जो बोले सो हरि कथा-(प्रश्नोत्तर)-प्रवचन-02
जो बोले सो हरि कथा-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
प्रवचन-दूसरा-(जीवंत धर्म)
श्री रजनीश आश्रम, पूरा, प्रातः, दिनांक २२ जुलाई, १९८०
दूसरा प्रश्न: भगवान, थों तो म्हारा सगला मारवाड़ी समाज री नाक काट कर धर दी! कोई अच्छो भी करो; म्हारी लाज रखो!
चंपालाल समाज सेवक!
बात तो तूने भी बड़ी गजब की कही! मारवाड़ी समाज की कोई नाक है? जिसको मैं काट कर रख दूं। अरे, वह तो कब की कट गई भैया! किस नाक की बात कर रहे हो?
यही तो खूबी है मारवाड़ी समाज की: कोई लाख नाक काटे, नहीं काट सकता। नाक हो तो काटे!
मारवाड़ी की नाक तुम काट ही नहीं सकते। किसी और की काट सकते हो, काट लेना। मारवाड़ी की नाक कोई नहीं काट सकता। यह तो तुम बिलकुल गलत बात कह रहे हो। तुम कह रहे हो: थों तो म्हारा सगला मारवाड़ी समाज री नाक काट कर धर दी! कोई अच्छो भी करो। म्हारी लाज रखो!
लाज--और मारवाड़ी की? बड़ा कठिन काम दे रहे हो। चंपालाल समाज सेवक! सवाल तो बड़े कठिन-कठिन लोग पूछते हैं, मगर तुमने सबसे कठिन सवाल पूछा! चलो, कुछ कोशिश करें!
एक बार एक अमरीकी, एक रूसी एवं एक मारवाड़ी एक सज्जन के यहां चाय पर आमंत्रित थे। मारवाड़ी कोई और नहीं, पुराने परिचित तुम्हारे सेठ चंदूलाल ही थे। अमरीकी ने चाय पीकर अपना कप प्लेट में उलटा करके रख दिया। रूसी ने चाय पी कर अपना कप वैसा ही प्लेट में सीधा रखा। सेठ चंदूलाल जो अब तक उनके टेबल मैनर्स की नकल कर रहा था, उसने कुछ सोच कर अपना कप प्लेट में आड़ा लिटा कर रख दिया। उसकी इस क्रिया को देखकर अमरीकी ने चंदूलाल से प्रश्न किया, भाई, आपने अपना कप प्लेट में आड़ा क्यों लिटा दिया?
चंदूलाल बोले, पहले आप बताइए कि आपने अपना कप उलटा क्यों रख दिया?
अमरीकी ने कहा, क्योंकि मुझे चाय और नहीं चाहिए थी।
अब चंदूलाल ने रूसी से पूछा, आपने अपना कप सीधा क्यों रखा?
रूसी बोला, क्योंकि मुझे और चाय चाहिए।
रूसी और अमरीकी ने पूछा, लेकिन आपने अपना कप आड़ा क्यों लिटा रखा है? अब आप जवाब दें!
चंदूलाल ने कहा, यदि चाय और होगी तो मिल जाएगी, वरना कोई बात नहीं!
मारवाड़ी ऐसे सोच-विचार के लोग होते हैं! उन्हें तुम साधारण मत समझना। बड़े अपरिग्रही होते हैं।
चंदूलाल का नौकर घबड़ाया हुआ अंदर आया और बोला, मालकिन, मालकिन! बाहर सेठ साहब बेहोश पड़े हैं। उनके एक हाथ में कुछ कागज हैं और दूसरे हाथ में एक बड़ा-सा पैकेट है।
चंदूलाल की पत्नी चहक कर बोली, अरे, तो मेरी नई साड़ियां आ गईं!
