कुंडलिनी (भाग-2) Kundalini (part-2)
भाग-1 :- 👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻
कुंडलिनी (भाग-1) Kundalini (part-1)
दूसरा प्रश्नः ओशो, आप कभी-कभी अति कठोर उत्तर क्यों देते हैं? जैसे कुंडलिनी के संबंध में दिया आप का उत्तर। वैसे आप कुछ भी कहें, inकुंडलिनी जगानी तो मुझे भी है।
स्वरूपानंद, फिर तुम्हारी मर्जी! वैसे भी स्त्री जाति को छेड़ना नहीं चाहिए। और सोई स्त्री को तो बिल्कुल छेड़ना ही मत! अब कुंडलिनी बाई सोई हैं, तुम काहे पीछे पड़े हो! तुम्हें और कोई काम नहीं! और जगा कर भी क्या करना है? खुद जागो कि कुंडलिनी को जगाना है!
ये भी खुद को जगाने से बचाने के उपाय हैं।
कोई कहेगा कि हमें चक्र जगाने हैं। जगा लो, घनचक्कर हो जाओगे! किसी को कुंडलिनी जगानी है, किसी को रिद्धि-सिद्धि पानी है। करोगे क्या? रिद्धि-सिद्धि पाकर करोगे क्या? हाथ से राख निकालने लगोगे तो कुछ हो जाएगा दुनिया में! मदारीगिरी में मत पड़ो!
खुद को जगाओ, चैतन्य को जगाओ, बोध को जगाओ, जागरूक बनो, यह तो समझ में आता है, मगर कुंडलिनी को जगाना है! न तुम्हें पता है कि कुंडलिनी क्या है, न तुम्हें पता है कि उसका प्रयोजन क्या है, और चूंकि तुम्हें कुछ भी उसके बाबत पता नहीं है, इसलिए उसके संबंध में कुछ भी मूर्खतापूर्ण बातें चलती रहती हैं।
मैंने कुछ दिन पहले पढ़ा कि मेरी पुरानी शिष्या और अब परम पूज्य माता जी श्रीमती निर्मला देवी जी, वे लोगों की कुंडलिनी जगाती हैं। उन्होंने चंदूलाल काका की जगाई, वे खतम ही हो गए। कुंडलिनी जगी कि नहीं, वह तो पता नहीं, वे खुद ही सो गए! और अब उन्होंने एक सिद्धांत निकाला है, सिद्धांत बड़ा प्यारा है, कि कृष्णकन्हैया वृक्षों पर छिप कर या मकानों पर बैठ कर, जब गोपियां पानी भर कर निकलती थीं या दूध लेकर निकलती थीं, तो कंकड़ी मार कर उनकी गगरिया फोड़ देते थे। वे कंकड़ी नहीं थी, निर्मला देवी का कहना है, उस कंकड़ी में वे अपनी कुंडलिनी-शक्ति भर देते थे। नहीं तो कहीं कंकड़ी से गगरी फूटी है! बात तो जंचती है। मजबूत गगरियां, सतयुग की गगरियां..कोई आजकल की, कोई कलयुगी..ऐसी मजबूत कि एक दफा खरीद लीं कि खरीद लीं, बस जिंदगी भर के लिए हो र्गईं। कंकड़ी मार दें और गगरी फूट जाए! तो जैसे अणु शक्ति होती है..छोटे से अणु में कितनी छिपी होती है..ऐसे छोटी सी कंकड़ी में वे कुंडलिनी-शक्ति भर कर और मार दें। और क्यों गगरियों में ही मारें? पुरुषों से कोई दुश्मनी थी? पुरुषों को मारें ही नहीं। मैंने कहा नहीं तुम से कि कुंडलिनी जो है, वह स्त्री जाति है। कंकड़ी मारने से गगरी फूट जाए। कंकड़ी के स्पर्श से जो गगरी में भरा हुआ दूध था या जल था, उस में भी कुंडलिनी-शक्ति व्याप्त हो जाए, फिर कुंडलिनी-शक्ति बहे रीढ़ पर, गोपियों की रीढ़ पर कुंडलिनी-शक्ति बहे, तो उनकी सोई हुई कुंडलिनी-शक्ति एकदम जगने लगे। और तो सब मेरी समझ में आया, यह समझ में नहीं आया कि पानी या दूध तो ऊपर से नीचे की तरफ बहेगा, सो कुंडलिनी और जगी होगी तो सो जाएगी कि जगेगी? यह भर मेरी समझ में नहीं आया। कि जगी-जगाई कुंडलिनी को और ले जाएगी नीचे की तरफ। मगर निर्मला देवी जी ने यह सिद्धांत निकाला है! और लोगों को ऐसी मूढ़तापूर्ण बातें ऐसी जंचती हैं कि क्या कहना।
कुंडलिनी कुछ भी नहीं है सिवाय तुम्हारी काम-ऊर्जा के, तुम्हारी सेक्स-एनर्जी के। और सेक्स-एनर्जी का, काम-ऊर्जा का जो स्वाभाविक केंद्र है, वह जननेंद्रिय है। उसे वहीं रहने दो। उसे ऊपर वगैरह चढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसको ऊपर चढ़ाओगे, विक्षिप्त हो जाओगे। फिर मस्तिष्क फटेगा। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि सिर फटा जा रहा है। कोई कहता है कि कान में जैसे बैंड-बाजे बजते रहते हैं चैबीस घंटे। या बादलों की गड़गड़ाहट सुनाई पड़ती है। अब कुछ करिए। मैं उनको कहता हूं, भैया, तुम जाओ किसी के पास, जिससे कुंडलिनी जगवाई हो उससे सुलाने की तरकीब। प्रत्येक केंद्र की ऊर्जा उसी केंद्र पर होनी चाहिए किसी दूसरे केंद्र पर ले जाने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि जब भी कोई ऊर्जा एक केंद्र से दूसरे केंद्र पर जाएगी तो तुम्हारे जीवन का जो सहज क्रम है, उसमें व्याघात पड़ेगा। परमात्मा ने प्रत्येक चीज को वहां रखा है जहां होनी चाहिए।
तुम जागो! तुम होशपूर्वक हो जाओ! बुद्ध ने कोई कुंडलिनी नहीं जगाई और परम बुद्ध हो गए। तो स्वरूपानंद, तुम्हें कुंडलिनी जगाने की क्या जरूरत है? तुम भी परम बुद्ध हो सकते हो। फिर कुंडलिनी जगाने के नाम से हजारों खेल चलते हैं। चलेंगे ही। स्वाभाविक है। उलटे-सीधे काम लोगों को सिखाए जाते हैं, करवाए जाते हैं। शीर्षासन करके खड़े हो जाओ, इससे कुंडलिनी जगेगी। सिद्धांत यह है कि जब तुम शीर्षासन करके खड़े होओगे, तो काम-ऊर्जा तुम्हारे सिर की तरफ गिरने लगेगी। स्वभावतः, जमीन के गुरुत्वाकर्षण के कारण। मगर तुमने शीर्षासन करने वाले लोगों में कभी कोई प्रतिभा देखी? कोई मेधा देखी? कोई उनकी बुद्धि पर धार देखी, चमक देखी?
