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क्या धन व्यर्थ है - ओशो



झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-19)

उन्नीसवां--प्रवचन


सुरति संभारिकै नेह लगाइकै

सारसूत्र:




तुम जरा अपने महात्माओं को देखो! तुमको समझा रहे हैं कि पैसा तो हाथ का मैल है, लेकिन नजर तुम्हारे पैसे पर ही लगी है; तुम्हारी जेब पर लगी हुई है। महात्मा को पैसा दो तो महात्मा तुम्हारा सम्मान करता है।
जैनों के एक बहुत बड़े मुनि हैं, कांजी स्वामी। एक बार भूल से, मैं रास्ते से गुजर रहा था, और उनका प्रवचन हो रहा था, जबलपुर में, तो मैं गाड़ी रोक कर थोड़ी देर सुना कि क्या कह रहे हैं महात्मा। और तो सब ठीक ही था, दो बातें बहुत अद्भभुत कर रहे थे वे। एक तो हर वाक्य के पीछे कहते थे; ‘समझ में आया? ’ जैसे कोई मूढ़ों की जमात बैठी हो। फिर मैंने कहा: है भी बात ठीक, मूढ़ों की जमात ही इनको सुन रही है! क्योंकि वे जो कह रहे थे, बिल्कुल कूड़ा-कचरा था, उसमें कुछ था ही नहीं और वे उसमें भी कहें: ‘समझ में आया? ’ एक था राजा, एक थी रानी, समझ में आया?तो मैं बहुत हैरान हुआ कि यह तो हद हो गई। इसमें समझने जैसी कोई बात ही नहीं है!
और दूसरी बात जो वे समझा रहे थे, वह यह कह रहे थे कि धन तो हाथ का मैल है, मगर बीच-बीच में सेठ चुन्नीलाल आगए, कि सेठ दुलीचंद आगए, कि सेठ कालूमल आगए, तो प्रवचन रोक दें, कि आइए चुन्नीलाल जी, बैठिए! फिर प्रवचन शुरू। आइए, धन्नालाल जी, बैठिए! फिर प्रवचन शुरू। मैंने उनके एक शिष्य से पूछा कि ये धन्नालाल, ये चुन्नीलाल ये फलाने-ढिकाने, इनका नाम ये बार-बार बीच में कैसे आ जाता है? उन्होंने कहा, ये लोग दान देते हैं। ये दानी लोग हैं।
धन जो है, वह हाथ का मैल है, और चुन्नीलाल ने हाथ का मैल दे दिया कांजी स्वामी को और कांजी स्वामी प्रवचन बीच में रोकते हैं: ‘बैठो, चुन्नीलाल!’
समझ में आया, यह भी वे नाम ले-ले कर पूछते हैं। ‘चुन्नीलाल, समझ में आया? ’ इससे चुन्नीलाल को बहुत आनंद आता है कि हजारों लोगों के बीच उनका नाम लिया गया, वे कुछ खास हैं। एक तो आगे बैठे हैं, फिर ‘चुन्नीलाल, समझ में आया? ’ चुन्नीलाल सिर हिलाते हैं कि हां, महाराज!
धन को गालियां दी जा रही हैं, धन को हाथ का मैल बताया जाता है..और दूसरी तरफ यह भी कहा जाता है कि धन मिलता है पिछले जन्मों के पुण्य-कर्मो से। यह बड़े मजे की बात है! पुण्य कर्म करो, मिले हाथ का मैल! जरा तुम सोचो भी तो, पुण्य कर्म का यह फल! हाथ का मैल! कुछ और दे देते। एक गुलाब का फूल ही दे देते। हाथ का मैल तो कम से कम न देते। और जिनको नहीं मिला है हाथ का मैल, उन्होंने पिछले जन्मों में पाप किए हैं। तो क्या गंवाया? ! अरे, पाप करके भी क्या गंवाया? ! सिर्प हाथ का मैल नहीं मिला। सो मिलने वाले को क्या मिल गया? अच्छा ही हुआ! जी भर कर पाप करो, हाथ का मैल कम रहेगा! पुण्य किया कि फंसे; हाथ का मैल मिलेगा।
यह तुम देखते हो विरोधाभास?
