साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-02
साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
ये फूल लपटें ला सकते हैं—दूसरा प्रवचन
१२ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
आदमी इतना अचेतन है जिसका हिसाब नहीं।
कल ही अखबारों में मैंने पढ़ा, स्वामीनारायण संप्रदाय के प्रधान श्री प्रमुख स्वामी जी लंदन में हैं। वे इंग्लैंड के केंटरबरी के आर्चबिशप से मिलने जानेवाले हैं। इंग्लैंड का सबसे बड़ा जो धर्मगुरु। सब तय हो गया, शायद आज कल में कभी मिलने की तिथि है, लेकिन अभी आखिर-आखिर में उन्होंने अपनी शर्तें भेजी। श्री प्रमुख स्वामी स्त्री का चेहरा नहीं देखते। तो उन्होंने अभी-अभी उन्हें खबर भेजी है कि जब मैं मिलने आऊं तो कोई स्त्री उपस्थित नहीं होनी चाहिए। सारे इंग्लैंड में उपद्रव मच गया। यह कोई हिंदुस्तान तो नहीं है कि स्त्रियां चुपचाप सह लेंगी। कि उन्हीं महात्माओं का व्याख्यान सुनती रहेंगी जो उनको "ढोल गंवार सूद्र पसू नारी' कह रहे हैं। उन्हीं महात्माओं का प्रवचन सुनती रहेंगी जो उनको नरक का द्वार बता रहे हैं। उन्हीं महात्माओं के पैर दबाती रहेंगी, यह कोई हिंदुस्तान तो नहीं। सारे इंग्लैंड में स्त्रियों ने बड़े जोर से विरोध किया है। क्योंकि वहां स्त्रियां पत्रकार आनेवाली थी, स्त्रियां फोटोग्राफर आनेवाली थीं,...और तो और केंटरबरी के आर्चबिशप की जो सेक्रेटरी है, वह भी स्त्री। वह तो मौजूद रहेगी ही।
केंटरबरी का आर्चबिशप भला आदमी, बड़ी दुविधा में पड़ गया कि हां भी भर चुका हूं मिलने के लिए, अब इंकार भी ठीक नहीं मालूम पड़ता। और यह शर्त बेहूदी है। इसका विरोध किया जा रहा है। कि यह बीसवीं सदी है, यह किस सदी की बात कर रहे हो! कि स्त्री को नहीं देखेंगे!
लेकिन भारत में तो कभी कोई विरोध नहीं हुआ-- यहां भी वे स्त्री को नहीं देखते। यहां कुछ स्त्रियां ही ज्यादा भक्त होती हैं। स्त्रियां बड़ी प्रभावित होती हैं इस बात से कि जरूर यह व्यक्ति महापुरुष है। जब हममें कोई रस नहीं लेता, इतना भी रस नहीं लेता कि हमको देखता नहीं, तो जरूर पहुंचा हुआ सिद्ध है। कोई स्त्री अपने पति को थोड़े ही सम्मान देती है--भारतीय स्त्री कभी अपने पति को सम्मान नहीं दे सकती है। लाख कहे कि तुम स्वामी हो, पतिदेव हो,तुम मेरे परमात्मा हो, यह सब बकवास है। भारतीय स्त्री अपने पति को सम्मान दे ही नहीं सकती। क्योंकि भीतर से तो वह जानती है कि महापापी है। यही तो मुझे पाप में घसीट रहा है। यही दुष्ट तो मुझे न-मालूम कहां के नर्क में घसीट रहा है। इसके कारण ही तो मैं सब तरह के पापों में पड़ी हूं--और तो मुझे कोई पाप में घसीटने वाला है नहीं। तो गहन अचेतन में तो पति के प्रति अपमान होगा ही।
और वह अपमान तरहत्तरह से निकलता है। हर तरह से निकलता है। कितनी कलह पत्नियां खड़ी रखती हैं पति के लिए! उसके मूल में तुम्हारे महात्मा हैं। और उन महात्माओं को सम्मान देती हैं, जो उनके अपमान के आधार हैं,जिन्होंने उनके जीवन को कीड़े-मकोड़ों से बदतर बना दिया है। और उनका यह समझ में भी नहीं आता, यह सीधा-सा तर्क भी समझ में नहीं आता कि जो आदमी स्त्रियों को देखने से डरता है, इस आदमी के चित्त में कामवासना अत्यंत कुरूप, अत्यंत विकराल रूप में खड़ी होगी। क्योंकि स्त्री को देखने में क्या डर हो सकता है! स्त्री को देखने में डर नहीं हो सकता,डर होगा तो कहीं भीतर होगा, अपने भीतर होगा।