पंडित गोपीनाथ इस समय कुंडलिनी के संबंध में सबसे बड़े पंडित हैं। और उनका कहना है, कुंडलिनी जागने से मनुष्य में एकदम प्रतिभा का आविर्भाव होता है। उनकी जाग गई, वे कहते हैं। मगर प्रतिभा का तो कोई आविर्भाव दिखाई पड़ता नहीं, उनमें ही नहीं दिखाई पड़ता। प्रमाणस्वरूप वे कहते हैं कि नहीं, है प्रतिभा का चमत्कार! उन्होंने कई कविताएं लिखी हैं। वे प्रमाण हैं उनका। कि ये कविताएं हमारी...! मगर वे कविताएं तुम पढ़ो तो बड़े चकित होओगे। वे बिल्कुल कूड़ा-करकट हैं। गोपीनाथ जीवन भर क्लर्क रहे, हेड क्लर्क की तरह रिटायर हुए, सो उनकी कविताओं में तुम्हें क्लर्क की भाषा मिलेगी और हेड क्लर्क का हिसाब मिलेगा और कुछ भी नहीं। अब क्लर्क जैसी भाषा लिखते हैं, हेड क्लर्क जैसी भाषा लिखते हैं, वही भाषा कविता में। कविता की तो जान ही निकल जाती है! क्लर्को ने कभी कविताएं लिखीं? और क्लर्की भाषा, कि हो कुछ थोड़ी-बहुत कविता कहीं, तो उसके भी प्राण निकल जाएं। और वे एक ही रात में दो-दो सौ कविताएं लिख लेते हैं। तो वे कहते हैं, यह प्रतिभा का चमत्कार देखो! मगर कविताएं मैंने देखी हैं। कचरे से कचरा कविताएं देखी हैं मगर गोपीनाथ ने सबको मात कर दिया। तुकबंदी भी नहीं कह सकते इनको, कविता तो बहुत दूर। मगर यह प्रतिभा का चमत्कार समझा जा रहा है।
ऐसे ही पश्चिम में भारत के एक सज्जन हैं, श्री चिन्मय। वे भी एक-एक सप्ताह में एक-एक हजार कविता लिख देते हैं। मगर एक कविता का कोई मूल्य नहीं। प्रतिभा का चमत्कार दिखाने के लिए उन्होंने एक तस्वीर उतरवाई है। अपनी सारी कविताओं की किताबें थप्पी लगा कर खड़ी कर दीं और उसी के बगल में खुद खड़े हैं। थप्पी उनसे भी ऊंची चली गई है। वह दिखाने के लिए कि प्रतिभा का चमत्कार है! रद्दी में बेचने योग्य हैं। रद्दी में भी कोई लेगा कि नहीं लेगा, यह भी शक की बात है। मैंने इनकी कविताएं पढ़ी हैं, उस आधार पर कह रहा हूं। इनकी कविताएं पढ़ना ऐसा समझो जैसे किसी पाप का दंड भोग रहे हैं। जैसे पिछले जन्मों में कोई बुरे कर्म किए होंगे सो भोगना पड़ रहा है। जब से मैंने इनकी कविताएं पढ़ी हैं, तबसे मुझे एक ख्याल पक्का बैठ गया है कि नरक में और कुछ होता हो या न होता हो, पंडित गोपीनाथ और श्री चिन्मय की कविताएं तो प्रत्येक को पढ़नी ही पड़ेंगी।
कुछ आविष्कार करो! कुछ नई खोज करो! कुछ विज्ञान का दान दो! कुछ इस देश की दीनता को मिटाने के लिए, दरिद्रता को मिटाने के लिए कोई दृष्टि दो! वह इनकी कुंडलिनी जागने से कुछ नहीं होता। और इनकी जग गई, इसका प्रमाण? बस ये कहते हैं। न कोई आध्यात्मिक गंध मालूम पड़ती है, न कोई जीवन में प्रशांति मालूम होती है, न कोई आनंद-उल्लास मालूम होता है, न कोई नृत्य है, न कोई बांसुरी बज रही है, कोई उत्सव की कहीं खबर नहीं मिलती। वही हेडक्लर्क के हेडक्लर्क।
तुम भी जगा कर स्वरूपानंद, करोगे क्या? और इस जगाने के नाम पर क्या-क्या उपद्रव चल रहा है, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। लोगों को उलटे-सीधे आसन सिखाए जाते हैं, शरीर को मोड़ो, तोड़ो! और लोग बेचारे करते हैं सब तरह की कवायतें, इस आशा में कि कुंडलिनी जगेगी। और जितनी जग गई, जरा उनकी तरफ तो देखो। जग कर हुआ क्या? इनके जीवन से क्रोध गया? इनके जीवन से मोह गया? इनके जीवन से कामवासना गई? इनके जीवन से आसक्ति गई? इनके जीवन से महत्वाकांक्षा गई? इनके जीवन से अहंकार गया? कुछ भी नहीं गया। बल्कि और बढ़ गया। कुंडलिनी जो जग गई तो अब अहंकार और भी ऊंची पताका पर चढ़ गया। वह और ऊंचा झंडा फहरा रहा है।
स्वयं जगो! इन उपद्रवों में मत पड़ो! इन व्यर्थ की बकवासों में मत उलझो। और मैं यह नहीं कहता हूं कि ऊर्जा नहीं है; ऊर्जा है, मगर उसको सिर तक ले जाने की कोई जरूरत नहीं है। सिर के पास अपनी ऊर्जा है, उतनी ही काफी है, वही तुम्हें काफी परेशान किए हुए है। और नई ऊर्जा सिर में ले जाओगे! इतनी ही गैस काफी है तुम्हारे सिर में। ज्यादा गैस हो जाएगी, दिक्कत में पड़ोगे। इतने से ही सिर ठीक चल रहा है। ठीक ही क्या चल रहा है, जरूरत से ज्यादा चल रहा है। चैबीस घंटे चल ही रहा है। जन्म से लेकर मरने तक चलता है। अगर कभी बंद भी होता है तो बस तभी जब तुम्हें मंच पर बोलने को खड़ा कर दिया जाए। बस, तब एक क्षण को सकते में आ जाते हो और खोपड़ी बंद हो जाती है। एकदम स्टार्ट ही नहीं होती!