चंदूलाल की उसी में जान गई! इतनी साड़ियां खरीद कर लाते-लाते हार्ट-अटैक न हो जाए, तो क्या हो! मगर मालकिन को देखा! क्या लाज बचाई मारवाड़ियों की! अरे, जीवन का क्या है! आना-जाना लगा रहता है। यह जिंदगी तो खेल है, इसमें कोई चिंता की बात नहीं। जनम-मरण,आवागमन होता ही रहता है। मगर साड़ियां आ गईं--यह बात पते की है।
एक जेबकतरा सेठ चंदूलाल से कह रहा था,यार आज एक पैसा भी नहीं मिला, उलटे एक जगह बहुत बेइज्जती हुई मेरी।
चंदूलाल बोले, बेइज्जती! क्या बात कर रहा है भाई! इसी काम को मैं बीस वर्ष से कर रहा हूं। कई बार मेरी पिटाई हुई है, दुत्कार मिला,गालियां भी मिलीं, मगर आज तक मेरी बेइज्जती--कभी नहीं! मेरी बेइज्जती आज तक नहीं हुई।
बेइज्जती, मानो तो बेइज्जत है। अरे ज्ञानियों की कहीं कोई बेइज्जती कर सकता है!
एक निहायत मोटी, भद्दी और बदसूरत महिला ने पुलिस के सिपाही से शिकायत की कि वह मूर्ख और पागल आदमी कई घंटे से मेरा पीछा कर रहा है।
पुलिस वाले ने महिला को कनखियों से देख कर कहा? जी नहीं, आप गलत फरमा रही हैं। वह आदमी न तो मूर्ख है और न पागल है। यह सेठ चंदूलाल है। उसका दिमाग खराब नहीं है। और न ही वह मूर्ख है। वह परमहंस है। भेद-भाव ही नहीं करता! क्या सुंदर, क्या असुंदर! इसलिए आपका पीछा कर रहा है। नहीं तो आप का पीछा कौन करे!
महिला ऐसी भद्दी, मोटी और बदसूरत थी, कि पीछा ही करे, तो वह करे किसी का! मगर परमहंस चंदूलाल उसका पीछा कर रहे हैं। परमहंस वृत्ति का तो लाभ देना ही पड़ेगा उनको। भाव नहीं, भेद नहीं; सब सम-भाव रखते हैं।
तुम कह रहे हो, किसी तरह लाज बचाने की कोशिश करो, तो मैंने कहा, चलो, किसी तरह लाज बचानी चाहिए!
चंदूलाल ने अपनी नवविवाहित पत्नी को समझाते हुए कहा:
और यह है मेरी धाय मां का चित्र!
बचपन में इन्हीं ने मुझे दूध पिलाया था।
मर ही गया होता
इन्होंने मुझे जिलाया था।
आह, इनका हृदय बाहर भीतर से
कितना साफ, स्वच्छ, पारदर्शक और पवित्र था।
वधू ने दोनों हाथ जोड़ दिए,
सामने निपल लगी दूध की बोतल का चित्र था!
इसको कहते हैं भक्ति-भाव! अरे जिसने जीवन बचाया, वही मां है। और फिर स्वच्छ बोतल,पवित्र, पारदर्शक! और जिसने जीवन बचाया,आज तक उसकी याद कर रहे हैं; उसकी तस्वीर लगाए हुए हैं। यूं भूलते नहीं किसी के उपकार को।
सेठ चंदूलाल संतोषीमैया के दर्शन को रोज जाते थे। माताराम के दर्शन का बे बड़ा लाभ लेते थे। गदगद होते थे। एकदम उनकी गोदी में सिर रख कर उलटने-पलटने लगते थे। जो-जोर से जै सीतामैया की, जै सीतामैया की--उदघोष करते। उनके भक्ति-भाव से माताराम भी अति प्रसन्न थीं। और उनकी कुंडलिनी जगाने का अतिरिक्त उपाय भी करती थीं। मगर चंदूलाल ठहरे मारवाड़ी, कुंडलिनी बस खुस-पुस होकर रह जाती थी! जगाए-जगाए न जगे! अब मारवाड़ी-कुंडलिनी कभी सुना कि जगी है! ऐसी सरसराहट हो और बस खतम--खेल खतम! पैसा हजम!
एक दिन संतोषीमैया ने कहा चंदूलाल से कि रातभर तुम्हारे लिए दुआएं करती रही। चंदूलाल बोले, आपने बेकार इतना कष्ट किया। अरे, मुझे फोन कर देतीं, मैं तुरंत आपके पास पहुंच जाता। बड़े शर्माते हुए उन्होंने कहा कि मैं तो रात-रात बैठा ही रहता हूं कि मैया कब बुलाएं! और मैं हाजिर हो जाऊं! आपको मेरे लिए दुआ करने की जरूरत क्या है! बस फोन करने की जरूरत थी!