इस देश में सदियों से यह समझाया जा रहा है कि पुण्य कर्मो के फल से धन मिलता; और धन त्यागो, धन पाप है। यह कैसा तर्क है? पुण्य कर्मों के फल से धन मिलता है, और धन त्यागो तो पुण्य होता है। लोगों को बिल्कुल कोल्हू का बैल बना रखा है। उनको चक्कर दिए जा रहे हैं। और लोग चक्कर खा रहे हैं। और लोग सोचते भी नहीं कि यह क्या कहा जा रहा है।
तुम और तुम्हारे महात्माओं में कुछ भेद नहीं है। तुम्हारे महात्मा तुम्हें महात्मा इसीलिए लगते हैं, कि भेद नहीं है। अगर भेद हो तो तुम्हें महात्मा भी न लगें। तुम्हें उनका तर्क, उनकी भाषा रुचती है, पटती है, क्योंकि तुमसे मेल खाती है। और यह अहंकार बड़े जाल फैलाता है। इस लोक के जाल फैलाता है, परलोक के जाल फैलाता है। यह जाल फैलाने में बड़ा कुशल है। परलोक में भी तुम पक्का समझो कि महात्माओं में बड़ा संघर्ष होता होगा, मार-पीट होती होगी, कि कौन परमात्मा के पास बैठे, कौन सबसे पास बैठे; कौन उनका बायां हाथ, कौन उनका दायां हाथ? परमात्मा के पास कौन सबसे ज्यादा? इसमें जरूर छुरेबाजी हो जाती होगी महात्माओं में।
दो जैनमुनि, नग्न जैनमुनि पुलिस थाने में लाए गए..शिखरजी जैनों का क्षेत्र है, तीर्थक्षेत्र है, वहां..क्योंकि उन दोनों ने एक-दूसरे की पिटाई कर दी। गए थे जंगल, मलमूत्र विसर्जन करने, वहां झगड़ा हो गया। सब छोड़-छाड़ दिया है, कपड़े भी छोड़ दिए, मगर झगड़ा नहीं छूटा। अहंकार न छूटे तो झगड़ा कैसे छूटे! और झगड़ा किस बात पर हुआ, वह और हैरानी की बात है। वह तो गांव के लोगों ने पकड़ कर उन्हें थाने पहुंचा दिया, थाने में डांट-डपट बताई तो रहस्य खुला। पैसे के ऊपर झगड़ा हो गया। पैसे के ऊपर झगड़ा और जैनमुनि दिगंबर, जो कुछ रखता ही नहीं। सिर्प एक पिच्छी रखता है, जिससे वह जमीन को साफ करके बैठता है, ताकि कोई चींटी इत्यादि न मर जाए। मगर आदमी तो कुशल है, आदमी हर जगह रास्ता निकाल लेता है। पिच्छी में डंडा होता है, जिसमें ब्रुश लगा रहता है, बाल लगे रहते हैं जिससे कि वह साफ करता है; ऊन की पिच्छी होती है, उसके पीछे डंडा होता है। डंडे को पोला कर दिया था उन्होंने, और उसमें सौ-सौ के नोट! सो दोनों में बांटने पर झगड़ा हो गया।
जो बड़ा मुनि था, जो उम्र में बड़ा था और पहले दीक्षित हुआ था, वह ज्यादा चाहता था। स्वभावतः ज्यादा कष्ट उसने सहे, ज्यादा उपवास भी किए, अब हाथ का मैल भी उसको ज्यादा न मिले तो फिर फायदा ही क्या! तो हाथ का मैल थोड़ा ज्यादा चाहता था। मगर दूसरा कहता था कि मैं पोल खोल दूंगा। राज मुझे मालूम है। इसलिए भलाई इसी में हैं कि आधा-आधा बांट लो। इस पर बात बिगड़ गई और एक-दूसरे ने एक-दूसरे पर हमला कर दिया..और कुछ तो था नहीं मारने को, वही पिच्छी के डंडे थे, तो उन्हीं से एक-दूसरे की पिटाई कर दी। गांव वाले उनको यह देख कर थाने ले आए।
जैनियों ने बड़ी कोशिश की कि यह बात ढंक जाए, छिप जाए, अखबारों तक न पहुंच जाए। मेरे पास जैन आए, उन्होंने कहा कि इस बात को छिपाना जरूरी है, क्योंकि इससे जैन-समाज का बड़ा अपमान होगा। मैंने कहा, तुम और गलत आदमी के पास आगए! अब तो छिपना मुश्किल ही है! उन्होंने कहा, क्यों? मैंने कहा कि मैं ही कहूंगा। अब तुम लाख करो उपाय, अखबार में छपे या न छपे, मगर यह घटना ऐसी मूल्यवान है कि मैं इसको छोड़ नहीं सकता।