मैं यूनिवर्सिटी में विद्यार्थी था, एक दिन वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने गया था। एक संस्कृत महाविद्यालय के युवक ने भी भाग लिया था। संस्कृत महाविद्यालय का युवक थोड़ी सी हीनताग्रंथि अनुभव करता है। अंग्रेजी उसे आती नहीं और संस्कृत की बिसात क्या है अब, मूल्य क्या है! सो वह अंग्रेजी के कुछ वाक्य कंठस्थ कर लाया था। संस्कृत विद्यार्थियों की कला यही है: कंठस्थ करना। बुद्धि वगैरह नहीं बढ़ती, मगर उनका कंठ बड़ा हो जाता है। कंठस्थ करते-करते कंठ में बड़ा बल आ जाता है। सो वह प्रभावित करने के लिए लोगों को बर्टेड रसल के कुछ वचन याद कर लाया था। मगर याद किए हुए काम झंझट में डाल दे सकते हैं। जैसे ही वह खड़ा हुआ: ‘भाइयो एवं बहनो, बट्र्रेंड रसल ने कहा है...और बस वहीं अटक गया। मैं उसके बगल में बैठा था, मैंने कहा, फिर से। क्योंकि कहीं गाड़ी अटक जाए तो फिर से शुरू करना ठीक है, शायद पकड़ जाए, लाइन पकड़ जाए! और उसको भी आगे कुछ नहीं सूझा तो उसने मेरी मान ली। तो उसने कहा, फिर कहा कि भाइयो एवं बहनो, बर्टेड रसल ने कहा है...और वह आकर फिर वहीं के वहीं खड़ा हो गया। मैंने कहा: भैया, फिर से! वह भी गजब का था..और करता भी क्या अब, आगे जाने को गति नहीं..सो उसने फिर कहा: ‘भाइयो एवं बहनो, बट्र्रेंड रसल ने कहा है...फिर तो जनता क्या हंसी! वह ठीक वहीं से शुरू करे: ‘भाइयो एवं बहनो’, और वह पहले ही वाक्य पर अटक जाए, ‘बट्रेंड रसल ने कहा है, ‘अब बस इसके बाद उसको कुछ सूझे नहीं। मैंने उससे कहा: भैया, तू अब बैठ ही जा! भाड़ में जाने दे बट्र्रेंड रसल को। कहने दे जो कहना हो उनको, तू तो बैठ! अब तेरी गाड़ी आगे चलने वाली नहीं है! यह तो बिल्कुल टर्मिनस आ गया। इसके आगे गाड़ी जाएगी कहां? पटरी ही खत्म हो जाती है।
जन्म से लेकर मृत्यु तक बड़े मजे से चलता रहता है। कभी-कभी अटकता है तो बस अगर जनता के सामने खड़ा कर दे कोई तुम्हें, कि कुछ बोलिए, कि बस फिर जरा मुश्किल आ जाती है। नहीं, तो खोपड़ी के पास काफी शक्ति है। तुम्हें और ज्यादा शक्ति की कोई जरूरत नहीं है। और अगर तुम काम-ऊर्जा को मस्तिष्क तक ले भी गए, तो भी तुम इतने ही सोए हुए हो, इतने ही सोए हुए रहोगे। काम-ऊर्जा मस्तिष्क में पहुंच जाएगी तो न मालूम किस-किस तरह की कल्पनाएं करेगी। ये तुम्हारे योगियों की कथाएं, महात्माओं की कथाएं इसी तरह की कल्पनाओं से भरी हैं। तुम जो कल्पना करोगे, वही कल्पना तुम्हें दिखाई पड़ने लगेगी। काम-ऊर्जा की वही खूबी है, कि वह हर कल्पना को साकार कर देती है। काम-ऊर्जा स्वप्न देखने की कला है। स्वप्न देखने की ऊर्जा है। तो तुम चाहो रामचंद्र जी को देखो उससे, तो दिखाई पड़ेंगे। और कृष्ण जी महाराज को देखो, वे दिखाई पड़ेंगे। क्राइस्ट को देखना चाहो, वे दिखाई पड़ेंगे। क्योंकि काम-ऊर्जा का एक ही काम है, तुम्हारे भीतर स्वप्न को ऐसी गहराई से पैदा करना कि वह यथार्थ मालूम होने लगे। इसी तरह तो पुरुष स्त्रियों में सौंदर्य को देखते हैं, स्त्रियां पुरुषों में सौंदर्य को देखती हैं। जहां कुछ भी नहीं है, वहां सब कुछ दिखाई पड़ने लगता है। प्रेमियों से पूछो। अगर किसी को किसी स्त्री से प्रेम हो जाए, तो उसे ऐसी-ऐसी चीजें स्त्री में दिखाई पड़ने लगती हैं जो किसी और को दिखाई नहीं पड़तीं, उसी को दिखाई पड़ती हैं। उसको उसके पसीने में दुर्गंध नहीं आती, फलों की बास आने लगती है। साधारण आंखें, एकदम साधारण नहीं रह जातीं, मृगनयनी हो जाती है स्त्री। उसके शब्द मोतियों जैसे झरने लगते हैं। ...झरत दसहुं दिस मोती! ...उसकी हर बात प्यारी लगती है। हर बात अद्भभुत लगती है। उसका चलना, उसका बैठना, उसका उठना। सारा काव्य उसमें साकार हो जाता है।
हालांकि दो-चार दिन का ही मामला है, एक दफा मिल गई, सात चक्कर पड़ गए, घनचक्कर बन गए, कि फिर कुछ नहीं दिखाई पड़ेगा। वे ही मोती कंकड़-पत्थर जैसे पड़ेंगे, कि फिर एक ही आकांक्षा रहेगी कि हे प्रभु, कोई तरह इसे चुप रख! ज्यादा न बोले तो अच्छा। मगर वह दिन भर बड़बड़ाएगी। अब इसकी आंखों में कुछ भी कमल इत्यादि नहीं खिलेंगे। अब इसकी आंखों में सिर्प पुलिसवाला दिखाई पड़ेगा, जो चैबीस घंटे जांच कर रहा है कि कहां गए थे? कहां से आ रहे हो? इतनी देर कैसे हुई? यह हर चीज में अड़ंगा डालेगी। खो गई सब कविता, खो गया सब काव्य, अब सिर ठोंकोगे, सिर धुनोगे। और वही गति स्त्रियों की। जब किसी पुरुष से उनका प्रेम हो जाएगा तो क्या-क्या नहीं दिखई पड़ता। यही नेपोलियन, यही सिकन्दर, यही सब कुछ हैं। हालांकि कुत्ता भौंक दे तो घर में घुस जाते हैं। मगर नेपोलियन, सिकंदर, एकदम बहादुर दिखाई पड़ते हैं। इनकी वीरता का कोई अंत ही नहीं है। ये सारे जगत के विजेता होने वाले हैं।
मैंने सुना है, एक युवती और एक युवक जुहू के तट पर बैठे हुए हैं। पूर्णिमा की रात और सागर में लहरें उठ रही हैं। और युवक ने कहा कि उठो लहरो, उठो! दिल खोल कर उठो! जी-भर कर उठो! और लहरें उठती ही र्गईं, उठती ही र्गईं। युवती ने एकदम युवक को आलिंगन कर लिया और कहा: वाह, सागर भी तुम्हारी मानता है। तुमने इधर कहा कि उठो लहरो, उठो, उधर लहरें उठने लगीं। कैसा तुम्हारा बल! कैसा तुम्हारा चमत्कार!