मारवाड़ी के लक्ष्य बड़े परोक्ष होते हैं--प्रत्यक्ष नहीं। सीधा-साधा वह कोई काम नहीं करता। तीर भी चलाता है, तो तिरछे-तिरछे चलाता है। मगर निशाने पर बैठा देता है।
मारवाड़ी से कई बातें सीखने जैसी हैं।
चंपालाल समाज सेवक! जैसे मारवाड़ी बदलता नहीं--सारा जगत बदलता है, मगर मारवाड़ी नहीं बदलता।
बूढ़े हो गए थे चंदूलाल। अस्सी साल की उमर। एक दिन पत्नी ने कहा कि अब तुम मुझे पहले जैसा प्रेम नहीं करते। तुम्हारा हृदय बदल गया! पहले तो तुम मुझे चूमते थे, तो काट भी लेते थे।
चंदूलाल ने कहा, कभी नहीं, मेरा हृदय कभी नहीं बदलेगा। अरे मारवाड़ी कभी बदलता ही नहीं। अभी भी काट सकता हूं। जरा जा तू बाथरूम में से मेरे दांत उठा ला!
चंदूलाल--आखिरी कहानी उनके बाबत। इससे अगर लाज बच जाए, तो बच जाए। और न बचे,तो भाई, फिर मैं भी नहीं बचा सकता! फिर मैं भी क्या कर सकता हूं! जहां तक मेरा बस है,वहां तक खींचता हूं।
चंदूलाल एक दिन शराबघर में पहुंचे। दुकान के मालिक से कहा कि अगर मैं अपने बाएं आंख को दांत से काट कर बता दूं, तो शराब मुफ्त पीऊंगा!
दुकानदार ने भी सोचा कि कैसे काटेगा दांत से आंख को! उसने कहा, अच्छा। यह रही शराब। उसने बोतल भर कर रख दी।
चंदूलाल ने अपनी आंख निकाली। एक आंख तो उनकी नकली है ही। और दांत से काट कर बता दिया। सिर पीट लिया दुकानदार ने। पूरी बोतल पा गए। बोले कि अगर एक बोतल और पिलाओ, तो दूसरी आंख भी दांत से काट कर बात दूं!
दुकानदार ने सोचा कि दोनों आंखें तो अंधी हो नहीं सकतीं। यह चलता-फिरता है; कभी कुर्सी से नहीं टकराया। अरे शराब भी पी ले, तब नहीं टकराता। मारवाड़ी बेहोश होता ही नहीं। कितनी ही शराब पी ले, अपनी जेब पकड़े रहता है! एक पैसा कभी ज्यादा नहीं देता। यह दूसरी आंख कैसे काटेगा!
उसने कहा, अच्छा ठीक। एक बोतल नहीं, दो बोतल पिलाऊंगा। ये दो बोतल रहीं।
चंदूलाल के दांत नकली। उन्होंने दांत निकाल कर आंख काट कर बात दी!
उस दुकानदार ने सिर पीट लिया। उसने कहा,हद्द हो गई! मारवाड़ी से कौन जीते!
चंदूलाल ने कहा, और है हिम्मत!
उसने कहा, भैया, अब तू और क्या करेगा!
चंदूलाल ने कहा, वह देखते हो, उस कोने में कम से कम तीस फीट दूर टेबल पर जो गिलास रखा है खाली?
कहा, हां, देखता हूं।
यहीं से पेशाब करके उसको भर सकता हूं!
अब तो, दुकानदार ने कहा कि यह बेटा, नहीं कर पाओगे। हजार रुपए का दांव लगाता हूं।
कहा, लगा ले। निकाल हजार, यहां रख। ये मेरे हजार रखे हैं।
दुकानदार ने सोचा: अब सब वसूल कर लेना ठीक है, क्योंकि...। यह क्या, इसके बाप-दादे भी इकट्ठे हो जाएं सब, तो तीस फीट दूर गिलास को भर दे जीवन-जल से--बहुत मुश्किल है।
और चंदूलाल ने पेशाब करनी शुरू की। तीस फीट दूर जाना क्या--तीन फीट मुश्किल से गई! इधर टेबल पर गिरी, इधर नीचे फर्श पर गिरी। वह दुकानदार बेचारा उठा और जल्दी से गमछा ले कर पोंछने लगा, सफाई करने लगा। और हंसने भी लगा।
चंदूलाल ने कहा, अरे, हंस मत रे! मारवाड़ी से कोई कभी जीता!