है मूल्यवान। सब छोड़ कर आ गए, मगर अहंकार के जाल कैसे हैं? सब छोड़ दो फिर भी किसी नये जाल को बुन लेता है।
प्रैम सों प्रीति करू, नाम को हृदय धरू,
जोर जम काल सब दूर जाहीं।।
बड़ी अद्भभुत बात है..
प्रैम सों प्रीति करू, ...
और किसी चीज से प्रेम न करो, प्रेम से ही प्रेम करो, बस, तो तुम्हारा प्रेम परमात्मा तक पहुंच जाएगा। न धन से प्रेम करो, न पद से प्रेम करो; न स्वर्ग से प्रेम करो, न मोक्ष से प्रेम करो..क्योंकि स्वर्ग और मोक्ष का प्रेम भी अहंकार का जाल है, वह भी वासना है..प्रेम से ही प्रेम करो। गजब की बात कही गुलाल ने। प्रेम से ही प्रेम करो। तो फिर इसमें कुछ लक्ष्य न रहा, कोई आगे की आकांक्षा न रही। प्रेम में ही आनंदित होओ, प्रेम को ही सर्वस्व मानो, प्रेम के पार न कुछ पाने को है, न कोई स्वर्ग है, न कोई मोक्ष।
‘प्रैम सों प्रीति करू।’ इतने अदभुत वचन, लेकिन चूंकि बेचारे बेपढ़े-लिखे संतों ने कहे, कोई इनकी फिकर नहीं करता। इसीलिए मैंने इन पर बोलना तय किया। उपनिषदों पर बोलने वाले बहुत लोग हैं। गीता पर टीका पर टीकाएं होती चली जाती हैं। वेदों पर बड़े प्रवचन होते हैं। मगर कौन बोले गुलाल पर! किसको पड़ी! और ऐसे हीरों-जैसे वचन। तुम उपनिषद छान डालो तो ये वचन नहीं मिलेगा: प्रैम सों प्रीति करू। तुम वेद छान डालो, यह वचन नहीं मिलेगा। मात कर दिया वेदों को। गहरी से गहरी बात कह दी। इससे गहरी बात कही नहीं जा सकती। प्रेम से प्रेम करो। कोई और साध्य न हो, कोई और हेतु न हो। प्रेम ही साधन, प्रेम ही साध्य। प्रेम ही तुम्हारा आनंद हो। प्रेम के लिए प्रेम। प्रेम ही तुम्हारा अहोभाव हो।
प्रैम सों प्रीति करू, नाम को हृदय धरू,
और तभी तुम परमात्मा को अपने हृदय में बसा सकोगे।
जोर जम काल सब दूर जाहीं।।
और फिर तुम पर न तो मृत्यु का कोई बस रह जाएगा, न समय का कोई बस रह जाएगा। सब हट जाएंगे, अपने से हट जाएंगे। तुम प्रेम के अमृत को पी लो। तुम प्रेम के घूंट को पी लो। सब कट जाएंगी भ्रांतियां, सब कट जाएंगे जाल। क्यों? क्योंकि प्रेम चोट करता है अहंकार की जड़ पर। अगर तुम अहंकारी हो, तो प्रेम नहीं कर सकते। और अगर तुम प्रेमी हो तो अहंकार नहीं कर सकते। दोनों बातें साथ नहीं हो सकतीं। अगर दीया जला तो अंधेरा नहीं बच सकता। और अगर अंधेरा है तो दीया नहीं है। ऐसा ही समझो। जहां प्रेम जला, वहां अहंकार गया। और जहां अहंकार है, वहां प्रेम नहीं। अहंकार तो प्रेम के धोखे देता है। बड़ी होशियारी से धोखे देता है।
एक शाम मुल्ला नसरुद्दीन कब्रिस्तान से गुजर रहा था। उसने देखा कि एक खूबसूरत युवती श्वेत परिधान पहने एक ताजी कब्र को पंखा झल रही है। मुल्ला यह देख रोमांचित हो उठा और उसने कहा कि वाह रे खुदा, कौन कहता है कलयुग आगया! सतयुग है, अभी भी सतयुग है। ऐसे प्रेमी आज भी दुनिया में हैं। बेचारी कब्र को पंखा झल रही है। मुल्ला की आंखों से तो आनंद के आंसू बहने लगे। एक उसकी पत्नी है कि जिंदा मुल्ला की पिटाई करती है! और एक यह स्त्री है! कौन कहता है स्त्री नरक का द्वार है! कब्र को पंखा झल रही है, हद हो गई, प्रेम की भी हद हो गई। प्रेम और क्या ऊंचाइयां लेगा!