मगर ये सब दो-चार दिन की बातें हैं। यह काम-ऊर्जा की खूबी है कि वह जब आंखों पर छा जाती है, तो तुम्हें कुछ-कुछ दिखाई पड़ने लगता है। तुम जो देखना चाहो वह दिखाई पड़ने लगता है। क्यों लोगों ने काम-ऊर्जा को मस्तिष्क तक ले जाना चाहा? सबसे पहले, यह कल्पना क्यों उठी? इसीलिए उठी, क्योंकि फिर तुम्हें जो देखना हो तुम देख सकते हो। फिर कृष्णजी को देखो! सामने खड़े हैं, मुस्कुरा रहे हैं! बात करो, जवाब भी देंगे! तुम्हीं दे रहे हो जवाब, तुम्हीं कर रहे हो प्रश्न, बिचारे कृष्ण का इसमें कुछ हाथ नहीं है, मगर तुम्हारी काम-ऊर्जा मस्तिष्क तक पहुंच गई है, अब तुम जो भी कल्पना करोगे वह साकार मालूम पड़ेगी।
यह आध्यात्मिक किस्म की भ्रांतियों में भटकना है।
स्वरूपानंद, ऐसे सत्य को नहीं जान पाओगे। सत्य को जानने के लिए समस्त कल्पनाओं का गिर जाना जरूरी है। कल्पनामात्र का गिर जाना जरूरी है। मस्तिष्क से विचार, धारणा, सब विलीन हो जाने चाहिए, मस्तिष्क बिल्कुल कोरा हो जाना चाहिए, तब तुम जान सकोगे वह, जो है।
और तुम कहते हो, आप कभी-कभी अति कठोर उत्तर क्यों देते हैं? जैसे प्रश्न वैसे उत्तर। अगर तुम प्रश्न ऊलजुलूल पूछोगे, तो उत्तर कठोर होना ही चाहिए। नहीं तो तुम्हारी कभी अकल में न आएगा कि प्रश्न ऊलजुलूल था।
ढब्बू जी एक दिन चंदूलाल से कह रहे थे कि जानते हो मित्र, मेरे दादाजी का अस्तबल इतना बड़ा था कि उसका कोई ओर-छोर नहीं था। इतने घोड़े उनके पास थे कि हर मिनट में एक घोड़ी बच्चा दे देती थी।
चंदूलाल बोले कि बड़े भाई, यह तो कुछ भी नहीं, अरे मेरे दादाजी के पास एक इतना लंबा बांस था कि जब चाहें तब बादलों में छेद कर देते थे और खेतों में बारिश करवा देते थे। ढब्बूजी बोले: अरे यार, झूठ बोलते शर्म नहीं आती? इतना लंबा बांस रखते कहां होंगे? चंदूलाल बोले: अरे, रखते कहां, तुम्हारे दादा के ही अस्तबल में रखते थे।
तुम व्यर्थ के प्रश्न पूछोगे, तो तुम वैसे ही जवाब पाओगे।
ट्रेन में बहुत भीड़ थी और बहुत से लोग लाइन लगा कर खड़े थे। उसी लाइन में मुल्ला नसरुद्दीन खड़ा था। उसी के आगे लाइन में एक बहुत ही खूबसूरत युवती भी खड़ी हुई थी। मुल्ला नसरुद्दीन थोड़ी देर तो उसे देखता रहा, आखिर जब न रहा गया, तो उसने उस युवती की चोटी पकड़ कर पीछे खींच दी। युवती तो बहुत नाराज हुई। उसने कहा कि बड़े मियां, यह क्या हरकत है? यह मेरी चोटी आपने क्यों खींची? नसरुद्दीन मुस्कराता हुआ बोला: वह देखिए न सामने ही लिखा हुआ है कि खतरे के समय जंजीर खींजिए। इसीलिए मैंने यह गुस्ताखी की है। यह सुन कर उस युवती ने जोर की एक चपत नसरुद्दीन के गाल पर रसीद कर दी। नसरुद्दीन ने घबड़ा कर कहा: अरे-अरे, आप यह क्या करती हैं? युवती बोली, बगैर किसी कारण जंजीर खींचने का जुर्माना।
तुम ठीक कहते हो, स्वरूपानंद, कभी-कभी मैं कठोर उत्तर देता हूं ताकि तुम्हारे प्रश्न को बिल्कुल ही समाप्त कर दूं। तुम्हारा प्रश्न उत्तर नहीं चाहता, तुम्हारा प्रश्न चाहता है कि तलवार से उसे काट दिया जाए। तुम्हारा प्रश्न व्यर्थ होता है। तो सिवाय इसके और कोई करुणा नहीं हो सकती कि उसे तलवार से काट दिया जाए। वह गिर जाए। वह गिर जाए तो तुम उससे मुक्त हो जाओ।
अगर तुम ठीक से समझो तो मैं तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर देने को यहां नहीं हूं बल्कि तुम्हें प्रश्नों से मुक्त करने को यहां हूं। प्रश्नों के उत्तर में से तो और नये प्रश्न उठते चले जाएंगे। प्रश्नों के उत्तर से कभी किसी को उत्तर मिले हैं? नये प्रश्न उठ आते हैं। मेरा काम है कि तुम्हारे प्रश्न गिर जाएं ताकि नये प्रश्न न उठें, धीरे-धीरे तुम निष्प्रश्न हो जाओ। इसलिए कभी-कभी तुम्हें मेरी बात कठोर लगती होती, कभी-कभी अप्रासंगिक लगती होगी; कभी-कभी ऐसा लगता होगा मैंने तुम्हारे प्रश्न को तो उत्तर दिया ही नहीं, कुछ और ही कहा। मगर प्रयोजन एक है, सुनिश्चित रूप से एक है, कि तुम्हारे उत्तरों को, तुम्हारे प्रश्नों को, दोनों को ही तुमसे छीन लेना है। तुम्हारे पास प्रश्न भी बहुत हैं, तुम्हारे पास उत्तर भी बहुत हैं। तुम दोनों से ही भरे हो। और दोनों से खाली हो जाओ तो तुम्हारा मन दर्पण हो। और दर्पण हो तो उसमें उसकी तस्वीर बने, जो है। जो है, वह परमात्मा का दूसरा नाम है।
भाग-1 :- 👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻
कुंडलिनी (भाग-1) Kundalini (part-1)
दूसरा प्रश्नः ओशो, आप कभी-कभी अति कठोर उत्तर क्यों देते हैं? जैसे कुंडलिनी के संबंध में दिया आप का उत्तर। वैसे आप कुछ भी कहें, inकुंडलिनी जगानी तो मुझे भी है।
स्वरूपानंद, फिर तुम्हारी मर्जी! वैसे भी स्त्री जाति को छेड़ना नहीं चाहिए। और सोई स्त्री को तो बिल्कुल छेड़ना ही मत! अब कुंडलिनी बाई सोई हैं, तुम काहे पीछे पड़े हो! तुम्हें और कोई काम नहीं! और जगा कर भी क्या करना है? खुद जागो कि कुंडलिनी को जगाना है!
