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ध्यान और गर्भकाल - ओशो

ध्यान और गर्भकाल - ओशो 




भगवान श्री, गर्भ से पहले और गर्भकाल में यदि माता-पिता ध्यान करते हैं, तो बच्चे पर इसका क्या असर पड़ता है?  निश्चित ही, बच्चे का जीवन जन्म के बाद शुरू नहीं होता। वह तो गर्भाधारण के समय ही शुरू हो जाता है। उसका शरीर ही नहीं बनता मां के पेट, उसका मन भी बनता है, उसका हृदय भी बनता है। मां अगर दुखी है, परेशान है, चिंतित है, तो ये घाव बच्चे पर छूट जाएंगे और ये घाव बहुत गहरे होंगे, जिनको वह जीवन भर धोकर भी न धो न सकेगा। मां अगर क्रोधित है, झगड़ता है, हर छोटी-मोटी बात का बतंगड़ बना बैठती है, इस सबके परिणाम बच्चे पर होने वाले हैं। पति का तो बहुत कम असर बच्चे पर होता है, न के बराबर। निन्यानबे प्रतिशत तो मां ही निर्माण करती है बच्चे का, इसलिए जिम्मेवारी उसकी ज्यादा है। पिता तो एक सामाजिक संस्था है।
एक जमाना था, पति नहीं था, और एक जमाना फिर होगा, पिता नहीं होगा। लेकिन मां पहले भी थी, और मां बाद में भी होगी।  मां प्राकृतिक है, पिता सामाजिक है।  पिता एक संस्था है। उसका काम बहुत ही साधारण है जो कि एक इंजेक्शन से भी किया जा सकता है। और इंजेक्शन से ही किया जाएगा भविष्य में। क्योंकि इंजेक्शन से ज्यादा बेहतर ढंग से किया जा सकता है।  एक संभोग में पुरुष करीब एक करोड़ जीवाणुओं को स्त्री गर्भ की ओर छोड़ता है। जिनमें से एक इस दौड़ में मां के अंडे तक पहुंच पाता है। जो पहले पहुंच जाता है, वह प्रवेश कर जाता है। और अंडा बंद हो जाता है। बाकी जो एक करोड़ जीवाणु हैं, वे दो घंटे भीतर मर जाते हैं। उनकी उम्र दो घंटे है। भयंकर दौड़ है, और लंबी है। अगर अनुपात से हम देखें, अगर आदमी की ऊंचाई हम छह फुट मान लें, तो जीवाणु इतने छोटे हैं कि मां के गर्भ तक पहुंचने का मार्ग दो मील लंबा हो जाता है। इस दो मील लंबे मार्ग पर भयंकर प्रतिस्पर्धा है। इसे मैं राजनीति की शुरुआत कहता हूं। इसमें जो पहुंच जाते हैं, वे जरूरी रूस से श्रेष्ठ नहीं हैं।  संभव है, वे जो एक करोड़ पीछे छूट गए, उनमें कोई अल्बर्ट आइन्स्टीन हो, कोई रवींद्रनाथ टैगोर हो, कोई गौतम बुद्ध हो। कोई भी नहीं जानता कि कौन छूट गए। और जो पैदा हुआ है, वह आकस्मिक है। यह हो सकता है कि चूंकि वह आगे था, इसलिए पहुंच गया। यह हो सकता है कि वह ज्यादा शक्तिशाली था, इसलिए पहुंच गया। लेकिन ज्यादा शक्तिशाली होना, किसी को रवींद्रनाथ नहीं बनाता। रवींद्रनाथ खुद अपने मां बाप के तेरहवें बेटे थे।
यह संयोग की बात है कि इस लंबी दौड़ में रवींद्रनाथ पहुंच सके। अक्सर यह होता है कि रवींद्रनाथ जैसे लोग, या गौतम बुद्ध जैसे लोग, या अल्बर्ट आइन्स्टीन जैसे लोग न तो बहुत दौड़ने में उत्सुक होंगे, न बहुत प्रतिस्पर्धा में उत्सुक होंगे। शायद मनुष्य का श्रेष्ठतम हिस्सा हम व्यर्थ ही खो रहे हैं- जो कि आसानी से चुना जा सकता है। यह काम विज्ञान करने को है। एक करोड़ जीवाणुओं में से जब हम श्रेष्ठतम को चुन सकते हैं, तब क्यों नंबर दो को, नंबर तीन के लोगों को जगह दी जाए।  