लोभी धन को देखने से डरेगा। स्भावतः क्योंकि धन को देखकर वह अपने पर वश नहीं रख सकता। कामी स्त्री को देखकर डरेगा। क्योंकि देखकर स्त्री को अपने पर वश नहीं रख सकता। कामी स्त्री को देखकर डरेगा। क्योंकि देखकर स्त्री को अपने वश नहीं रख सकता। किसी तरह स्त्री को देखे ही नहीं, तो चल जाती है बात। अब धन दिखायी ही न पड़े कहीं, तो लोभी करे भी क्या ! कोई कंकड़-पत्थर से तिजोरी भरे! धन दिखायी ही न पड़े कहीं, तो लोभ अप्रगट रह जाएगा। और अप्रगट लोभ से यह भ्रांति पैदा हो सकती है कि लोभ मिट गया। स्त्री दिखायी ही न पड़े, तो अप्रगट काम से यह भ्रांति पैदा हे सकती है कि काम मिट गया। मगर काम यूं मिटता नहीं। पड़ा रहता है, सूखी धार की तरह।
यूं समझो, वर्षा के बाद तुम देखते हो, मेंढक कहीं दिखायी नहीं पड़ते। कहां चले जाते हैं?इतने मेंढक मरे हुए भी नहीं दिखायी पड़ते। वर्षा में तो कितनी मेंढकों की जमात दिखायी पड़ती है, फिर वर्षा के बाद क्या होता है? मेंढक जमीन में दब कर पड़ जाते हैं। सांस नहीं लेते। करीब-करीब मुर्दा हो जाते हैं। लेकिन करीब-करीब मुर्दां! सांस बंद, भोजन बंद, सब बंद हो जाता है। मेंढक को एक कला आती है कि वह आठ महीने मुर्दे की तरह भूमि के गर्भ में दबा हुआ पड़ा रहता है। और जब वर्षा की बूंदाबांदी होती है, आकाश में बादल गरजते हैं, बिजलियां कड़कती हैं, उसके भीतर भी कोई चीज कड़क उठती है, जग उठती है, मेंढक फिर जीवित हो उठता है। मरा था नहीं, जैसे गहरी प्रसुप्ति में सो गया था। इतनी गहरी प्रसुप्ति में जहां कि श्वास का चलना भी बंद हो जाता है।
कोई मेंढक इतनी आसानी से नहीं मर जाता। इसीलिए वर्षा के बाद तुम्हें एकदम मेंढक ही मेंढक मरते हुए नहीं दिखायी पड़ते। सब तरफ नहीं तो मेंढक ही मेंढक मरे हुए पड़े मिलें। सब मेंढक जमीन में दबकर पड़ जाते हैं। और अगर तुम जमीन को खोदो तो जगह-जगह तुम्हें मेंढक दबे हुए मिल जाएंगे। खासकर तालाब और पोखरों के पास की जमीन अगर तुम खोदो, तुम दंग रह जाओगे। सूखे मेंढक पड़े रहते हैं। लेकिन पानी छिड़को और जीवित हुए।
ऐसी ही मनुष्य की वासनाएं हैं। सूख के पड़ जाती हैं। जरा पानी छिड़को, फिर जग जाती हैं।
मैं तो कहूंगा कि इंग्लैंड की स्त्रियों को स्वामी महाराज को अच्छा पाठ पढ़ा देना चाहिए। क्योंकि भारत की स्त्रियां तो अभी पाठ पढ़ा सकेंगी, यह जरा मुश्किल है। हां, मेरी संन्यासिनियां पाठ पढ़ा सकती हैं, अच्छे पाठ पढ़ा सकती हैं। लेकिन इंग्लैंड से भागने नहीं देना चाहिए-- अब फंस ही गये हैं, अपने-आप इंग्लैंड आ गये हैं, तो अब जगह-जगह उनके घिराव करने चाहिए। इंग्लैंड की प्रधान मंत्री स्त्री है, इंग्लैंड की साम्राज्ञी स्त्री है! स्त्रियों को पूरी ताकत लगा देनी चाहिए, यह अपमान बरदाश्त करने योग्य नहीं है। जहां भी वे जाएं, हर जगह उन पर घिराव होने चाहिए। यह केवल स्वामी जी की ही मूढ़ता का प्रदर्शन नहीं हैं, यह पूरी भारती मूढ़ता का प्रदर्शन है। यह भारत का अपमान है। इस तरह का अभद्र व्यवहार करना स्त्रियों के साथ!