ये भी खुद को जगाने से बचाने के उपाय हैं।
कोई कहेगा कि हमें चक्र जगाने हैं। जगा लो, घनचक्कर हो जाओगे! किसी को कुंडलिनी जगानी है, किसी को रिद्धि-सिद्धि पानी है। करोगे क्या? रिद्धि-सिद्धि पाकर करोगे क्या? हाथ से राख निकालने लगोगे तो कुछ हो जाएगा दुनिया में! मदारीगिरी में मत पड़ो!
खुद को जगाओ, चैतन्य को जगाओ, बोध को जगाओ, जागरूक बनो, यह तो समझ में आता है, मगर कुंडलिनी को जगाना है! न तुम्हें पता है कि कुंडलिनी क्या है, न तुम्हें पता है कि उसका प्रयोजन क्या है, और चूंकि तुम्हें कुछ भी उसके बाबत पता नहीं है, इसलिए उसके संबंध में कुछ भी मूर्खतापूर्ण बातें चलती रहती हैं।
मैंने कुछ दिन पहले पढ़ा कि मेरी पुरानी शिष्या और अब परम पूज्य माता जी श्रीमती निर्मला देवी जी, वे लोगों की कुंडलिनी जगाती हैं। उन्होंने चंदूलाल काका की जगाई, वे खतम ही हो गए। कुंडलिनी जगी कि नहीं, वह तो पता नहीं, वे खुद ही सो गए! और अब उन्होंने एक सिद्धांत निकाला है, सिद्धांत बड़ा प्यारा है, कि कृष्णकन्हैया वृक्षों पर छिप कर या मकानों पर बैठ कर, जब गोपियां पानी भर कर निकलती थीं या दूध लेकर निकलती थीं, तो कंकड़ी मार कर उनकी गगरिया फोड़ देते थे। वे कंकड़ी नहीं थी, निर्मला देवी का कहना है, उस कंकड़ी में वे अपनी कुंडलिनी-शक्ति भर देते थे। नहीं तो कहीं कंकड़ी से गगरी फूटी है! बात तो जंचती है। मजबूत गगरियां, सतयुग की गगरियां..कोई आजकल की, कोई कलयुगी..ऐसी मजबूत कि एक दफा खरीद लीं कि खरीद लीं, बस जिंदगी भर के लिए हो र्गईं। कंकड़ी मार दें और गगरी फूट जाए! तो जैसे अणु शक्ति होती है..छोटे से अणु में कितनी छिपी होती है..ऐसे छोटी सी कंकड़ी में वे कुंडलिनी-शक्ति भर कर और मार दें। और क्यों गगरियों में ही मारें? पुरुषों से कोई दुश्मनी थी? पुरुषों को मारें ही नहीं। मैंने कहा नहीं तुम से कि कुंडलिनी जो है, वह स्त्री जाति है। कंकड़ी मारने से गगरी फूट जाए। कंकड़ी के स्पर्श से जो गगरी में भरा हुआ दूध था या जल था, उस में भी कुंडलिनी-शक्ति व्याप्त हो जाए, फिर कुंडलिनी-शक्ति बहे रीढ़ पर, गोपियों की रीढ़ पर कुंडलिनी-शक्ति बहे, तो उनकी सोई हुई कुंडलिनी-शक्ति एकदम जगने लगे। और तो सब मेरी समझ में आया, यह समझ में नहीं आया कि पानी या दूध तो ऊपर से नीचे की तरफ बहेगा, सो कुंडलिनी और जगी होगी तो सो जाएगी कि जगेगी? यह भर मेरी समझ में नहीं आया। कि जगी-जगाई कुंडलिनी को और ले जाएगी नीचे की तरफ। मगर निर्मला देवी जी ने यह सिद्धांत निकाला है! और लोगों को ऐसी मूढ़तापूर्ण बातें ऐसी जंचती हैं कि क्या कहना।
कुंडलिनी कुछ भी नहीं है सिवाय तुम्हारी काम-ऊर्जा के, तुम्हारी सेक्स-एनर्जी के। और सेक्स-एनर्जी का, काम-ऊर्जा का जो स्वाभाविक केंद्र है, वह जननेंद्रिय है। उसे वहीं रहने दो। उसे ऊपर वगैरह चढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसको ऊपर चढ़ाओगे, विक्षिप्त हो जाओगे। फिर मस्तिष्क फटेगा। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि सिर फटा जा रहा है। कोई कहता है कि कान में जैसे बैंड-बाजे बजते रहते हैं चैबीस घंटे। या बादलों की गड़गड़ाहट सुनाई पड़ती है। अब कुछ करिए। मैं उनको कहता हूं, भैया, तुम जाओ किसी के पास, जिससे कुंडलिनी जगवाई हो उससे सुलाने की तरकीब। प्रत्येक केंद्र की ऊर्जा उसी केंद्र पर होनी चाहिए किसी दूसरे केंद्र पर ले जाने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि जब भी कोई ऊर्जा एक केंद्र से दूसरे केंद्र पर जाएगी तो तुम्हारे जीवन का जो सहज क्रम है, उसमें व्याघात पड़ेगा। परमात्मा ने प्रत्येक चीज को वहां रखा है जहां होनी चाहिए।
तुम जागो! तुम होशपूर्वक हो जाओ! बुद्ध ने कोई कुंडलिनी नहीं जगाई और परम बुद्ध हो गए। तो स्वरूपानंद, तुम्हें कुंडलिनी जगाने की क्या जरूरत है? तुम भी परम बुद्ध हो सकते हो। फिर कुंडलिनी जगाने के नाम से हजारों खेल चलते हैं। चलेंगे ही। स्वाभाविक है। उलटे-सीधे काम लोगों को सिखाए जाते हैं, करवाए जाते हैं। शीर्षासन करके खड़े हो जाओ, इससे कुंडलिनी जगेगी। सिद्धांत यह है कि जब तुम शीर्षासन करके खड़े होओगे, तो काम-ऊर्जा तुम्हारे सिर की तरफ गिरने लगेगी। स्वभावतः, जमीन के गुरुत्वाकर्षण के कारण। मगर तुमने शीर्षासन करने वाले लोगों में कभी कोई प्रतिभा देखी? कोई मेधा देखी? कोई उनकी बुद्धि पर धार देखी, चमक देखी?
