अन्यथा क्यों कोई नारी से डरेगा? नारी में क्या डराने वाला है? लेकिन शंकराचार्य डर रहे हैं नारी से। यह शंकराचार्य के संबंध में सूचना है,नारी के संबंध में नहीं।
मेरे संन्यासी को तो कोई नारी डराए! मेरा संन्यासी कभी यह न कहेगा कि मैं नारी से डरता हूं। और नारी से डरता हो तो मेरा संन्यासी नहीं। क्या डराएगी नारी? न मेरी नारियां,संन्यासिनियां डरती हैं पुरुषों से। क्या डरना है इनसे! अरे आदमी जैसे आदमी हैं, कोई जंगली जानवर हैं? क्या करेंगे? आदमी जैसे आदमी हैं,स्त्रियां जैसी स्त्रियां हैं। आदमी और स्त्रियां कोई अलग-अलग नहीं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। क्या डरना? किससे डरना? क्यों डरना?
मगर भय पैदा होता है दमन से। और एक दफा दमन का रोग भीतर लग जाए तो जितना भय पैदा होता है, फिर दुष्टचक्र पैदा हो जाता है--भय पैदा होता है तो और दबाते हैं; और दबाते हैं तो और भय पैदा होता है; और भय पैदा होता है तो और दबाते हैं। बस अब कोल्हू के बैल बने, अब इसके बाहर निकलना बहुत मुश्किल है, जब तक कि मेरे जैसा कोई दीवाना न मिल जाए। कि तुम लाख कहो हमें नहीं निकलना है, मगर वह निकाल ही ले। तुम कितना ही चिल्लाओ कि मैं नारी से डरता हूं, वह दो-चार नारियों को तुम्हारे पीछे लगा दे कि होने दो रासलीला; कि आद्य शंकराचार्य कुछ भी कहें, तुम तो बजाओ बांसुरी, बजने दो घूंघर, उठने दो पायल, छेड़ दो वीणा! कितनी देर डरेंगे बेचारे, थोड़ी देर में शांत होकर बैठ जाएंगे कि अब करना क्या! अब ये नारियां मानती ही नहीं, इन्होंने वीणा छेड़ ही दी और घूंघर बज ही रहे हैं, तो क्या डरना!
लेकिन ऋषि-मुनि डरते रहे, सदा से डरते रहे। ऋषि-मुनियों को डराने के लिए इंद्र एक ही काम करता रहा है कि बस कोई ऋषि-मुनि बेचारे ध्यान करने बैठे हैं--पता नहीं इन गरीबों के पीछे क्यों--कि बस आ गई उर्वशी, कि भेज दी मेनका। और मेनका आए और उर्वशी आए और ऋषि-मुनि चूक जाएं, हो नहीं सकता। लाख कसमें खाई थीं, सब भूल-भाल जाते हैं। एकदम धूनी वगैरह छोड़ कर खड़े हो जाते हैं, नहा-धो कर साज-शृंगार कर लेते हैं कि बाई ठहर,आया! कि अरे देखेंगे फिर, साधना की जल्दी क्या है, तपश्चर्या अगले जनम में कर लेंगे, जनम-जनम पड़े हैं! तभी तो हमने जन्मों की खोज की है कि चौरासी करोड़ योनियां हैं, क्या जल्दी है! और मेनका फिर आई न आई, कोई दूसरे ऋषि-मुनि के पास भेज दी गई। अरे हजारों ऋषि-मुनि हैं! कोई ज्यादा देर सिर के बल खड़ा रहा, किसी ने लंबा उपवास कर दिया, कोई कांटों के बिस्तर पर लेट गया, आई मेनका न आई। अब आ ही गई घर, घर आए मेहमान को कभी विदा नहीं करना चाहिए। अरे मेहमान तो देवता है, जब आ ही गया तो अब आ ही गया।
ऋषि-मुनियों को भ्रष्ट करने का एक ही उपाय रहा है कि मेनका को भेज दो। यह भी बड़ी अजीब बात है। कोई पहलवान को भेजते कि उनको देता दचके, पटकनी मारता, दुलत्ती झाड़ता, तो भी समझ में आता; हड्डी-पसली तोड़ता। भेजी मेनका!
मेरे संन्यासी के पास तो भेजे इंद्र! इधर मैं रोज इंद्र से कहता हूं कि कुछ भेजो! तो कई दफे इंद्र महाराज खुद छिपे हुए आते हैं, मेनका वगैरह को साथ ही नहीं लाते। क्योंकि मेनका वगैरह को साथ लाएं तो फिर इधर-उधर देख न पाएं। क्योंकि वह मेनका हुद्दे मारे कि यह इधर-उधर क्यों देख रहे हो? तुम इस स्त्री को इतने गौर से क्यों देख रहे हो? अकेले आते हैं, छिप कर आते हैं। कई-कई रूप में आते हैं।
यह शंकराचार्य को क्या डर है नारी से? नारी ने क्या किसी का बिगाड़ा है?
नहीं, अगर मुझसे पूछोगे तो विश्वास योग्य कौन नहीं है? मैं कहूंगा, अहंकार। तब तो कुछ बात आध्यात्मिक होती है।
यह क्या गैर-आध्यात्मिक उत्तर! गूंगा कौन?उचित बात कहने में जो समर्थ नहीं। बहरा कौन? जो सुपथ्य वचन नहीं सुनता। डरना किससे? नारी से। ये आध्यात्मिक बातें हैं?
अहंकार एकमात्र चीज है जिस पर अविश्वास करो, जिससे सारा विश्वास अलग कर लो, जिस पर संदेह करो। क्योंकि संदेह की अग्नि में अगर अहंकार जल जाए तो तुम्हारी आत्मा प्रकट हो सकती है।
आपुई गई हिराय-(प्रश्नत्तोर)-प्रवचन-02
दिनांक 02-फरवरी, सन् 1981,
ओशो आश्रम, पूना।
प्रवचन-दुसरा-(धर्म तो आंख वालों की बात है)
Thanx a lot for uploading
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