हवाई जहाज पर जाते हैं, तो उनके चारों तरफ एक पर्दा लगा देते हैं, वे पर्दे के भीतर बैठे रहते हैं। क्योंकि परिचारिकाएं हैं, तो स्त्रियां। वे पर्दे में छिपे बैठे रहते हैं। वे पर्दे में ही छिपे हुए...। आदमियों को बुर्के ओढ़े देखे हैं? ऐसे इनको बुर्का बना लेना चाहिए। बेहतर तो यह हो सबसे कि आंखों पर एक पट्टी क्यों नहीं बांध लेते?और एक आदमी का हाथ पकड़कर चलते रहो! न स्त्री दिखायी पड़ेगी, न पुरुष दिखायी पड़ेगा। क्योंकि पुरुष भी दिखाई पड़े तो स्त्री की याद तो दिलाएगा ही। कि आखिर पुरुश आया कहां से?आखिर इस पुरुष की स्त्री होगी; मां होगी, बहन होगी, पत्नी होगी, लड़की होगी। पुरुष को देखकर स्त्री की याद तो आ ही सकती है। आखिर पुरुष और स्त्रियां कोई इतने दूर-दूर के जानवर भी तो नहीं हैं। पास ही पास के जानवर हैं। एक ही गर्भ से आए हुए हैं, इतना कुछ बहुत भेद भी नहीं है।
अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कोई भी पुरुष स्त्री होना चाहे तो हो सकता है। कोई भी स्त्री पुरुष होना चाहे तो हो सकती है। और कई दफे नैसर्गिक रूप से घटना घट जाती है कि कुछ पुरुष स्त्री हो जाते हैं, कुछ स्त्रियां पुरुष हो जाती है। फासला बहुत नहीं है, मात्रा का है, थोड़ी-सी मात्रा का है--थोड़े हारमोन का फर्क है। जल्दी ही यह व्यवस्था हो जाएगी कि जिंदगी में दो-चार दफे अपने को बदल लो। एक ही जिंदगी में क्यूं न दो-चार जिंदगियों का मजा लिया जाए! कभी स्त्री हो गये, फिर कभी पुरुष हो गये;कभी पुरुष हो गये, कभी स्त्री हो गये! सब पहलओं से जिंदगी क्यों न देखी जाए! इसमें मैं कुछ एतराज नहीं देखता।
अगर एक इंजेक्शन लगाने से ही हारमोन के पुरुष स्त्री होती हो, स्त्री पुरुष होता हो, तो यह बदलाहट करने जैसी है। साल-दो साल पति रहे,साल-दो साल पत्नी रहे। पत्नी को भी मौका दो पति होने का। यूं जिंदगी का अनुभव ज्यादा होगा, गहरा होगा, ज्यादा समृद्ध होगा।
कोई फर्क ज्यादा तो नहीं। पुरुष का चेहरा भी देखकर स्त्री के चेहरे की याद आ सकती है। और जवान चेहरे, जिन पर अभी दाढ़ी-मूंछ भी न ऊगी हो, उनको देखकर तो स्त्री के चेहरे की याद आ सकती है। आंख पर पट्टी ही बांध लेनी चाहिए--आंख फोड़ ही लेनी चाहिए, झंझट ही मिटा दो, पट्टी-वट्टी भी क्यों बांधनी! सूरदास ही रहो! फिर जहां जाना हो जाओ। इंग्लैंड जाओ,अमरीका जाओ, जहां जाना हो जाओ। नग्न स्त्रियां नहाती रहीं तो भी तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकती। इंद्र अप्सराएं भेजे जो भी तुम्हारा कुछ बिगड़ नहीं सकता। तुम्हें कुछ दिखायी ही नहीं पड़ेगा तो क्या पता चलेगा कि अप्सराएं नाच रही हैं आसपास, कि हुड़दंग मचाने वाले लोग हुड़दंग मचा रहे हैं, कौन नहीं है?
बीसवीं सदी और अब भी इस तरह की धारणाएं!
स्वभाव! तो यहां मेरे पास तुम्हें जो पचास प्रतिशत भारतीयों में अड़चन दिखायी पड़ती है,कुछ आश्चर्य नहीं है। यही स्वामी जी महाराज पैसे लोगों ने इनकी बुद्धि को निर्मित किया है--हजारों साल से निर्मित किया है। गहरे अचेतन में सांप-बिच्छुओं की तरह दबे हुए रोग पड़े हैं। मेरी बातें ऊपर से समझ लेते हैं मगर भीतर गहरे में वही बातें सरकती रहती हैं। इसलिए इनके व्यक्तित्व में एक दोहरापन पैदा हो जाएगा। मेरी बात सुनेंगे तो यूं सिर हिलाएंगे कि जैसे इनकी समझ में आ रहा है। और भीतर ठीक इसके विपरीत इनकी समझ है। इसलिए वह समझ भी कभी-कभी रास्ते खोजेगी और प्रगट होगी। तो व्यंग्य बनेगी, जलन बनेगी, दूसरों को अपराधपूर्ण दृष्टि से देखने का भाव पैदा होगा।