पंडित गोपीनाथ इस समय कुंडलिनी के संबंध में सबसे बड़े पंडित हैं। और उनका कहना है, कुंडलिनी जागने से मनुष्य में एकदम प्रतिभा का आविर्भाव होता है। उनकी जाग गई, वे कहते हैं। मगर प्रतिभा का तो कोई आविर्भाव दिखाई पड़ता नहीं, उनमें ही नहीं दिखाई पड़ता। प्रमाणस्वरूप वे कहते हैं कि नहीं, है प्रतिभा का चमत्कार! उन्होंने कई कविताएं लिखी हैं। वे प्रमाण हैं उनका। कि ये कविताएं हमारी...! मगर वे कविताएं तुम पढ़ो तो बड़े चकित होओगे। वे बिल्कुल कूड़ा-करकट हैं। गोपीनाथ जीवन भर क्लर्क रहे, हेड क्लर्क की तरह रिटायर हुए, सो उनकी कविताओं में तुम्हें क्लर्क की भाषा मिलेगी और हेड क्लर्क का हिसाब मिलेगा और कुछ भी नहीं। अब क्लर्क जैसी भाषा लिखते हैं, हेड क्लर्क जैसी भाषा लिखते हैं, वही भाषा कविता में। कविता की तो जान ही निकल जाती है! क्लर्को ने कभी कविताएं लिखीं? और क्लर्की भाषा, कि हो कुछ थोड़ी-बहुत कविता कहीं, तो उसके भी प्राण निकल जाएं। और वे एक ही रात में दो-दो सौ कविताएं लिख लेते हैं। तो वे कहते हैं, यह प्रतिभा का चमत्कार देखो! मगर कविताएं मैंने देखी हैं। कचरे से कचरा कविताएं देखी हैं मगर गोपीनाथ ने सबको मात कर दिया। तुकबंदी भी नहीं कह सकते इनको, कविता तो बहुत दूर। मगर यह प्रतिभा का चमत्कार समझा जा रहा है।
ऐसे ही पश्चिम में भारत के एक सज्जन हैं, श्री चिन्मय। वे भी एक-एक सप्ताह में एक-एक हजार कविता लिख देते हैं। मगर एक कविता का कोई मूल्य नहीं। प्रतिभा का चमत्कार दिखाने के लिए उन्होंने एक तस्वीर उतरवाई है। अपनी सारी कविताओं की किताबें थप्पी लगा कर खड़ी कर दीं और उसी के बगल में खुद खड़े हैं। थप्पी उनसे भी ऊंची चली गई है। वह दिखाने के लिए कि प्रतिभा का चमत्कार है! रद्दी में बेचने योग्य हैं। रद्दी में भी कोई लेगा कि नहीं लेगा, यह भी शक की बात है। मैंने इनकी कविताएं पढ़ी हैं, उस आधार पर कह रहा हूं। इनकी कविताएं पढ़ना ऐसा समझो जैसे किसी पाप का दंड भोग रहे हैं। जैसे पिछले जन्मों में कोई बुरे कर्म किए होंगे सो भोगना पड़ रहा है। जब से मैंने इनकी कविताएं पढ़ी हैं, तबसे मुझे एक ख्याल पक्का बैठ गया है कि नरक में और कुछ होता हो या न होता हो, पंडित गोपीनाथ और श्री चिन्मय की कविताएं तो प्रत्येक को पढ़नी ही पड़ेंगी।
कुछ आविष्कार करो! कुछ नई खोज करो! कुछ विज्ञान का दान दो! कुछ इस देश की दीनता को मिटाने के लिए, दरिद्रता को मिटाने के लिए कोई दृष्टि दो! वह इनकी कुंडलिनी जागने से कुछ नहीं होता। और इनकी जग गई, इसका प्रमाण? बस ये कहते हैं। न कोई आध्यात्मिक गंध मालूम पड़ती है, न कोई जीवन में प्रशांति मालूम होती है, न कोई आनंद-उल्लास मालूम होता है, न कोई नृत्य है, न कोई बांसुरी बज रही है, कोई उत्सव की कहीं खबर नहीं मिलती। वही हेडक्लर्क के हेडक्लर्क।
तुम भी जगा कर स्वरूपानंद, करोगे क्या? और इस जगाने के नाम पर क्या-क्या उपद्रव चल रहा है, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। लोगों को उलटे-सीधे आसन सिखाए जाते हैं, शरीर को मोड़ो, तोड़ो! और लोग बेचारे करते हैं सब तरह की कवायतें, इस आशा में कि कुंडलिनी जगेगी। और जितनी जग गई, जरा उनकी तरफ तो देखो। जग कर हुआ क्या? इनके जीवन से क्रोध गया? इनके जीवन से मोह गया? इनके जीवन से कामवासना गई? इनके जीवन से आसक्ति गई? इनके जीवन से महत्वाकांक्षा गई? इनके जीवन से अहंकार गया? कुछ भी नहीं गया। बल्कि और बढ़ गया। कुंडलिनी जो जग गई तो अब अहंकार और भी ऊंची पताका पर चढ़ गया। वह और ऊंचा झंडा फहरा रहा है।
स्वयं जगो! इन उपद्रवों में मत पड़ो! इन व्यर्थ की बकवासों में मत उलझो। और मैं यह नहीं कहता हूं कि ऊर्जा नहीं है; ऊर्जा है, मगर उसको सिर तक ले जाने की कोई जरूरत नहीं है। सिर के पास अपनी ऊर्जा है, उतनी ही काफी है, वही तुम्हें काफी परेशान किए हुए है। और नई ऊर्जा सिर में ले जाओगे! इतनी ही गैस काफी है तुम्हारे सिर में। ज्यादा गैस हो जाएगी, दिक्कत में पड़ोगे। इतने से ही सिर ठीक चल रहा है। ठीक ही क्या चल रहा है, जरूरत से ज्यादा चल रहा है। चैबीस घंटे चल ही रहा है। जन्म से लेकर मरने तक चलता है। अगर कभी बंद भी होता है तो बस तभी जब तुम्हें मंच पर बोलने को खड़ा कर दिया जाए। बस, तब एक क्षण को सकते में आ जाते हो और खोपड़ी बंद हो जाती है। एकदम स्टार्ट ही नहीं होती!