उसने जाकर महिला से कहा कि सुनिए, आपको देख कर मुझे महसूस होता है कि प्रेम अभी भी शेष है और दुनिया का अभी भी भविष्य है; अभी भी आशा छोड़ने का कोई कारण नहीं है। कितने ही मनुष्य गिर गए हों, लेकिन तुम जैसे थोड़े से व्यक्ति भी अगर हैं तो पर्याप्त है। तुम्हीं तो नमक हो पृथ्वी का। मगर क्या मैं पूछ सकता हूं कि आप कब्र पर पंखा क्यों झल रही हैं? अरे, जानेवाला तो जा चुका, अब कब्र को पंखा झलने से क्या होगा? युवती बोली कि बात यह है जनाब, कि कब्रिस्तान के बाहर मेरा प्रेमी मेरा इंतजार कर रहा है। और मेरे पति ने कहा था कि जब तक मेरी कब्र सूख न जाए, तुम किसी से विवाह मत करना, नहीं तो मुझे बहुत दुख होगा। अतः कब्र को जल्दी सुखाने के लिए पंखा झल रही हूं।
यहां ऐसा ही चल रहा है। प्रेम के नाम पर प्रेम के दिखावे हैं। प्रेम के नाम पर कुछ और है, जो शायद प्रेम से विपरीत ही हो। प्रेम के नाम पर अहंकार पोषित हो रहा है। प्रेम के नाम पर दूसरे की मालकियत की चेष्टा चल रही है। प्रेम के पीछे छिपी है ईष्र्या, जलन, द्वेष। प्रेम की आड़ में क्या-क्या नहीं हो रहा है! इस प्रेम की बात नहीं कर रहे हैं गुलाल। तुम्हारे प्रेम की बात नहीं कर रहे हैं। उस प्रेम की बात कर रहे हैं जिसकी तुम्हें अभी कोई खबर ही नहीं है। लेकिन जिसका बीज तुम्हारे भीतर है। अगर खबर हो जाए तो तुम्हारे भीतर भी प्रेम का वही फूल खिल सकता है: प्रेम के लिए प्रेम। कुछ और मांग नहीं। प्रेम देने में ही आनंद। तब प्रेम व्यक्तियों से बंधा नहीं रह जाता। तब प्रेम एक निर-वैयक्तिक भाव-दशा हो जाता है। तब प्रेम एक संबंध नहीं रह जाता, एक स्थिति बन जाता है। तब ऐसा नहीं कि तुम किसी से प्रेम करते हो, बस तुम प्रेम करते हो। ऐसा भी ठीक नहीं कि तुम प्रेम करते हो, ज्यादा ठीक होगा कहना कि तुम प्रेम हो। तो तुम जिसको छूते हो, वहीं प्रेम। तुम जिसे देखते हो, उस पर ही प्रेम की वर्षा। तुम एकांत में भी बैठो तो तुम्हारे चारों तरफ प्रेम की तरंगें उठती हैं। ऐसा प्रेम हो तो राम तुम्हारे हृदय में वास करे।
सुरति संभारिकै नेह लगाइकै,
बस, दो काम कर लो। सुरति को सम्हालो, स्मरण को सम्हालो, स्मरण करो कि मैं कौन हूं और प्रेम से भरो। बस, दो काम; बस, दो सीढ़ियां, दो कदम और यात्रा पूरी हो जाती है।
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!
किसी शापवश हो निर्वासित,
लीन हुई चेतनता मेरी;
मन-मंदिर का दीप बुझ गया;
मेरी दुनिया हुई अंधेरी!
पर यह उजड़ा उपवन सब दिन बियाबान सुनसान नहीं था!
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!
मेरे सूने नभ में शशि था,
थी ज्योत्स्ना जिसकी छवि-छाया;
जीवित रहती थी जिसको छू
मेरी चंद्रकांतमणि काया,