यहां जो भारतीय संन्यासी हैं, मेरे पास आश्रम में जो रह रहे हैं, उनमें पचास प्रतिशत निश्चित ही कचरा हैं! न किसी काम के हैं, न किसी उपयोग के हैं, सिर्फ एक उपद्रव हैं। लेकिन फिर भी वे अपने को श्रेष्ठ मानते हैं।
यहां विदेशी संन्यासी हैं, वे सारा श्रम उठा रहे हज। इस आश्रम की सारी रौनक, सारी कुशलता उनके कारण है। भारतीय न तो काम करेंगे, न श्रम करेंगे, लेकिन फिर भी एक अकड़ भीतरी उनकी कि वे भारतीय हैं; कुछ विशिष्टता है उनकी, कुछ पवित्रता हैं उनकी, कुछ धार्मिकता है उनकी, वे श्रेष्ठ हैं। बस सिर्फ भारतीय होने के कारण श्रेष्ठ हैं। श्रेष्ठता किसी हिस्से में भी सिद्ध नहीं करते हज। सिर्फ एक भीतरी अहंकार है। अब उस अहंकार को कैसे पोषण मिले? उसको पोषण मिलने के लिए ये सरल रास्ते हो जाते हैं। कि निंदा करो औरों की। कारण खोज लो ऐसे। कि अरे, ये सब भ्रष्ट लोग! कि ये सब कामवासना में पड़े हुए लोग! सचाई बिलकुल उलटी है।
सचाई यह है कि यहां अब तक एक भारतीय स्त्री ने मेरे पास शिकायत नहीं कि है कि किसी विदेशी ने उसके कपड़े खींच दिये हों, कि चिउंटी ले दी हो। लेकिन कितनी विदेशी स्त्रियां मुझे रोज पत्र लिखती हैं कि हम क्या करें? भारतीय आते हज तो वे जैसे ध्यान करने नहीं आते, न आपको सुनने आते हैं; कोई चिउंटी काट रहा है,कोई कपड़े खींच देता है, कोई धक्का ही मार देता है। यहां इतने भारतीयों ने विदेशी संन्यासिनियों पर बलात्कार किये, नगर में,लेकिन एक भी ऐसी घटना नहीं घटी कि किसी विदेशी संन्यासी ने किसी भारतीय महिला के साथ ऐसी घटना नहीं घटी कि किसी विदेशी संन्यासी ने किसी भारतीय महिला के साथ बलात्कार करने की चेष्टा की हो; छेड़खान भी की हो।
फिर भी भारतीय समझेंगे कि वे महात्मा हैं। भारत की पुण्यभूमि में पैदा हुए हैं, और क्या चाहिए महात्मा होने के लिए! काफी है इतना। यहां देवता पैदा होने को तरसते हैं! पता नहीं किस तरह के देवता हैं जो यहां पैदा होने को तरसते हैं! और किसलिए तरसते हैं? सड़ना है,क्या करना है? लेकिन भारतीयों को यह भ्रांति है।
यहां हर महीने का यह अनुभव है। जब हिंदी का शिविर उनके लिए है, तब वे आने शुरू हो जाते हैं। बहुत हैरानी की बात है। हिंदी का शिविर उनके लिए है, तब वे आते नहीं। उन्हें क्या लेना-देना है हिंदी से या शिविर से! अंग्रेजी के शिविर में आते हैं यहां। अंग्रेजी समझ में नहीं आए चाहे। लेकिन अंग्रेजी के शिविर से उनको प्रयोजन है। क्योंकि उस वक्त पाश्चात्य संन्यासिनियों की भीड़ होगी यहां, तो धक्कम-धुक्की का मौका मिल जाएगा। चोरी का मौका मिल जाएगा। सिर्फ जब भारतीय यहां बाहर से आते हैं तो चोरी होती है। नहीं तो चोरी नहीं होती।
अभी पुलिस ने एक अड्डा पकड़ा है भारतीयों का जहां करीब तीन लाख रुपयों की विदेशियों की चीजें पकड़ी गयीं। वे सब संन्यासियों की चीजें हैं। क्योंकि और तो पूना में कौन विदेशी हैं? लेकिन अब वे तो सालों पहले आए, गये लोग--खबरें छोड़ गये हैं किसी का कैमरा चोरी गया है, किसी का टेपरिकार्डर चोरी गया है,किसी की घड़ी चोरी गयी है, वे सब पकड़ी गयी हैं, मगर अब जिनकी चीजें हैं वे यहां मौजूद नहीं हैं। किनकी हैं, यह आश्रम को पता नहीं है,सिर्फ इतना पता है कि इस तरह की चीजें चोरी गयी हैं। पुलिस भी मानती है कि हैं तो वे सब संन्यासियों कि ही चीजें, मगर पुलिस की भी मजबूरी है, वह करे क्या? वह हमको आश्रम को दे नहीं सकती। और किनकी हैं, इनके लिए आश्रम के पास कोई प्रमाण नहीं हैं।