कहा, अब क्या! भद्द हो गई तेरी। तीन फीट तो जाती नहीं, तीस फीट पहुंचा रहा था!
अरे, उसने कहा, तू बाहर देखता है, वह आदमी खड़ा है। उससे मैंने शर्त लगाई है कि पांच हजार रुपए लूंगा: अगर पेशाब करूं और न यह गमछा उठा कर पोंछे; न केवल पोंछे, बल्कि हंसे भी। देख ले। वह आदमी रो रहा है खड़ा। तू हजार की बातों में पड़ा है, पांच हजार की शर्त है!
मारवाड़ी बच्चा से कोई कभी जीता नहीं। चंपालाल, तुम फिक्र न करो। कोई नाक है ही नहीं; कट सकती नहीं! नाक वगैरह तो बेच चुके पहले ही। झंझट ही खतम कर ली है।
और तुम चिंता न करो। लाज मारवाड़ी की क्या बचानी! अरे वह खुद अपनी लाज बचाने में समर्थ है। उस जैसी होशियारी, उस जैसी कला,उस जैसा कौशल किसका!
योरोप में कहावत है कि अंग्रेज की जेब फ्रेंच काट मार ले जाता है। फ्रेंच की जेब इटैलियन झटक लेता है। इटैलियन की जेब जर्मन झटक लेता है। जर्मन की जेब यूनानी नहीं छोड़ता। और यूनानी की जेब सिर्फ शैतान काट सकता है। उनको मारवाड़ियों का पता नहीं। मारवाड़ी शैतान की जेब काट लाते हैं!
तुम्हें पता हो या न पता हो, शैतान नरक के द्वार पर पहले पूछ लेता है, भैया, मारवाड़ी तो नहीं हो! मारवाड़ी हो तो स्वर्ग जाओ। यहां जगह नहीं। यहां जगह बिलकुल है ही नहीं। क्योंकि एक मारवाड़ी को भीतर लेना खेतरे से खाली नहीं। तुम अभी उपद्रव शुरू कर दोगे। अभी झंझट खड़ी हो जाएगी। एक दफे लिया था एक मारवाड़ी को, सो बस। उसके बाद जब से उससे छुटकारा हुआ है, तब से नर्क में भी जगह नहीं है।
एक जहाज पर एक व्हेल मछली हमला कर रही है--बार-बार हमला कर रही है। आखिर घबड़ा कर सामान लोग फेंक रहे हैं मछली के मुंह में। थोड़ी देर वह चबाचुबू कर फिर आ जाती। बक्से चले गए, कुर्सियां चली गईं, संतरे के बोरे थे वे चले गए। आखिर जब कुछ न बचा तो एक मोटे मारवाड़ी को लोगों ने उठा कर फेंक दिया! मगर उससे भी हल न हुआ। थोड़ी देर में फिर व्हेल आ गई! धीरे-धीरे करके सब जहाज के यात्री भी अंदर चले गए। जब जहाज का कप्तान पहुंचा,तो देख कर दंग रह गया। मारवाड़ी कुर्सी पर बैठा था। टेबल सामने रखी थी। टेबल पर संतरे सजाए हुए था और चार-चार आने में बेच रहा था! और बाकी यात्री खरीद रहे थे!
मत चिंता करो--चंपालाल समाज सेवक! तुम मारवाड़ियों की सेवा करने का इरादा रखते हो क्या? जरा अपनी जेब सम्हाल कर चलना। और अगर खुद ही मारवाड़ी हो, तो फिर मुझे कोई चिंता नहीं। क्योंकि समाज सेवा के नाम से तुम सिर्फ जेब काटोगे--और कुछ भी नहीं कर सकते हो।
आज इतना ही।
श्री रजनीश आश्रम, पूरा, प्रातः, दिनांक २२ जुलाई, १९८०
Comments
Post a Comment