मृत्यु का बोध और जीवन दर्शन
एक आदमी पागल हो गया था। पागलपन भी उसका बड़ा अजीब था। बहुत बीमार था और चिकित्सकों ने कह दिया कि अब बचने की उम्मीद नहीं। परिवार के लोग इकट्ठे हो गए,मित्र, प्रियजन, पड़ोसी आ गए। इधर घड़ी की टक-टक और उधर आदमी का डूबता जाना। चिकित्सकों ने तो समय भी बता दिया था कि ठीक छह बजे आदमी मर जाएगा। उसको भी पता था। वह भी घड़ी पर आंखें लगाए था। ठीक छह बजे उसने आंखें बंद कर लीं। मरा तो नहीं। मगर जीवन-दर्शन, एक पक्की धारणा। थोड़ा शक-शुबहा भी हुआ, हिल-डुल कर भी देखा,थोड़ी-बहुत आंख भी खोल कर देखी होगी कि घड़ी भी दिखाई पड़ती है, लोग भी दिखाई पड़ते हैं।
लेकिन पत्नियों को तो आप जानते ही हैं। पत्नी पास में ही बैठी थी, उसने कहा, आंख बंद करो! अरे मर कर और आंख खोलते हो, शर्म नहीं आती? और जब चिकित्सक ने कहा है, और सबसे बड़े चिकित्सक ने कहा है, और हजार रुपया फीस भरी है, तो कोई झूठ थोड़े ही कहेगा। तुम मर चुके। और ऐसा कोई पति है जो पत्नी की न माने? मान लिया बेचारे ने। मर गया बेचारा।
मगर ऐसे कहीं मौत आती है। आंखें बंद किए पड़ा है। रात भर यूं ही पड़ा रहा। लेकिन मोहल्ले के लोगों ने इनकार कर दिया कि इसको हम जलाएंगे नहीं, यह आदमी जिंदा है। मजबूरन पत्नी को भी मानना पड़ा, चिकित्सक को भी बुलाना पड़ा। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। वह आदमी रात भर इसी जीवन-दर्शन में जीया कि मैं मर चुका, कि मैं मर ही चुका। सुबह जब चिकित्सक ने कहा कि भाई गणित बैठा नहीं,निदान ठीक नहीं आया, चमत्कार समझो, ईश्वर की अनुकंपा समझो, तुम बच गए।
उसने कहा, अब देर हो गई। मैं तो मर चुका। आप किससे बातें कर रहे हैं?
चिकित्सक ने कहा, तुम जिंदा हो।
उस आदमी ने कहा कि आप वहम में हैं। हो सकता है मैं भूत हो गया होऊं, प्रेत हो गया होऊं। मुझे भी शक होता था पहले, लेकिन अब मुझे पक्का भरोसा आ गया है कि मैं मर चुका हूं।
अब एक मुसीबत खड़ी हुई कि इसे कैसे भरोसा दिलाया जाए कि यह आदमी जिंदा है। पत्नी ने चिकित्सक से कहा कि आपने ही यह झंझट खड़ी की, अब आप ही सुलझाओ। और जो फीस लेनी हो ले लेना, मगर इसका जीवन-दर्शन बदलो। वह उठे ही नहीं। नाश्ता तैयार है, वह उठे ही नहीं। दफ्तर जाने का वक्त हो गया है, वह उठे ही नहीं। सच पूछो तो उसे मजा भी बहुत आने लगा कि यह भी खूब रही! न दफ्तर जाना है, न कोई चिंता, न कोई फिक्र, अपने बिस्तर पर लेटे हैं। यह तो जीवन से भी बेहतर हो गया। अरे तड़फते थे एक-एक दिन के लिए छुट्टी मिल जाए, यूं छुट्टी मिल गई सारी चिंताओं से।
मगर पत्नी-बच्चे परेशान, रिश्तेदार परेशान,चिकित्सक के पीछे पड़े कि अब तुम ही कुछ करो। चिकित्सक ने बहुत समझाया, सब तरह से समझाया, मगर वह आदमी माने ही न। आखिर चिकित्सक ने कहा, एक काम करो। उठाया उसे,बामुश्किल चार आदमियों ने सहारा देकर उठाया, और कहा कि मैं तुमसे एक बात पूछता हूं। जब आदमी मर जाता है, तो अगर उसका हाथ काटो या छुरी से कहीं निशान बनाओ तो खून निकलता है या नहीं?
उस आदमी ने कहा, मरे हुए आदमी से कैसे खून निकलेगा? खून तो पानी हो जाता है।
चिकित्सक ने कहा कि तब ठीक है। अब तुम आओ दर्पण के सामने। उसको पकड़ कर दर्पण के सामने लाया गया। वह तो आता ही नहीं था। वह तो कहे, मैं कैसे आऊं? अरे मरे आदमी ने कभी दर्पण देखा है? कभी सुना है, कोई उल्लेख है? मगर पकड़ कर लाया गया, तो मुर्दा था तो रुक भी नहीं सकता था, आना पड़ा। चिकित्सक ने उठाया चाकू और उसके हाथ को जरा सा काटा, खून निकलने लगा। दिखाया कि देख,आईने में देख, हाथ में देख, खून गिर रहा है। अब तेरा क्या कहना है?
उस आदमी ने कहा कि इससे सिद्ध होता है कि वह धारणा गलत थी कि मरे आदमी में खून नहीं होता। होता है! इससे सिद्ध हो रहा है कि आदमी मर जाता है, मगर खून नहीं मरता।
जब तुम्हारी एक धारणा मजबूत हो जाती है,जब तुम उसे जकड़ कर पकड़ लेते हो, तो तुम हर चीज को उसी ढांचे में ढालना शुरू कर देते हो।
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