और भारतीय बस एक अहंकार है, एक दंभ है। और इस दंभ को और तो कोई मौका मिलता नहीं, किसी और दिशा में तो यह अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर सकता नहीं। जिस काम में भी भारतीयों को आश्रम में लगाया जाता है, उसी काम में वे तृतीय श्रेणी के साबित होते हैं। और इसका कारण यह नहीं है कि उनके पास प्रतिभा की कमी है।
इसका कारण यह है कि कामचोर हैं। इसका कारण यह है कि करना नहीं चाहते। वे तो आते ही आश्रम में इसलिए हैं, उनके आने का कारण ही यही है कि काम वगैरह नहीं करना पड़ेगा। आश्रम का भारत में यही अर्थ रहा है। उनको यह पता नहीं कि यह आश्रम उस अर्थ में आश्रम नहीं है। वे तो कहते हैं: हम तो भक्ति-भाव करेंगे। तो तुम्हारे भोजन की चिंता कौन करे?तुम्हारे कपड़ों की चिंता कौन करे? तुम तो तुम्हारे भोजन की चिंता कौन करे? तुम्हारे कपड़ों कि चिंता कौन करे? तुम तो भक्ति-भाव करोगे, बाकी भोजन वगैरह भी करोगे कि नहीं?कपड़े भी चाहिए कि नहीं तुम्हें? वह चिंता कौन करे? वह चिंता दूसरे लोग करें। भारतीय तो सेवा लेने को हमेशा तत्पर हैं। और संन्यासी हो गये फिर तो सेवा ही चाहिए।
यहां मेरे पास लोग आते हज, पत्र लिखते हज कि हम संन्यास लेने को राजी हैं, मगर संन्यास पीछे लेंगे अगर हमें यह आश्वासन हो कि हमें आश्रम में प्रवेश मिलेगा। और मैं उनसे पुछवाता हूं कि आश्रम में करोगे क्या? वे कहते हैं, आश्रम में कुछ करना ही होता तो आश्रम में क्यों आते?यहां तो भक्ति-भाव करेंगे; प्रभु-भजन करेंगे। मुझे कोई एतराज नहीं, प्रभु-भजन करो, मगर भोजन वगैरह मत मांगना । जितना दिल हो उतना भजन करो। तब वे कहते हैं, भूखे भजन न होहिं गोपाला। तो भोजन की चिंता विदेशी करें, कपड़ों की चिंता विदेशी करें, वे तुम्हारे लिए श्रम करें और तुम भजन-भात करो! और तुम महात्मागीरी करो! और तुम उनसे पैर दबवाओ। और उनको निंदा की दृष्टि से देखो। और देखो कि ये म्लेच्छ। और इनको निंदा की दृष्टि से देखने का एक ही तुम्हारे पास उपाय है,वह यह है कि तुम इनकी प्रेम की जा जीवनदृष्टि है, उसको तुम सरलता से निंदा कर सकते हो अपने मन में।
स्वभाव, इसलिए तुम्हें यह अनुभव हुआ कि वे पचास प्रतिशत भारतीय मित्र जो यहां आश्रम में हैं, न केवल जलते हैं प्रेम करनेवालों से बल्कि अपराधजनक दृष्टि से भी देखते हैं--वे तो उन्हें पापी मानेंगे ही। और घंटों व्यंग्यपूर्ण बातचीत करते रहते हैं। वही तो उनका भक्ति-भाव है,और काम क्या है? फुर्सत ही फुर्सत है उनको। काम उन्हें कुछ करना नहीं है। उनसे काम करने को कुछ भी कहो तो वे बहाने खोजने को तैयार हैं। इतने बहाने खोजते हैं कि बहुत हैरानी होती है।
यहां पंद्रह सौ संन्यासी आश्रम में काम करते हैं,जिनमें मुश्किल से पचास भारतीय हैं। बाकी साढ़े चौदह सौ कोई बहानेबाजी नहीं करते,लेकिन ये पचास सिवाय बहानेबाजी के कुछ और इनका काम नहीं है। आज इनकी तबीयत ठीक नहीं है, कल कोई मिलनेवाला आ गया,परसों इन्हें किसी के दर्शन करने जाना है, फिर इनकी बहन की शादी आ गयी, फिर बहन के लिए वर खोजना है, फिर विवाह में जाना है,फिर बारात में जाना है, फिर कोई मर गया है कहीं, फिर कोई बीमार है उसको देखने जाना है--इनको कोई न कोई बहाना। इसके लिए खर्च भी इनको आश्रम से चाहिए! क्योंकि इनके पास तो कुछ है नहीं।
विदेशी संन्यासी अपना खर्च उठाते हैं, अपने रहने का खर्च उठाते हैं, आश्रम के लिए सब तरह से आधार बने हैं--और फिर भी वे निंदा के पात्र हैं। और कारण? कारण उनका प्रेमपूर्ण जीवन। और इनके भीतर जलन पैदा होती है। क्योंकि इनके भीतर भी प्रेम की आकांक्षा तो दबी पड़ी है। मगर साहस नहीं है, हिम्मत नहीं है।