मैं यूनिवर्सिटी में विद्यार्थी था, एक दिन वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने गया था। एक संस्कृत महाविद्यालय के युवक ने भी भाग लिया था। संस्कृत महाविद्यालय का युवक थोड़ी सी हीनताग्रंथि अनुभव करता है। अंग्रेजी उसे आती नहीं और संस्कृत की बिसात क्या है अब, मूल्य क्या है! सो वह अंग्रेजी के कुछ वाक्य कंठस्थ कर लाया था। संस्कृत विद्यार्थियों की कला यही है: कंठस्थ करना। बुद्धि वगैरह नहीं बढ़ती, मगर उनका कंठ बड़ा हो जाता है। कंठस्थ करते-करते कंठ में बड़ा बल आ जाता है। सो वह प्रभावित करने के लिए लोगों को बर्टेड रसल के कुछ वचन याद कर लाया था। मगर याद किए हुए काम झंझट में डाल दे सकते हैं। जैसे ही वह खड़ा हुआ: ‘भाइयो एवं बहनो, बट्र्रेंड रसल ने कहा है...और बस वहीं अटक गया। मैं उसके बगल में बैठा था, मैंने कहा, फिर से। क्योंकि कहीं गाड़ी अटक जाए तो फिर से शुरू करना ठीक है, शायद पकड़ जाए, लाइन पकड़ जाए! और उसको भी आगे कुछ नहीं सूझा तो उसने मेरी मान ली। तो उसने कहा, फिर कहा कि भाइयो एवं बहनो, बर्टेड रसल ने कहा है...और वह आकर फिर वहीं के वहीं खड़ा हो गया। मैंने कहा: भैया, फिर से! वह भी गजब का था..और करता भी क्या अब, आगे जाने को गति नहीं..सो उसने फिर कहा: ‘भाइयो एवं बहनो, बट्र्रेंड रसल ने कहा है...फिर तो जनता क्या हंसी! वह ठीक वहीं से शुरू करे: ‘भाइयो एवं बहनो’, और वह पहले ही वाक्य पर अटक जाए, ‘बट्रेंड रसल ने कहा है, ‘अब बस इसके बाद उसको कुछ सूझे नहीं। मैंने उससे कहा: भैया, तू अब बैठ ही जा! भाड़ में जाने दे बट्र्रेंड रसल को। कहने दे जो कहना हो उनको, तू तो बैठ! अब तेरी गाड़ी आगे चलने वाली नहीं है! यह तो बिल्कुल टर्मिनस आ गया। इसके आगे गाड़ी जाएगी कहां? पटरी ही खत्म हो जाती है।
जन्म से लेकर मृत्यु तक बड़े मजे से चलता रहता है। कभी-कभी अटकता है तो बस अगर जनता के सामने खड़ा कर दे कोई तुम्हें, कि कुछ बोलिए, कि बस फिर जरा मुश्किल आ जाती है। नहीं, तो खोपड़ी के पास काफी शक्ति है। तुम्हें और ज्यादा शक्ति की कोई जरूरत नहीं है। और अगर तुम काम-ऊर्जा को मस्तिष्क तक ले भी गए, तो भी तुम इतने ही सोए हुए हो, इतने ही सोए हुए रहोगे। काम-ऊर्जा मस्तिष्क में पहुंच जाएगी तो न मालूम किस-किस तरह की कल्पनाएं करेगी। ये तुम्हारे योगियों की कथाएं, महात्माओं की कथाएं इसी तरह की कल्पनाओं से भरी हैं। तुम जो कल्पना करोगे, वही कल्पना तुम्हें दिखाई पड़ने लगेगी। काम-ऊर्जा की वही खूबी है, कि वह हर कल्पना को साकार कर देती है। काम-ऊर्जा स्वप्न देखने की कला है। स्वप्न देखने की ऊर्जा है। तो तुम चाहो रामचंद्र जी को देखो उससे, तो दिखाई पड़ेंगे। और कृष्ण जी महाराज को देखो, वे दिखाई पड़ेंगे। क्राइस्ट को देखना चाहो, वे दिखाई पड़ेंगे। क्योंकि काम-ऊर्जा का एक ही काम है, तुम्हारे भीतर स्वप्न को ऐसी गहराई से पैदा करना कि वह यथार्थ मालूम होने लगे। इसी तरह तो पुरुष स्त्रियों में सौंदर्य को देखते हैं, स्त्रियां पुरुषों में सौंदर्य को देखती हैं। जहां कुछ भी नहीं है, वहां सब कुछ दिखाई पड़ने लगता है। प्रेमियों से पूछो। अगर किसी को किसी स्त्री से प्रेम हो जाए, तो उसे ऐसी-ऐसी चीजें स्त्री में दिखाई पड़ने लगती हैं जो किसी और को दिखाई नहीं पड़तीं, उसी को दिखाई पड़ती हैं। उसको उसके पसीने में दुर्गंध नहीं आती, फलों की बास आने लगती है। साधारण आंखें, एकदम साधारण नहीं रह जातीं, मृगनयनी हो जाती है स्त्री। उसके शब्द मोतियों जैसे झरने लगते हैं। ...झरत दसहुं दिस मोती! ...उसकी हर बात प्यारी लगती है। हर बात अद्भभुत लगती है। उसका चलना, उसका बैठना, उसका उठना। सारा काव्य उसमें साकार हो जाता है।
हालांकि दो-चार दिन का ही मामला है, एक दफा मिल गई, सात चक्कर पड़ गए, घनचक्कर बन गए, कि फिर कुछ नहीं दिखाई पड़ेगा। वे ही मोती कंकड़-पत्थर जैसे पड़ेंगे, कि फिर एक ही आकांक्षा रहेगी कि हे प्रभु, कोई तरह इसे चुप रख! ज्यादा न बोले तो अच्छा। मगर वह दिन भर बड़बड़ाएगी। अब इसकी आंखों में कुछ भी कमल इत्यादि नहीं खिलेंगे। अब इसकी आंखों में सिर्प पुलिसवाला दिखाई पड़ेगा, जो चैबीस घंटे जांच कर रहा है कि कहां गए थे? कहां से आ रहे हो? इतनी देर कैसे हुई? यह हर चीज में अड़ंगा डालेगी। खो गई सब कविता, खो गया सब काव्य, अब सिर ठोंकोगे, सिर धुनोगे। और वही गति स्त्रियों की। जब किसी पुरुष से उनका प्रेम हो जाएगा तो क्या-क्या नहीं दिखई पड़ता। यही नेपोलियन, यही सिकन्दर, यही सब कुछ हैं। हालांकि कुत्ता भौंक दे तो घर में घुस जाते हैं। मगर नेपोलियन, सिकंदर, एकदम बहादुर दिखाई पड़ते हैं। इनकी वीरता का कोई अंत ही नहीं है। ये सारे जगत के विजेता होने वाले हैं।
मैंने सुना है, एक युवती और एक युवक जुहू के तट पर बैठे हुए हैं। पूर्णिमा की रात और सागर में लहरें उठ रही हैं। और युवक ने कहा कि उठो लहरो, उठो! दिल खोल कर उठो! जी-भर कर उठो! और लहरें उठती ही र्गईं, उठती ही र्गईं। युवती ने एकदम युवक को आलिंगन कर लिया और कहा: वाह, सागर भी तुम्हारी मानता है। तुमने इधर कहा कि उठो लहरो, उठो, उधर लहरें उठने लगीं। कैसा तुम्हारा बल! कैसा तुम्हारा चमत्कार!