ठोकर खाते मलिन ठीकरे सा तब मैं निष्प्राण नहीं था!
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!
था मेरा भी कोई, मैं भी
कभी किसी का था जीवन में;
बिछुड़ा भी पर भाग्य न बिगड़ा,
रही मधुर सुधि जब तक मन में;

पर क्या से क्या बन जाऊंगा, इसका कभी गुमान नहीं था!

मैं सब दिन पाषाण नहीं था!
मैं उपवन का ही प्रसून हूं,
किसी गले का हार बना था;
वह मेरी स्मिति थी, उसका भी
मैं हंसता संसार बना था;

मिले धूल में दलित कुसुम सा, मैं सब दिन म्रियमाण नहीं था!
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!
मैं तृण सा निरुपाय नहीं था,
जल में डालो बह जाए जो;
और डाल दो ज्वाला में यदि,
क्षणिक धुआं बन उड़ जाए जो;
आज बन गया हूं जैसा कुछ, सब दिन इसी समान नहीं था!

मैं सब दिन पाषाण नहीं था!
मेरा नाम अरुणिमा सा ही
रहता था उसके अधरों पर,
झूम-झूम उठता था यौवन
मेरी पिक के मधुर स्वरों पर,
मुझमें प्राण बसे थे उसके, मेरा मृण्मय गान नहीं था!
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!
स्मरण रखो, आज तो तुम पत्थर जैसे हो..हो गए हो पत्थर जैसे..न तो तुम्हारी यह नियति है, न यह तुम्हारा स्वभाव है। तुम ऐसे पैदा न हुए थे। तुम ऐसे होने के लिए पैदा न हुए थे। समाज ने तुम्हें पत्थर बना दिया है। क्योंकि समाज आदमी नहीं चाहता, पत्थर चाहता है। समाज के लिए पत्थर काम के हैं, आदमी नहीं। आदमी तो खतरनाक हो सकते हैं, पत्थर आज्ञाकारी होते हैं। आदमी बगावती हो सकते हैं, पत्थर बगावती नहीं होते। तुम्हारे हृदय को मार डाला गया है। तुम्हारी बुद्धि को खूब कूड़े-कचरे से भरा गया है। क्योंकि बुद्धि का उपयोग समाज के लिए है। क्लर्क बनाना है तुम्हें, स्टेशन मास्टर बनाना है तुम्हें, डिप्टी कलेक्टर बनाना है तुम्हें; तो तुम्हारी खोपड़ी को कचरे से भरना ही होगा। नहीं तो ये कचरा भरी फाइलें तुम कैसे सरकाते रहोगे? यह कूड़ा-करकट तुम कैसे जीवन भर ढोओगे?
ऐसे-ऐसे अदभुत लोग पड़े हैं कि दफ्तर में ही उनका मन नहीं भाता, दफ्तर में पूरा नहीं पड़ता, वे फाइलें लिए बगल में दबाए घर भी चले आते हैं। फाइलें ही उनका जीवन हैं। उनमें ही सब हीरे-माणिक-मोती। और उनका दिल बड़ा खुश होता है टेबल पर ढेर लगा कर बैठे रहते हैं दिन भर, चित्त उनका बड़ा प्रसन्न होता है जैसे ढेर बड़ा होता जाता है, जैसे उसकी संपदा बढ़ती जाती है, जितने ही वे फाइलों के ढेर के पीछे छिप जाते हैं, उतने ही महत्त्वपूर्ण आदमी हो जाते हैं। काम इतना है उनके ऊपर। खोपड़ी को कचरे से भरना ही होगा! लोगों से कचरा काम लेना है।
हृदय खतरनाक है समाज के लिए। क्योंकि जिसके पास हृदय है, उसे दिखाई पड़ेगा कि क्या कचरा है, क्या सार है, क्या असार है। और जिसके पास हृदय है, तुम उससे हिंसा न करवा सकोगे, तुम उससे गोली न चलवा सकोगे, तुम उससे तलवार न उठवा सकोगे, तुम उससे हिरोशिमा पर एटम बम न गिरवा सकोगे। जिसके पास हृदय है, वह कहेगा, मुझे चाहे सूली पर चढ़ा दो, लेकिन एक लाख लोगों के ऊपर मैं बम गिरा कर उनको राख कर दूं, यह मुझसे न होगा।
जिस आदमी ने हिरोशिमा पर बम गिराया, बम गिरा कर रात भर आनंद से सोया। सुबह जब उससे पूछा गया, क्या तुम रात सो सके? तो उसने कहा, आनंद से सोया। अपना कर्तव्य पूरा किया, उसके बाद आनंद से सोया ही जाता है। वह कर्तव्य था! एक लाख आदमी जल कर राख हो गए, वह कर्तव्य पूरा करके आगया! और कर्तव्य पूरा हो गया, रात आनंद से सोया। आकर भोजन किया उसने। एक लाख आदमियों को मार कर भोजन करना किसके लिए संभव है? जिसके पास हृदय न हो, पाषाण हो।
और यह हालत उसकी ही न थी, जिस अमरीकी प्रेसीडेंट की आज्ञा से...ट208 मैन की आज्ञा से यह बम गिराया गया था। ट्रूमैन का अर्थ होता है: सच्चा आदमी। हद्द हो गई! ट208 मैन और सच्चा आदमी! इससे ज्यादा झूठा आदमी मिलना मुश्किल है। इसलिए मैं उनका नाम रखता हूं: प्रेसीडेंट अन-ट208 मैन। इन्होंने एटम बम गिरवाने की आज्ञा दी। और जब इनसे पूछा गया कि आपको कोई दुख, पश्चात्ताप? उन्होंने कहा: क्या दुख, क्या पश्चात्ताप? युद्ध समाप्त हो गया। नहीं तो युद्ध समाप्त ही नहीं होता।
और यह बात झूठ है। सच्चाई यह है कि युद्ध समाप्त होने ही वाला था। युद्ध इतने जल्दी समाप्त होने के करीब था, दो-चार दिन के भीतर, कि ट208 मैन को लगा कि प्रयोग कर ही लेना चाहिए, नहीं तो एटम बम का प्रयोग करने का अवसर नहीं आएगा। शोध से जो पता चला है, वह यह कि युद्ध इतनी जल्दी समाप्त हुआ जा रहा था..जर्मनी हार रहा था, रूसी फौजें बर्लिन में पहुंच गई थीं, जापान घुटने टेक रहा था..एटम बम गिराने की कोई भी आवश्यकता न थी। और अगर दो-चार दिन ज्यादा भी चल जाता युद्ध, तो इतने दिन चला था और दो-चार दिन। एटम बम गिराने की कोई जरूरत न थी। लेकिन यह खतरा पकड़ा मन में कि फिर एटम बम का प्रयोग ही न हो सकेगा, हम जान ही न सकेंगे इसकी औकात, इसकी शक्ति कितनी है। एटम बम बिल्कुल ही गैर-जरूरी था। लेकिन उसको गिराने का निर्णय लिया ट208 मैन ने। और प्रसन्नता से। कोई पश्चात्ताप नहीं। तुम एक आदमी को मार दो तो पश्चात्ताप होता है। तुम एक चींटी को कुचल दो तो भी पश्चात्ताप होता है।

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ओशो देशना (अविरल,अविस्मरणीय और आनंददायी)