मैं तो चाहूंगा कि ये मित्र धीरे-धीरे विदा हों यहां से। इनके प्रश्न भी आते हैं मेरे पास तो उत्तर देने योग्य नहीं होते। न-मालूम कहां-कहां के कचरा प्रश्न पूछते हैं, जिनका कोई प्रयोजन नहीं है,जिनका कोई मूल्य नहीं है।
स्त्री और पुरुष के संबंध में भारतीय मन में एक ही धारणा रही है कि एक ही संबंध हो सकता है,वह है कामवासना का। स्त्री और पुरुष के बीच मैत्री भी हो सकती है, मित्रता भी हो सकती है,यह भारतीय परंपरा का अंग नहीं रही। भारतीय परंपरा ने कभी साहस नहीं किया कि स्त्री और पुरुष के बीच मैत्री की धारणा को जन्म दे सके।
यौन तो स्त्री-पुरुष के बीच एक संबंध है। यही सब कुछ नहीं है। मैत्री भी हो सकती है। और मैत्री होनी चाहिए। एक सुंदर, सुसंस्कृत व्यक्तित्व में इतनी क्षमता तो होनी चाहिए कि वह किसी स्त्री के साथ भी मैत्री बना सके,किसी पुरुष के साथ मैत्री बना सके। मैत्री का अर्थ है कि कोई शारीरिक लेन-देन का सवाल नहीं है, एक आत्मिक नाता है।
लेकिन पश्चिम में यह घटना घटती है। एक पुरुष और एक स्त्री के बीच इस तरह की दोस्ती हो सकती है जैसे दो पुरुषों के बीच होती है, या दो स्त्रियों के बीच होती है। मैत्री का आधार बौद्धिक हो सकता है। दोनों के बीच एक बौद्धिक तालमेल हो सकता है। दोनों के बीच रुचियों का एक सम्मिलन हो सकता है। दोनों में संगीत के प्रति लगाव हो सकता है। दोनों में शास्त्रीय संगीत में अभिरुचि हो सकती हैं। यह जरूरी नहीं है कि जिस स्त्री के शरीर से तुम्हारा संबंध है, उससे तुम्हारा बौद्धिक मेल भी खाए। यह जरूरी नहीं है कि जिस स्त्री के शरीर में तुम्हें रुचि है, उसमें और तुम्हारे बीच संगीत के संबंध में भी समानता हो। हो सकता है उसे संगीत में बिलकुल रस न हो । हो सकता है तुम्हें संगीत में बिलकुल रस न हो, उसे रस हो। हो सकता है उसे नृत्य में अभिरुचि हो और तुम्हें दर्शनशास्त्र में। तो ठीक है कि वह अपनी मैत्री बनाएगी उन लोगों के साथ जिनको नृत्य में रुचि है, और तुम उनके साथ मैत्री बनाओगे जिन्हें दर्शन में रुचि है।
पश्चिम में शरीर का संबंध ही एकमात्र संबंध नहीं है। यह श्रेष्ठकर बात है, ध्यान रखना। शरीर का संबंध ही एकमात्र संबंध अगर है, तो इसका अर्थ हुआ कि फिर आदमी के भीतर मन नहीं, आत्मा नहीं, परमात्मा नहीं, कुछ भी नहीं सिर्फ शरीर ही शरीर है। अगर आदमी के भीतर शरीर के ऊपर मन है और मन के ऊपर आत्मा है और आत्मा के ऊपर परमात्मा हैं, शरीर के तल पर किसी और से संबंध हो सकते हैं। क्योंकि यह हो सकता है एक स्त्री के चेहरे में तुम्हें रस न हो,उसका चेहरा तुम्हें न भाए, उसकी देह तुम्हें न भाए, लेकिन उसकी मन की गरिमा तुम्हें मोहित करे। और यह भी हो सकता है एक स्त्री की देह तुम्हें आकृष्ट करे, चुंबक की तरह खींचे, मगर उसके मन में तुम्हें कोई रुचि न हो, कोई रस न हो। फिर क्या करोगे? भारत में तो एक ही उपाय है कि एक चीज से राजी हो जाओ, दूसरे की चिंता छोड़ दो। इससे तो नुकसान होनेवाला है। इससे तुम्हारी एक दशा अवरुद्ध रह जाएगी।
