; लड़ना कहां है,स्वीकार कर ले; न केवल स्वीकार कर ले बल्कि मौत की तैयारी करने लगे, मौत का आयोजन करने लगे...। और ध्यान रखना, जैसे जीवन का शिक्षण है, ऐसे ही मौत का भी शिक्षण है। अच्छी दुनिया होगी कभी--और कभी वैसी दुनिया थी भी--तो जैसे जीवन को सिखानेवाले विद्यापीठ हैं, वैसे ही मृत्यु के सिखाने वाले विद्यापीठ भी थे। अभी दुनिया की शिक्षा अधूरी है। यह तुम्हें, जीना कैसे, यह तो सिखा देती है;लेकिन यह नहीं सिखाती कि मरना कैसे।
और मरना है अंत में।
तो तुम्हारा ज्ञान अधूरा है। तुम्हारी नाव ऐसी है कि तुम्हारे हाथ में एक पतवार दे दी है और दूसरी पतवार नहीं है। तुमने कभी देखा, एक पतवार से नाव चलाकर देखी? अगर तुम एक पतवार से नाव चलाओग तो नाव गोल-गोल घूमेगी, कहीं जायेगी नहीं। उस पार तो जा ही नहीं सकती, बस गोल-गोल चक्कर मारेगी। दो पतवार चाहिये। दोनों के सहारे उस पार जाया जा सकता है। लोगों को जीवन की शिक्षा तुम दे देते हो। बस नाव उनकी गोल-गोल घूमने लगती है। वह जीवन के चक्कर में पड़ जाते हैं।
संसार का अर्थ होता है: चक्कर में पड़ जाना।
पैंतीस साल की उम्र में मौका है; फिर द्वार खुलता है एक घड़ी को। मौत की झलकें आनी शुरू हो जाती हैं। जिंदगी पर हाथ खिसकने शुरू हो जाते हैं। भय के कारण लोग जोर से पकड़ने लगते हैं जिंदगी को। और जोर से पकड़ोगे तो बुरी तरह हारोगे, टूटोगे। अपनी मौज से छोड़ तो कोई तुम्हें तोड़नेवाला नहीं है। समझकर छोड़ दो।
और बयालीस साल की उम्र में कामवासना क्षीण होने लगती है। जैसे चौदह साल की उम्र में कामवासना पैदा होती है वैसे बयालीस साल की उम्र में कामवासना क्षीण होती है। यह प्राकृतिक क्रम है। लेकिन आदमी परेशान हो जाता है,बयालीस साल में जब वह पाता है कामवासना क्षीण होने लगी--और वही तो उसकी जिंदगी रही अब तक--तो चला चिकित्सकों के पास। चला डाक्टरों के पास, हकीमों के पास।
तुमने दीवालों पर जो पोस्टर लगे देखे हैं--"शक्ति बढ़ाने के उपाय'; "गुप्त रोगों को दूर करने के उपाय'--अगर तुम उन डाक्टरों के पास जाकर देखो तो तुम हैरान होओगे। उनके पास बैठकखाने में जो तुम्हें बैठे मिलेंगे। क्योंकि कामवासना क्षीण हो रही है, शरीर से ऊर्जा जा रही है, अब वे चाहते हैं कि कोई चमत्कार हो जाये, कोई जड़ी-बूटी मिल जाये, कोई औषधि मिल जाये। नहीं कोई औषधि है कहीं, लेकिन इनका शोषण करने के लिए लोग बैठे हुए हैं--वैद्य, चिकित्सक, हकीम...हकीम वीरूमल! इस तरह के लोग बैठे हुए हैं। और यह धंधा ऐसा है कि इसमें पकड़ाया नहीं जा सकता, क्योंकि जो आदमी आता है वह पहले तो छिपे-छिपे आता है। वह किसी के बताना भी नहीं चाहता कि मैं जा किसलिए रहा हूं। वह जब उसको कोई सफलता नहीं मिलती, तो दूसरे वीरूमल का द्वार खटखटायेगा। मगर की भी नहीं सकता किसी के कि यह दवा काम नहीं आयी। दवायें कभी काम आयी हैं? पागलपन है।
और किसी भी तरह की मूढ़ता की बातें चलती हैं--मंत्र चलते, तंत्र चलते, ताबीज चलते,तांत्रिकों की सेवा चलती कि शायद कोई चमत्कार कर देगा।
और जो जीवन-ऊर्जा जा रही है मेरे हाथ से, वह मैं वापिस पा लूंगा, फिर मैं जवान हो जाऊंगा।
बयालीस साल की उम्र घड़ी है कि आ गया क्षण, जब तुम कामवासना को जाने दो। अब राम की वासना के जगने का क्षण आ गया। काम जाये तो राम का आगमन हो। फिर द्वार खुलता है, मगर तुम चूक जाते हो।