इसलिए पिता का काम तो समाप्त होने के करीब है। लेकिन मां का काम अपरिहार्य है। गर्भाधान के समय... और यही मेरी पूरी शिक्षा रही है, जिसको हर भंाति से विकृत करके उपस्थित किया गया है। मेरी सारी शिक्षा यही रही है काम वासना मनुष्य के जीवन का प्रारंभ है, मनुष्य के जीवन का सब कुछ है। और काम वासना को दबाने की बजाय, उसे हम कैसे सुंदर श्रेष्ठ बनाएं और शिवत्व की ओर ले चलें, कैसे उसका रूपांतरण हो सके, इस संबंध में चिंतन होना चाहिए। दमन से तो केवल हम रुग्ण व्यक्ति पैदा करते हैं।  और ध्यान प्रक्रिया है व्यक्ति की कामवासना के परिवर्तन की।  अगर काम-वासना के क्षणों में स्त्री और पुरुष दोनों ही शांत हैं, मौन हैं, एक-दूसरे में ऐसे लीन हैं कि जैसे कहीं कोई दीवार न हो- उस क्षण मग समय जैसे रुक गया, जैसे दुनिया भूल गई, न कोई विचार है, न कोई धारणा है, बस एक आनंद है, एक ज्योति है, जिसमें दोनों डूब गए हैं। ऐसे ज्योतिर्मय क्षण से मगर बच्चे का जन्म हो तो हमने पहले ही कदम पर उसे महापाठ सिखा दिया। हमने उसे सिखा दिया कि कैसे अंधकार से ज्योति की ओर जाया जाता है। हमने उसे पहला ध्यान का अनुभव दे दिया कि कैसे सब कुछ मौन और शांत और आनंद से परिपूरित हो सकता है।
और अगर मां पूरे नौ महीने बच्चे को ध्यान में रखकर चले, ऐसा कुछ भी न करे जो ध्यान के विपरीत है, और ऐसा सब कुछ करे जो ध्यान के लिए सहयोगी है। तो निश्चित इन नौ महीनों में किसी भी बुद्ध को जन्म दिया जा सकता है और इन नौ महीनों में उस प्रेम का अनुभव, शंाति का अनुभव, ज्योति का अनुभव हो। इन नौ महीनों में अगर उसे सिर्फ एक ही ही बात का अनुभव हो अपनी आत्मशक्ति का, तो वह बच्चा पैदा होते ही साधारण बच्चा नहीं होगा। वह असाधारण होगा। और हमने उसके जीवन की बुनियाद रख दी है। और अब जो मंदिर खड़ा होगा उस बुनियाद पर, वह बुनियाद से भिन्न नहीं हो सकता।  इसलिए जब भी कोई मां-बाप अपने बच्चों के प्रति मुझसे शिकायत करने आते हैं, तो मैंने उन्हें कहा है कि तुम्हें चाहे बुरा लगे, अगर जिम्मेवार तुम हो। तुमने गलत बुनियाद रखी होगी। आज तुम्हारा बच्चा डकैत है, आज तुम्हारे बच्चे ने खून किया है, तो तुम कहो कि नौ महीने में जब बच्चा गर्भ में था, तुमने क्या किया था उसको ऐसी बुनियाद देने का, जिसमें डकैती असंभव हो। शायद तुमने सोचा भी नहीं था।  निश्चय ही ध्यान जीवन के प्रत्येक अनुभव में उपयोगी है। और जन्म तो जीवन की सब से बड़ी घटना है।  और ध्यान प्रेम के क्षण में सब से सरल, सब से सुगम बात है।  क्योंकि प्रेम के क्षण में सहज ही विचार खो जाते हैं और एक तल्लीनता छा जाती है। और एक सन्नाटा घेर लेता है। और एक प्रतीति होती है, जैसे हम भिन्न नहीं हैं अस्तित्व से, जैसे हम एक हैं। यह विचार केवल भारत में पैदा हुआ।  अगर भारत ने दुनिया को कोई भी चीज दी है, जिसको वह कह सके कि वह बिल्कुल उसकी अपनी है, तो वह है- तंत्र शास्त्र।  और तंत्र शास्त्र का सारा आधार एक है कि कैसे काम- ऊर्जा और ध्यान-ऊर्जा को एक कर दिया जाए।
और मैं अपने पूरे जीवन उस बात को दोहराता रहा हूं। लेकिन लोग अजीब हैं। आंखें हैं और आंखें नहीं हैं। कान हैं और कान नहीं हैं। और बीच में मध्यस्थ हैं उन्हें समझाने वाले।  मेरी एक-एक बात को गलत करके समझाया गया है। जब कि मैं मौजूद हूं और मुझसे पूछा जा सकता है। लेकिन किसी को फिकिर नहीं पड़ी सत्य को जानने की। लोगों को फिकिर सिर्फ एक बात की है कि उनकी धारणाओं पर कोई चोट न आए। फिर चाहे उनकी धारणाएं उन्हें गरीबी में ले जाएं, उनकी धारणाएं उन्हें अपराध में ले जाएं, उनकी धारणाएं उन्हें मनुष्य से गिरा दें और पशुता में ले जाएं; वह सब ठीक। लेकिन कोई उनकी धारणाओं को न छुए। उनकी धारणाएं बड़ी दुई-मुई हैं। और मेरा एक ही अपराध पूरे जीवन में कि उनकी हर धारणा को, जो उन्हें गिराती हैं किसी भी तरह, उनसे छुटकारा दिला दूं।  यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात होगी कि हर युगल इसे अपनी कसम बना ले कि जब तक वह ध्यान में समर्थ नहीं हो जाता, किसी बच्चे को जन्म नहीं देगा। क्योंकि क्या फायदा है चंगेजखां, और नादिरशाह और एडोल्फ हिटलर और मुसोलिनी, इन को पैदा करने से? अगर पैदा ही करना है तो कुछ पैदा करने योग्य- कोई बुद्ध कोई महावीर, काई नागार्जुन, कोई जो तुम्हारी प्रतिभा को निखार देगा, आगे ले चलेगा। अगर उसके लिए पहले तो मां-बाप को तैयार होना पड़ेगा।  और जब तक कोई ध्यान में स्वयं परिपक्व न हो जाए, उसे अधिकार नहीं मिलता बच्चे पैदा करने का।  और मेरा अपना अनुभव यह है हजारों लोगों के साथ काम करने का कि अगर पुरुष और स्त्री दोनों ध्यान में रसमग्न होना सीख गए हैं, तो संभोग के क्षण में उन करोड़ों जीवाणुओं में से केवल वही जीवाणु मां के अंडे तक पहुंचने में समर्थ होगा, जो उनके ध्यान के साथ एकरसता अनुभव कर रहा है।
क्यों कि उनका ध्यान, उन दोनों की शक्ति, उसे शक्ति देगा। वह और सबको पीछे छोड़ जाएगा, वह उसकी गति बन जाएगी।  ध्यान के बिना बच्चों को पैदा करना, जीवन-ऊर्जा को व्यर्थ नष्ट करना है।  भगवान, दुनिया भर में जन-संख्या विस्फोट है। मैंने सुना है कुछ लोगों को यह कहते हुए कि धरती पर जब मनुष्यों का भार बढ़ जाता है तो प्रकृति उसे सहन नहीं करती। इसमें क्या सच्चाई हैं?  मनुष्य की सब से बड़ी नासमझी यह है कि वह हमेशा अपने कर्मों का दोष किसी और पर टाल देना चाहता है। जैसे इस कहावत में कि जब लोगों की संख्या बहुत बढ़ जाती है...ऐसा लगता है कि संख्या अपने आप बढ़ जाती है, जैसे हमारा इसमें कोई हाथ नहीं। जैसे हम तो दूर खड़े देख रहे हैं, संख्या बढ़ रही है। तो प्रकृति खुद बदला लेती है। तो भी हम बदले को प्रकृति पर टाल रहे हैं। सच्चाई यह है कि संख्या बढ़ाते हैं। और संख्या का बढ़ना अपने आप में बदला बन जाता है।  न तो परमात्मा संख्या बढ़ाता है, न तो प्रकृति संख्या बढ़ाती है, और प्रकृति बदला लेती है। हम जिम्मेवार हैं।  मगर हमारी कहावतें बड़ी होशियारी से भरी हैं। हालांकि सिवाय नासमझी के उनमें कुछ भी नहीं, हम अपने को दूर ही रख लेते हैं। ऐसी बहुत कहावत हैं। जब प्रकृति पर पाप बढ़ जाते हैं, तो परमात्मा जन्म लेते हैं। पाप जैसे अपने आप बढ़ जाते हैं। और तब भी हमसे कुछ किए नहीं होता, तब भी परमात्मा को जन्म लेना पड़ता है।  और कितनी बार परमात्मा जन्म ले चुका। और पाप घटते नहीं। लगता है परमात्मा की भी कोई सामथ्र्य नहीं है इन पापों को घटाने की। दुनिया की कोई शक्ति इन पापों को नहीं घटा सकती, क्योंकि बढ़ाने वाला मौजूद है, और बढ़ाने वाले हम हैं।