अब तुम्हारी पत्नी को अगर नृत्य में रुचि है और तुम्हें रुचि नहीं है, तो तुम्हारी पत्नी क्या करे? किसी नर्तक से दोस्ती बनाए या न बनाए?लेकिन तुम किसी नर्तक से उसकी दोस्ती पसंद न करोगे। क्योंकि ये नाचने-गानेवालों का क्या भरोसा? ये कोई भरोसे के आदमी हैं, कोई ढंग के आदमी हैं! ढंग के आदमी होते तो नाचने-गाने में जिंदगी व्यतीत करते! अरे, कुछ काम की बात करते, कुछ धंधा करते, कोई दुकान करते, कोई व्यवसाय करते, कुछ कमा कर दिखाते! यह क्या पैरों में घुंघरू बांध कर नाच रहे हैं! और इनका क्या भरोसा? ये नाचने-गानेवालों के संबंध में तुम्हारी धारणा यह होती है--ये तो नंगे-लुच्चे-लफंगे हैं, इनका कोई मूल्य थोड़े ही है, इनके साथ कोई दोस्ती थोड़े ही बनानी पड़ती है! अगर तुम्हारी पत्नी को नाच भी सीखना हो तो तुम ढूंढोगे कोई बिलकुल मुर्दा, मरा हुआ, बूढ़ा, कि जिससे अब कोई खतरा ही न हो। फिर भी तुम अपने बेटे को या बेटी को मौजूद रखोगे कि तू मौजूद रहना, देखते रहना, कि नाचनेवाला ही है, इसका क्या भरोसा? फिर भी नजर रखोगे तुम।
तुम तो चाहोगे कि तुम्हारी पत्नी की सारी अभिरुचि बस तुममें सीमित हो जाए। और फिर तुम्हारी पत्नी भी स्वभावतः यही चाहेगी कि उसकी अभिरुचि भी तुममें सीमित अगर तुम चाहते हो कि हो, तो तुम्हारी अभिरुचि भी बस उसमें ही सीमित हो जाए। तो वह भी नहीं चाहेगी कि तुम मित्रों के पास ज्यादा बैठो, उठो। कोई पत्नियां तुम्हारे मित्रों के पसंद नहीं करती। क्योंकि तुम अपने मित्रों के साथ ऐसे रसलीन होकर बातचीत करते हो कि पत्नियां जल भुन जाती हैं; कि बस मित्र क्या आए कि बहार आ जाती है तुम्हारे जीवन में एकदम! और मित्र क्या गये, मैं बैठी हूं, जैसे हूं ही नहीं। तुम्हें जैसे मतलब ही नहीं है। जमाने हो गये जबसे तुमने चेहरा नहीं देखा मेरा।
और इस बात में सचाई भी हो सकती है। तुमसे अगर कोई एकदम पूछकि आज पत्नी तुम्हारी किस रंग की साड़ी पहने हुए है, तुम शायद ही बता सको। कौन देखता है पत्नी किस रंग की साड़ी पहने हुए है! भाड़ में जाए, जो रंग की साड़ी पहननी हो पहने, सिर भर न खाए! तुमने कितने वर्षों से पत्नी का चेहरा गौर से नहीं देखा!
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी खो गयी। पुलिस में रिपोर्ट करने गया। इंस्पेक्टर ने पूछा, कब खोयी तुम्हारी पत्नी? उसने कहा, सात दिन हो गये। तुम सात दिन क्या करते रहे, बड़े मियां? सात दिन बाद तुम्हें होश आया? शराब ही गये थे?नहीं, नसरुद्दीन ने कहा, मुझे भरोसा ही न आए! यह मेरा सौभाग्य कहां! फिर जब भरोसा आ गया कि नहीं, वह भाग ही गयी है, जब बिलकुल पक्का हो गया कि भाग ही गयी है, अब बहुत दूर निकल चमकी होगी, अब तुम खोजना भी चाहो तो न सकोगे, सो मैं रिपोर्ट कराने आया हूं।
तो उसने कहा, ठीक है। रिपोर्ट लिखनी शुरू की। उसने कहा कि लंबाई? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, अब ऐसे कठिन सवाल न पूछो। अब अपनी पत्नी को क्या कोई नापता है? अब लंबाई? अरे, यही रही होगी मझोल कद की! न बहुत लंबी, न बहुत ठिगनी। कोई खास बात जिससे उसको पहचाना जा सके? नसरुद्दीन सिर खुजलाने लगा, उसने कहा, खास बात?आवाज बुलन्द है। दहाड़ दे, एकदम छाती कंप जाती है। इंस्पेक्टर ने कहा, कुछ और बताओ,आवाज का क्या, बोले न बोले। दहाड़े न दहाड़े! कुछ ऐसा चिह्न बताओ। नसरुद्दीन ने बहुत सोचा, कहा कि नहीं कुछ ख्याल में नहीं आता। मोटी है कि दुबली? उसने कहा, बस यही समझो बीच में। ऐसे टालमटोल करता रहा। और कहा कि और भी एक दुख की बात है कि मेरे कुत्ते को भी साथ ले गयी। तो उसने कहा, ठीक, कुत्ते की रिपोर्ट लिखवा दो। तो वह बस फौरन लिखवाने लगा--अलसेसियन कुत्ता, इतने फीट लंबा, काला रंग, एक कान सफेद, एक-एक ब्यौरा देने लगा। इंस्पेक्टर ने कहा, तुम कुत्ते का ब्यौरा तो यूं दे रहे हो, और पत्नी के संबंध में कहते थे बस समझ लो, मान लो।
कुत्ते में लोगों को ज्यादा उत्सुकता है अपने।
पतिदेव को, पूछो किसी पत्नी से, कब से नहीं देखा? कौन देखता है! फुरसत किसको है! लड़ाई-झगड़े से समय मिले तब!