मगर ये सब दो-चार दिन की बातें हैं। यह काम-ऊर्जा की खूबी है कि वह जब आंखों पर छा जाती है, तो तुम्हें कुछ-कुछ दिखाई पड़ने लगता है। तुम जो देखना चाहो वह दिखाई पड़ने लगता है। क्यों लोगों ने काम-ऊर्जा को मस्तिष्क तक ले जाना चाहा? सबसे पहले, यह कल्पना क्यों उठी? इसीलिए उठी, क्योंकि फिर तुम्हें जो देखना हो तुम देख सकते हो। फिर कृष्णजी को देखो! सामने खड़े हैं, मुस्कुरा रहे हैं! बात करो, जवाब भी देंगे! तुम्हीं दे रहे हो जवाब, तुम्हीं कर रहे हो प्रश्न, बिचारे कृष्ण का इसमें कुछ हाथ नहीं है, मगर तुम्हारी काम-ऊर्जा मस्तिष्क तक पहुंच गई है, अब तुम जो भी कल्पना करोगे वह साकार मालूम पड़ेगी।
यह आध्यात्मिक किस्म की भ्रांतियों में भटकना है।
स्वरूपानंद, ऐसे सत्य को नहीं जान पाओगे। सत्य को जानने के लिए समस्त कल्पनाओं का गिर जाना जरूरी है। कल्पनामात्र का गिर जाना जरूरी है। मस्तिष्क से विचार, धारणा, सब विलीन हो जाने चाहिए, मस्तिष्क बिल्कुल कोरा हो जाना चाहिए, तब तुम जान सकोगे वह, जो है।
और तुम कहते हो, आप कभी-कभी अति कठोर उत्तर क्यों देते हैं? जैसे प्रश्न वैसे उत्तर। अगर तुम प्रश्न ऊलजुलूल पूछोगे, तो उत्तर कठोर होना ही चाहिए। नहीं तो तुम्हारी कभी अकल में न आएगा कि प्रश्न ऊलजुलूल था।
ढब्बू जी एक दिन चंदूलाल से कह रहे थे कि जानते हो मित्र, मेरे दादाजी का अस्तबल इतना बड़ा था कि उसका कोई ओर-छोर नहीं था। इतने घोड़े उनके पास थे कि हर मिनट में एक घोड़ी बच्चा दे देती थी।
चंदूलाल बोले कि बड़े भाई, यह तो कुछ भी नहीं, अरे मेरे दादाजी के पास एक इतना लंबा बांस था कि जब चाहें तब बादलों में छेद कर देते थे और खेतों में बारिश करवा देते थे। ढब्बूजी बोले: अरे यार, झूठ बोलते शर्म नहीं आती? इतना लंबा बांस रखते कहां होंगे? चंदूलाल बोले: अरे, रखते कहां, तुम्हारे दादा के ही अस्तबल में रखते थे।
तुम व्यर्थ के प्रश्न पूछोगे, तो तुम वैसे ही जवाब पाओगे।
ट्रेन में बहुत भीड़ थी और बहुत से लोग लाइन लगा कर खड़े थे। उसी लाइन में मुल्ला नसरुद्दीन खड़ा था। उसी के आगे लाइन में एक बहुत ही खूबसूरत युवती भी खड़ी हुई थी। मुल्ला नसरुद्दीन थोड़ी देर तो उसे देखता रहा, आखिर जब न रहा गया, तो उसने उस युवती की चोटी पकड़ कर पीछे खींच दी। युवती तो बहुत नाराज हुई। उसने कहा कि बड़े मियां, यह क्या हरकत है? यह मेरी चोटी आपने क्यों खींची? नसरुद्दीन मुस्कराता हुआ बोला: वह देखिए न सामने ही लिखा हुआ है कि खतरे के समय जंजीर खींजिए। इसीलिए मैंने यह गुस्ताखी की है। यह सुन कर उस युवती ने जोर की एक चपत नसरुद्दीन के गाल पर रसीद कर दी। नसरुद्दीन ने घबड़ा कर कहा: अरे-अरे, आप यह क्या करती हैं? युवती बोली, बगैर किसी कारण जंजीर खींचने का जुर्माना।
तुम ठीक कहते हो, स्वरूपानंद, कभी-कभी मैं कठोर उत्तर देता हूं ताकि तुम्हारे प्रश्न को बिल्कुल ही समाप्त कर दूं। तुम्हारा प्रश्न उत्तर नहीं चाहता, तुम्हारा प्रश्न चाहता है कि तलवार से उसे काट दिया जाए। तुम्हारा प्रश्न व्यर्थ होता है। तो सिवाय इसके और कोई करुणा नहीं हो सकती कि उसे तलवार से काट दिया जाए। वह गिर जाए। वह गिर जाए तो तुम उससे मुक्त हो जाओ।
अगर तुम ठीक से समझो तो मैं तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर देने को यहां नहीं हूं बल्कि तुम्हें प्रश्नों से मुक्त करने को यहां हूं। प्रश्नों के उत्तर में से तो और नये प्रश्न उठते चले जाएंगे। प्रश्नों के उत्तर से कभी किसी को उत्तर मिले हैं? नये प्रश्न उठ आते हैं। मेरा काम है कि तुम्हारे प्रश्न गिर जाएं ताकि नये प्रश्न न उठें, धीरे-धीरे तुम निष्प्रश्न हो जाओ। इसलिए कभी-कभी तुम्हें मेरी बात कठोर लगती होती, कभी-कभी अप्रासंगिक लगती होगी; कभी-कभी ऐसा लगता होगा मैंने तुम्हारे प्रश्न को तो उत्तर दिया ही नहीं, कुछ और ही कहा। मगर प्रयोजन एक है, सुनिश्चित रूप से एक है, कि तुम्हारे उत्तरों को, तुम्हारे प्रश्नों को, दोनों को ही तुमसे छीन लेना है। तुम्हारे पास प्रश्न भी बहुत हैं, तुम्हारे पास उत्तर भी बहुत हैं। तुम दोनों से ही भरे हो। और दोनों से खाली हो जाओ तो तुम्हारा मन दर्पण हो। और दर्पण हो तो उसमें उसकी तस्वीर बने, जो है। जो है, वह परमात्मा का दूसरा नाम है।
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