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जीवन की खोज – Jeevan Ki Khoj अनुक्रम       #1: प्यास       #2:  मार्ग       #3: द्वार       #4: प्रवेश Download Jeevan Ki Khoj (जीवन की खोज) "Osho" PDF जीवन क्या है? उस जीवन के प्रति प्यास तभी पैदा हो सकती है, जब हमें यह स्पष्ट बोध हो जाए, हमारी चेतना इस बात को ग्रहण कर ले कि जिसे हम जीवन जान रहे हैं, वह जीवन नहीं है। जीवन को जीवन मान कर कोई व्यक्ति वास्तविक जीवन की तरफ कैसे जाएगा? जीवन जब मृत्यु की भांति दिखाई पड़ता है, तो अचानक हमारे भीतर कोई प्यास, जो जन्म-जन्म से सोई हुई है, जाग कर खड़ी हो जाती है। हम दूसरे आदमी हो जाते हैं। आप वही हैं, जो आपकी प्यास है। अगर आपकी प्यास धन के लिए है, मकान के लिए है, अगर आपकी प्यास पद के लिए है, तो आप वही हैं, उसी कोटि के व्यक्ति हैं। अगर आपकी प्यास जीवन के लिए है, तो आप दूसरे व्यक्ति हो जाएंगे। आपका पुनर्जन्म हो जाएगा। ओशो

ध्यान सूत्र। (Dhyan sutra -ओशो Pdf file

ध्यान सूत्र। (Dhyan sutra)                                 -ओशो DHYAAN SUTRA 〰〰 🎙HINDI 📆1965 💿9 DISCOURSES अनुक्रमणिका : प्रवचन 1 - प्यास और संकल्प    3 प्रवचन 2 - शरीर-शुद्धि के अंतरंग सूत्र    18 प्रवचन 3 - चित्त-शक्तियों का रूपांतरण    42 प्रवचन 4 - विचार-शुद्धि के सूत्र    62 प्रवचन 5 - भाव-शुद्धि की कीमिया    77 प्रवचन 6 - सम्यक रूपांतरण के सूत्र    96 प्रवचन 7 - शुद्धि और शून्यता से समाधि फलित    119 प्रवचन 8 - समाधि है द्वार    133 प्रवचन 9 - आमंत्रण--एक कदम चलने का  👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻 Download Dhyan Sutra (ध्यान सूत्र) PDF

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शिव—सूत्र—(ओशो) (समाधि साधपा शिवर, श्री ओशो आश्रम, पूना। दिनांक 11 से 20 सितंबर, 1974 तक ओशो द्वारा दिए गए दस अमृत—प्रवचनो का संकलन। Download Shiv Sutra (शिव सूत्र) PDF अनुक्रम         #1: जीवन-सत्य की खोज की दिशा         #2: जीवन-जागृति के साधना-सूत्र         #3: योग के सूत्र : विस्मय, वितर्क, विवेक         #4: चित्त के अतिक्रमण के उपाय         #5: संसार के सम्मोहन, और सत्य का आलोक         #6: दृष्टि ही सृष्टि ‍है         #7: ध्यान अर्थात चिदात्म सरोवर में स्नान         #8: जिन जागा तिन मानिक पाइया         #9: साधो, सहज समाधि भली!         #10: साक्षित्व ही शिवत्व है   Description Reviews

जिन खोजा तिन पाइयां -ओशो Pdf

जिन खोजा तिन पाइयां।                          -ओशो (कुंडलिनी - योग पर ध्यान शिविर, नारगोल में ध्यान प्रयोगों के साथ प्रवचन एवम मुम्बई में प्रश्नोत्तर चर्चाओं सहित "19" ओशो प्रवचनों का अपूर्व संकलन) pdf file  428 pages Download Pdf file Here Language :- Hindi  Size :- 3.3mb Type :- Pdf file जिन खोजा तिन पाइयां ऊर्जा का विस्तार है जगत और ऊर्जा का सघन हो जाना ही जीवन है। जो हमें पदार्थ की भांति दिखाई पड़ता है, जो पत्थर की भांति भी दिखाई पड़ता है, वह भी ऊर्जा, शक्ति है। जो हमें जीवन की भांति दिखाई पड़ता है, जो विचार की भांति अनुभव होता है, जो चेतना की भांति प्रतीत होता है, वह भी उसी ऊर्जा, उसी शक्ति का रूपांतरण है। सारा जगत-- चाहे सागर की लहरें, और चाहे सरू के वृक्ष, और चाहे रेत के कण, और चाहे आकाश के तारे, और चाहे हमारे भीतर जो है वह, वह सब एक ही शक्ति का अनंत-अनंत रूपों में प्रगटन है। ओशो  कुंडलिनी-यात्रा पर ले चलने वाली इस अभूतपूर्व पुस्तक के कुछ विषय बिंदु: शरीर में छिपी अनंत ऊर्जाओं को जगाने का एक आह्वान सात चक्रों व सात शरीरो