इस देश में तो बस एक नाता है। और तुम्हारे लुच्चे-लफंगे भी एक ही दृष्टि से स्त्री को देखते हैं और वह है: यौन-साधन। और तुम्हारे ऋषि-मुनि भी एक ही दृष्टि से स्त्री को देखते हैं और वह है: यौन-साधन। दोनों का इस संबंध में जरा भी मतभेद नहीं। मेरे लिए तो दोनों में कुछ भेद नहीं,इसलिए, क्योंकि दोनों की दृष्टि समान है। समदृष्टि हैं इस संबंध में दोनों। लुच्चे-लफंगों की भी दृष्टि यही है कि स्त्री का उपयोग कर लेना है,शोषण कर लेना है, शरीर है और कुछ भी नहीं। और तुम्हारे ऋषि-मुनियों की भी दृष्टि यही है कि भागो, स्त्री से भागो, क्योंकि स्त्री कामवासना है,शरीर है, आकर्षित कर लेगी, तुम कहीं अपना वश न खो बैठो, इसलिए अवसर से दूर रहो,बचे-बचे रहे, बचे-बचे रहो। जिस स्थान पर स्त्री बैठी हो उस स्थान पर दस मिनिट तक मत बैठना क्यों?
मैं एक ब्रह्मचारी जी के साथ यात्रा कर रहा था। ट्रेन में हम सवार हुए, हम प्रविष्ट हुए, हमसे पहले कुछ यात्री नीचे उतरे, जिस जगह हम बैठे वहां दो महिलाएं बैठी थीं, मैं तो बैठ गया, वह खड़े रहे। मैंने पूछा, आप बैठेंगे नहीं? उन्होंने कहा, दस मिनिट बाद। मैंने कहा, मतलब?उन्होंने कहा, जिस स्थान पर स्त्री बैठी रही हो,दस मिनिट तक नहीं बैठना चाहिए। क्योंकि उस स्थान पर स्त्री की ऊर्जा के अणु छूट जाते हैं।
इन मूढ़ों ने इस देश की मनोदशा को बनाया है। उस स्थान पर नहीं बैठेंगे जहां स्त्री बैठी रही है।
मगर दोनों की नजर एक कि स्त्री केवल कामवासना का एक साधन है।
इसलिए इस-देश में, स्वभाव, मैत्री तो असंभव है। मैत्री थोड़ी आध्यात्मिक बात है। थोड़े ऊंचे तल की बात है। तुम कल्पना ही नहीं कर सकते कि एक स्त्री और पुरुष में मैत्री है। कि एक स्त्री और पुरुष घंटों बैठकर दर्शनशास्त्र पर या काव्यशास्त्र पर विचार-विमर्श करते हैं। तुम कहोगे, अरे सब बकवास है, यह दिखावा होगा,दरवाजे बंद करके कुछ और ही लीला चलती होगी! दिखाने के लिए दर्शनशास्त्र काव्य-शास्त्र! यह धोखा किसी और को देना। दरवाजा बंद कि सब काव्यशास्त्र गया एक तरफ, फिर एक शास्त्र बचता है।शरीरशास्त्र। फिर एक-दूसरे के शरीरशास्त्र का अध्ययन करते होंगे।
यहां कोई भरोसा ही नहीं कर सकता कि एक मैत्री हो सकती है जिसका तल शरीर न हो। इस देश की संस्कृति अभी भी बहुत भौतिक है। तुम लाख कहो आध्यात्मिक है, मैं नहीं मानूंगा। मुझे कहीं अध्यात्म दिखायी नहीं पड़ता। बातचीत। अध्यात्म की जरूर है।
अब ये श्री प्रमुखजी स्वामी महराज, इनको तुम आध्यात्मिक कहोगे? एक तरफ तो कहते हैं कि सबके भीतर परमात्मा का वास है, सब में ब्रह्म ही समाया हुआ है--सिर्फ स्त्रियों को छोड़कर। ब्रह्म भी स्त्रियों से डरा हुआ है! हद हो गयी! ब्रह्म की क्या दशा होती होगी जब स्त्रियों का सामना हो जाता होगा? जब कयामत की रात आएगी, और सभी का सामना करना पड़गा ईश्वर के--उसमें स्त्रियां भी होंगी--उस वक्त उसकी क्या हालत होगी? और अगर ब्रह्म सभी में समाया हुआ है, वृक्षों में भी ब्रह्म, पत्थरों में भी ब्रह्म...।
devine thoughts....
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