ऐसे ही हर सात वर्ष पर द्वार खुलता चला जाता है। जो पहले ही सात वर्ष पर जाग गया है वह अपूर्व प्रतिभा का धनी रहा होगा। हो सकता है,दादू इस छोटे से बच्चे की तलाश में ही धौसा आये हों। क्योंकि सदगुरु ऐसे ही नहीं आते।
कहानी है बुद्ध के जीवन में कि वे एक गांव गये। उनके शिष्यों ने कहा भी कि उस गांव में कोई अर्थ नहीं है जाने से। छोटे-मोटे लोग हैं, किसान हैं। कोई समझेगा भी नहीं आपकी बात। वैशाली करीब है, आप राजधानी चाहिये। इस छोटे गांव में ठहरने की जगह भी नहीं है। मगर बुद्ध ने तो जिद्द ही बांध रखी है कि उसी गांव जाना है। उस गांव के बिना जाये वैशाली नहीं जायेंगे। नाहक का चक्कर है। उस गांव में जाने का मतलब दस-बीस मील और पैदल चलना पड़ेगा। नहीं माने, तो गये। जब गांव के करीब पहुंच रहे थे तब एक छोटी-सी लड़की ने, उसकी उम्र कोई पंद्रह साल से ज्यादा नहीं रही होगी, वह खेत की तरफ जा रही थी अपने पिता के लिए भोजन लेकर, वह रास्ते में मिली, उसने बुद्ध के चरणों में सिर झुकाया और कहा कि प्रवचन शुरू मत कर देना जब तक मैं न आ जाऊं। और किसी ने तो ध्यान ही नहीं दिया इस बात पर। गांव में पहुंच गये लोग इकट्ठे हो गये। छोटा गांव है, लेकिन बुद्ध आये, यह सौभाग्य है। सोचा भी नहीं था कि इस गांव में बुद्ध का आगमन होगा। सारा गांव इकट्ठा हो गया। सब बैठे हैं कि अब बुद्ध कुछ बोलें। और बुद्ध बैठे हैं कि वे देख रहे हैं।
आखिर किसी ने खड़े होकर कहा कि महाराज,आप कुछ बोलें। उन्होंने कहा कि मैं किसी की प्रतीक्षा कर रहा हूं। उस आदमी ने चारों तरफ देखा; उसने कहा, गांव के हर आदमी को मैं पहचानता हूं। थोड़े ही आदमी हैं, सौ-पचास। सब यहां मौजूद हैं, आप किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं?
बुद्ध ने कहा, तुम ठहरो। वह लड़की भागी हुई आयी। और जैसे ही वह लड़की आकर बैठी,बुद्ध बोले। बुद्ध ने कहा, मैं इस लड़की की प्रतीक्षा करता था। सच तो यह है, मैं इसी के लिए आया हूं।
दादू धौसा गये, बहुत संभावना यही है कि सुंदरदास के लिए गये। यही एक हीरा था वहां,जिसकी चमक दादू तक पहुंच रही होगी; जो पत्थर के बीच रोशन दीये की तरह मालूम पड़ रहा होगा। उसकी तलाश में गये थे।
हरि बोलौ हरि बोल (संत सुुंदर दास)--प्रवचन-01
नीर बिनु मीन दुखी-प्रहला प्रवचन
दिनांक १ जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम,पूना
https://youtu.be/kfB7mCG1VI8
ReplyDeleteउसमें बहुत तप करना पड़ेगा,,
सब कुछ बनाने के बाद भी,,
कुछ भी अपना नहीं रहेगा,,,
माया,मोह में घिरा मानव ,,,
केवल मेरी ही बात नहीं, ऊपर जायें ↑ समस्त देहधारियों के अन्तःकरण में अन्तर्यामी रूप से स्थित भगवान उनके जीवन के कारण हैं तथा बाहर काल रूप से स्थिर हुए वे ही उनका नाश करते हैं। *अतः जो आत्म ज्ञानीजन अन्तर्दृष्टि द्वारा उन अन्तर्यामी की उपासना करते हैं, वे मोक्ष रूप अमर पद पाते हैं और जो विषयपरायण अज्ञानी पुरुष बाह्य दृष्टि से विषय चिन्तन में ही लगे रहते हैं, वे जन्म-मरण रूप मृत्यु के भागी होते हैं।*
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साभार hi.krishnakosh.org - मुखपृष्ठ
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