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राष्ट्रीय पर्व और नेता - ओशो

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-06)

छठवां--प्रवचन



मेरा संन्यास जीवन के साथ अनंत प्रेम है


तीसरा प्रश्नः ओशो, कल से पड़ोस में ही लाउडस्पीकर लगा कर कोई प्रवचन में बाधा डालने की कोशिश कर रहा है। उसका उपद्रव आज भी जारी है। क्या इसे रोका नहीं जा सकता है?

प्रेम चैतन्य! बहुत कठिन! यह छब्बीस जनवरी का मौसम! नेतागण किसी तरह साल भर अपने को रोके रहते हैं, आखिर उनकी भी होली-दीवाली आनी चाहिए! यह समझो होली है।
 बुरा न मानो! उनको बकवास कर लेने दो।
और यह तो कुछ भी नहीं है। पिछले साल तो और भी गजब हुआ था। पड़ोस के लोगों ने एक वयोवृद्ध नेताजी से छब्बीस जनवरी को झंडा फहराने का निवेदन किया।
नेताजी ने प्रसन्न होकर कहा: ठीक है। मेरे पास एक पुराना झंडा पड़ा है, मैं अभी नौकर को भेज कर स्कूल के मैदान में गड़वा देता हूं। नया खरीदने की क्या जरूरत है! मैं सुबह आ जाऊंगा फहराने, आप लोग कुछ फिकर न करिए। नेताजी ने नौकर से झंडा गड़ा आने को कहा। नौकर था शराबी..आखिर नेताजी का नौकर ठहरा। भूल गया। रात तीन बजे उसे याद आई। बेचारा घबड़ा कर झंडा गड़ा आया। गलती केवल इतनी हुई कि तिरंगे झंडे की जगह रात के अंधेरे में वह अपनी पत्नी का पेटीकोट बांध आया।
सुबह जब नेताजी ने रस्सी खींची, तो पेटीकोट हवा में लहरा उठा! भीड़ ने उचक-उचक कर तालियां पीटीं। नेताजी बोले: भाइयो और बहनो, गणतंत्र-दिवस मुबारक हो! फिर उन्होंने झंडे की तरफ इशारा करके कहा: यही है वह राष्टीय प्रतीक, जिसकी छत्रछाया में हम पिछले तीस सालों से पल रहे हैं। हमें इस पर नाज है। दुनिया में किसी भी राष्ट्र का प्रतीक इतना सुंदर नहीं है।
लोग यह सुन कर हंस-हंस कर लोट-पोट हो गए। भीड़ को इतना खुश देख कर नेताजी को भी जोश आ गया, वे झंडे की तरफ हाथ उठा कर बोले: यही है वह, जिस पर मैंने अपनी सारी जवानी न्यौछावर कर दी। इसी की इज्जत बचाने के लिए मैं भी तीन बार जेल गया। सच कहता हूं, मैंने तो कसम खा ली थी कि जीऊंगा तो इसके लिए और अगर मरना पड़ा तो मरूंगा भी इसी के लिए।
भीड़ को बहुत मजा आया। नेताजी ने कहना जारी रखा: यद्यपि यह भी एक कपड़े का टुकड़ा ही है, मगर इसमें ऐसे-ऐसे राज छिपे हैं कि इसके पीछे सुभाषचंद्र और भगतसिंह जैसे कई मर्दो ने अपने प्राण तक कुर्बान कर दिए हैं। अरे, यह चीज ही ऐसी है कि इसे देख कर खून जोश मारता है; जवान ही नहीं, बूढ़ों की रगों में भी गर्मी आ जाती है।
 तालियों की करतल ध्वनि से मैदान गूंज उठा। नेताजी बोले: आप सब लोग इतने उल्लास से भर कर अपने राष्टीय प्रतीक को इतने प्रेम भाव से देख रहे हैं, यह जान कर मैं अति आनंदित हूं। जब यह हवा में लहराता है, और ऊपर-नीचे उठता-गिरता है, तो सभी भारतीय नागरिक मुग्ध-भाव से टकटकी बांध कर देखते रह जाते हैं, इसी से यह ज्ञात हो जाता है कि हमारे देशवासियों के मन में भारतमाता के प्रति कैसी पवित्र भावना है। और जब हम इसे ऊपर उठा कर शान से सड़कों पर चलते हैं, तो क्या जवान, क्या बूढ़े, सभी आह्लादित हो उठते हैं..और इस तरह भारतमाता के प्रति अपनी सच्ची श्रद्धा व्यक्त करते हैं।
लोग बहुत शोरगुल करने लगे। नेता जी ने कहा: भाइयो और बहनो, बस एक बात और कह कर मैं आज का भाषण खत्म करता हूं, फिर हम इसके बाद जन-गण-मन करेंगे। मुझ बूढ़े की यह प्रार्थना है कि जब मैं मर जाऊं, तो मेरे ऊपर कफन की जगह इसी को उढ़ा देना, ताकि जिसे जिंदगी भर चाहा, मरते वक्त उसी के नीचे लेटने से मेरी आत्मा को संतोष मिले। जयहिंद! और अब मैं जाता हूं उस हरामजादे नौकर की तलाश में, जो कि झंडे की जगह लगता है भारतमाता का पेटीकोट डंडे से बांध गया है।
एकाध दिन साल में बेचारों को मौका मिलता है, उनको थोड़ा शोरगुल कर लेने दो। और यह मत सोचो, प्रेम चैतन्य, कि वे कोई यहां चल रहे प्रवचन में बाधा डालने की चेष्टा कर रहे हैं। वे तो अपना बुखार निकाल रहे हैं। उन्हें किसी को बाधा डालने से कोई प्रयोजन नहीं है। ये दो ही तो अवसर आते हैं उनको: पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी; बक लें जो बकना हो, कह लें जो कहना हो।
एक तो नेता और फिर मराठी भाषा! मराठी भाषा में प्रेम भी किसी से करो तो ऐसा लगता झगड़ा कर रहे हो। मैं तो कभी-कभी सोचता हूं कि मराठी में प्रेम कैसे करते होंगे? ऐसा लगता है कि अब मार-पीट हुई, अब बस होती ही है मार-पीट!
उनकी चिंता न करो, उनसे कुछ बाधा पड़ भी नहीं रही है।

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