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हंसा तो मोती चूने--(लाल नाथ)-प्रवचन-10 अवल गरीबी अंग बसै—दसवां प्रवचन  दसवा प्रवचन ; दिनाक 20 मई ,  1979 ; श्री रजनीश आश्रम ,  पूना यह महलों ,  यह तख्तों ,  यह ताजों की दुनिया यह इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया  यह दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया  यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है! हर एक जिस्म घायल ,  हर इक रूह प्यासी निगाहों में उलझन ,  दिलों में उदासी यह दुनिया है या आलमे-बदहवासी यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है! यहां इक खिलौना है इन्सां की हस्ती यह बस्ती है मुर्दा -परस्तों की बस्ती यहां पर तो जीवन से है मौत सस्ती यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है! जवानी भटकती है बदकार बनकर जवा जिस्म सजते हैं बाजार बनकर यहां प्यार होता है व्योपार बनकर यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है! यह दुनिया जहां आदमी कुछ नहीं है वफा कुछ नहीं ,  दोस्ती कुछ नहीं है जहां प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है! जला दो उसे फूंक डालो यह दुनिया मेरे सामने से हटा लो यह दुनिया तुम्हारी है तुम ही सम्हालो यह दुनिया

कृष्ण स्मृति-ओशो Pdf

     कृष्ण स्मृति             -ओशो। (ओशो द्वारा कृष्ण के बहु-आयामी व्यक्तित्व पर दी गई 21 र्वात्ताओं एवं नव-संन्यास पर दिए गए एक विशेष प्रवचन का अप्रतिम संकलन। यही वह प्रवचनमाला है जिसके दौरान ओशो के साक्षित्व में संन्यास ने नए शिखरों को छूने के लिए उत्प्रेरणाली और "नव संन्यास अंतर्राष्ट्रीय' की संन्यास-दीक्षा का सूत्रपात हुआ।) File name :- कृष्ण स्मृति  Language :- Hindi Size:- 6mb 504 pages  Download Pdf file here अनुक्रमणिका : प्रवचन 1 - हंसते व जीवंत धर्म के प्रतीक कृष्ण    2 प्रवचन 2 - इहलौकिक जीवन के समग्र स्वीकार के प्रतीक कृष्ण    22 प्रवचन 3 - सहज शून्यता के प्रतीक कृष्ण    53 प्रवचन 4 - स्वधर्म-निष्ठा के आत्यंतिक प्रतीक कृष्ण    72 प्रवचन 5 - "अकारण'’ के आत्यंतिक प्रतीक कृष्ण    96 प्रवचन 6 - जीवन के बृहत् जोड़ के प्रतीक कृष्ण    110 प्रवचन 7 - जीवन में महोत्सव के प्रतीक कृष्ण    141 प्रवचन 8 - क्षण-क्षण जीने के महाप्रतीक कृष्ण    167 प्रवचन 9 - विराट जागतिक रासलीला के प्रतीक कृष्ण    196

होश की साधना - ओशो || मुल्ला नसीरुद्दीन पर ओशो || Osho Jokes in Hindi

होश की साधना - ओशो   एक सुंदर अध्यापिका की आवारगी की चर्चा जब स्कूल में बहुत होने लगी तो स्कूल की मैनेजिंग कमेटी ने दो सदस्यों को जांच-पड़ताल का काम सौंपा। ये दोनों सदस्य उस अध्यापिका के घर पहुंचे। सर्दी अधिक थी, इसलिए एक सदस्य बाहर लान में ही धूप सेंकने के लिए खड़ा हो गया और दूसरे सदस्य से उसने कहा कि वह खुद ही अंदर जाकर पूछताछ कर ले। एक घंटे के बाद वह सज्जन बाहर आए और उन्होंने पहले सदस्य को बताया कि अध्यापिका पर लगाए गए सारे आरोप बिल्कुल निराधार हैं। वह तो बहुत ही शरीफ और सच्चरित्र महिला है। इस पर पहला सदस्य बोला, "ठीक है, तो फिर हमें चलना चाहिए। मगर यह क्या? तुमने केवल अंडरवीयर ही क्यों पहन रखी है? जाओ, अंदर जाकर फुलपेंट तो पहन लो।" यहां होश किसको? मुल्ला नसरुद्दीन एक रात लौटा। जब उसने अपना चूड़ीदार पाजामा निकाला तो पत्नी बड़ी हैरान हुई; अंडरवीयर नदारद!! तो उसने पूछा, "नसरुद्दीन अंडरवीयर कहां गया?" नसरुद्दीन ने कहा कि अरे! जरूर किसी ने चुरा लिया!! अब एक तो चूड़ीदार पाजामा! उसमें से अंडरवीयर चोरी चला जाए और पता भी नहीं चला!! चूड़ीदार पाजामा नेतागण पहनते

भक्ति सूत्र -ओशो। Narad Bhakti Sutra Pdf file

भक्ति सूत्र           -ओशो। Narad Bhakti Sutra Pdf file अनुक्रम :- १. परम प्रेमरूपा है भक्ति २. स्वयं को मिटाने की कला है भक्ति ३. बड़ी संवेदनशील है भक्ति ४. सहजस्फूर्त अनुशासन है भक्ति ५. कलाओं की कला है भक्ति ६. प्रसादस्वरूपा है भक्ति ७. योग और भोग का संगीत है भक्ति ८. अनंत के आंगन में नृत्य है भक्ति ९. हृदय का आंदोलन है भक्ति १॰. परम मुक्ति है भक्ति ११. शून्य की झील में प्रेम का कमल है भक्ति १२. अभी और यहीं है भक्ति १३. शून्य का संगीत है प्रेमा-भक्ति १४. असहाय हृदय की आह है प्रार्थना-भक्ति १५. हृदय-सरोवर का कमल है भक्ति १६. उदासी नहीं–उत्सव है भक्ति १७. कान्ता जैसी प्रतिबद्धता है भक्ति १८. एकांत के मंदिर में है भक्ति १९. प्रज्ञा की थिरता है मुक्ति २॰. अहोभाव, आनंद, उत्सव है भक्ति Book:- Narad Bhakti Sutra Osho Language :-Hindi Size :- 3mb 440 pages Download Bhakti Sutra Pdf (भक्ति सूत्र) भक्ति-सूत्र : एक झरोखा भक्ति यानी प्रेम–ऊर्ध्वमुखी प्रेम। भक्ति यानी दो व्यक्तियों के बीच का प्रेम नहीं, व्यक्ति और समाष्टि के बीच का प्रेम। भक्

संयमित आहार के सूत्र || भोजन करने का सही तरीका - ओशो

संयमित आहार के सूत्र - ओशो  मेरे पास बहुत लोग आते हैं ,   वे कहते हैं ,   भोजन हम ज्यादा कर जाते हैं ,   क्या करें ?   तो मैं उनसे कहता हूं ,   होशपूर्वक भोजन करो। और कोई   डाइटिंग   काम देनेवाली नहीं है। एक दिन ,   दो दिन   डाइटिंग   कर लोगे जबर्दस्ती ,   फिर क्या होगा ?   दोहरा टूट पड़ोगे फिर से भोजन पर। जब तक कि मन की मौलिक व्यवस्था नहीं बदलती ,   तब तक तुम दो-चार दिन उपवास भी कर लो तो क्या फर्क पड़ता है! फिर दो-चार दिन के बाद उसी पुरानी आदत में सम्मिलित हो जाओगे। मूल आधार बदलना चाहिए। मूल आधार का अर्थ है ,   जब तुम भोजन करो ,   तो होशपूर्वक करो ,   तो तुमने मूल बदला। जड़ बदली। होशपूर्वक करने के कई परिणाम होंगे। एक परिणाम होगा ,   ज्यादा भोजन न कर सकोगे। क्योंकि होश खबर दे देगा कि अब शरीर भर गया। शरीर तो खबर दे ही रहा है ,   तुम बेहोश हो ,   इसलिए खबर नहीं मिलती। शरीर की तरफ से तो इंगित आते ही रहे हैं। शरीर तो यंत्रवत खबर भेज देता है कि अब बस ,   रुको। मगर वहां   रुकनेवाला   बेहोश है। उसे खबर नहीं मिलती। शरीर तो टेलीग्राम दिये जाता है ,   लेकिन जिसे मिलना चाहिए वह सोया ह

प्यास और संकल्प | ध्यान सूत्र - ओशो

संकल्प कैसे लें - ओशो 1. सबसे पहली बात ,  सबसे पहला सूत्र , जो स्मरण रखना है ,  वह यह कि आपके भीतर एक वास्तविक प्यास है ?  अगर है ,  तो आश्वासन मानें कि रास्ता मिल जाएगा। और अगर नहीं है , तो कोई रास्ता नहीं है। आपकी प्यास आपके लिए रास्ता बनेगी। 2. दूसरी बात ,  जो मैं प्रारंभिक रूप से यहां कहना चाहूं ,  वह यह है कि बहुत बार हम प्यासे भी होते हैं किन्हीं बातों के लिए ,  लेकिन हम आशा से भरे हुए नहीं होते हैं। हम प्यासे होते हैं , लेकिन आशा नहीं होती। हम प्यासे होते हैं , लेकिन निराश होते हैं। और जिसका पहला कदम निराशा में उठेगा ,  उसका अंतिम कदम निराशा में समाप्त होगा। इसे भी स्मरण रखें , जिसका पहला कदम निराशा में उठेगा ,  उसका अंतिम कदम भी निराशा में समाप्त होगा। अंतिम कदम अगर सफलता और सार्थकता में जाना है ,  तो पहला कदम बहुत आशा में उठना चाहिए। 3. तीसरी बात ,  साधना के इन तीन दिनों में आपको ठीक वैसे ही नहीं जीना है ,  जैसे आप आज सांझ तक जीते रहे हैं। मनुष्य बहुत कुछ आदतों का यंत्र है। और अगर मनुष्य अपनी पुरानी आदतों के घेरे में ही चले ,  तो साधना की नई दृष्टि खोलने म