जीवन में सब से बड़ा धार्मिक कृत्य मैं इस बात को मानता हूं कि व्यक्ति अपनी जिम्मेवारी को परिपूर्णता से स्वीकार करे। यह अंगीकार करे कि जो भी हम कर रहे हैं, वह हम कर रहे हैं, और जो भी परिणाम आएगा, वह हम ला रहे हैं। यह बात तीर की तरह प्रत्येक हृदय में चुभ जानी चाहिए। तो निश्चित ही बदलाहट हो सकती है। क्योंकि यदि हम ही कर रहे हैं, तो हम रोक सकते हैं। यदि हम ही ला रहे हैं गलत परिणाम, दुष्परिणाम, तो क्यों न बीज से ही बात को काट दिया जाए।  लेकिन ये कहावतें हमें सहारा देती हैं कि हम बैठ कर देखते रहें। जनसंख्या बढ़ती रहेगी, घबड़ाने की कोई बात नहीं। प्रकृति तो हमारे भार के तले दबी जाती है। एक सीमा है हर चीज की। जैसे बुद्ध के समय में भारत की कुल आबादी दो करोड़ थी। देश संपन्न था, सुखी था, आनंदित था और जीवन की ऊंचाई की बातें करता था। और ऊंचाई से ऊंचाई तक उड़ने की चेष्टा की थी। सारी दुनिया में एक ही बात जानी जाती थी कि भारत एक सोने की चिड़िया है।  बुद्ध के बाद हमारा पतन शुरू होता है। और मैं बुद्ध को और महावीर को माफ नहीं कर सकता। मैं उन्हें आदर करता हूं, सम्मान करता हूं लेकिन माफ नहीं कर सकता। चाहे अनजाने ही सही, उन्होंने भारत की गरीबी को बढ़ने में सहायता दी है। क्योंकि उन दोनों ने यह बात सिखायी कि दुनिया को त्याग देने में ही धर्म है। और अगर लोग दुनिया को त्यागने लगें, किसान खेती को त्याग दे, दुकानदार दुकान को त्याग दे, मूर्तिकार मूर्तियां न बनाएं, लोग अगर त्यागने लगें दुनिया को तो स्वभावतः दुनिया दरिद्र हो जाएगी। क्योंकि दुनिया को हम बनाते हैं।
दुनिया हमारे सृजन पर निर्भर है।  और इन दोनों व्यक्तियों ने एक बात सिखायी कि तुम सब छोड़-छाड़ कर संन्यासी हो जाओ। हजारों लोग सब छोड़-छोड़कर संन्यासी हो गए। उन हजारों लोगों से जो उत्पादन होता था, जो सृजन होता था, वह बंद हो गया। उन हजारों लोगों की पत्नियां और बच्चे अनाथ और भूखे हो गए। और वे हजारों लोग शेष सारी जनता पर बोझ हो गए। क्योंकि भिक्षा कौन देगा? वस्त्र कौन देगा? एक बहुत ऊंचे दिखने वाले ख्याल के पीछे भारत की पूरी दासता, पूरी गरीबी और पूरी दीनता छिपी है। संसार का त्याग पुण्य हो गया, संन्यास हो गया।  इसलिए मैंने जब संन्यास देना शुरू किया, तो मैंने संन्यास की पूरी परिभाषा बदली। संसार का त्याग नहीं, वरन संसार के बीच रहकर यूं रहना, जैसे कि तुम वहां नहीं हो। संन्यास की मेरी परिभाषा पुराने संन्यास से बिल्कुल उल्टी है। छोड़ना नहीं है कुछ और पकड़ना भी नहीं है कुछ। यूं जीना है, जैसे कोई नाटक में अभिनय करता हो। राम बने, तो भी जानता है कि वह राम नहीं है।  और संसार में रहकर संसार का न होना बड़ी से बड़ी कला है।  छोड़कर भाग जाना तो कमजोरी है और कायरता है। और जो व्यक्ति संसार में यूं रह सके, जैसे अभिनय करता हो, वह अछूता जीता है। उस पर कोई दाग नहीं छूट जाते। और चूंकि उसे कुछ छोड़ना नहीं है, वह जीवन को कुछ देकर जाता है। सुजन करता है। जीवन उससे समृद्ध होता है।
और चूंकि उसे कुछ छोड़ना नहीं है, वह जीवन को कुछ देकर जाता है। सृजन करता है। जीवन उससे समृद्ध होता है। और चूंकि उसकी कोई आसक्ति, कोई लगाव, कोई मोह और कोई बंधन नहीं है संसार से वरन यह उसकी आनंद लीला है।  कोई गरीबी की जरूरत नहीं है और न कोई गुलामी की जरूरत है। मेरे संन्यासी एक समस्या बन गए हैं धर्मों के लिए। क्योंकि उनकी पूरी धारणा संन्यास की जीवन विरोधी है और मेरी धारणा जीवन के प्रति परिपूर्ण ओतप्रोत हो जाने की है।  ये सारी कहावतें बेईमानी हैं। एक बात फिर से मैं दुहरा दूं, यह बात तीर की तरह हमारे हृदय में चुभी रहनी चाहिए कि हर कृत्य के लिए हम जिम्मेवार हैं। और हर कृत्य के परिणाम के लिए हम जिम्मेवार हैं। न तो हम किसी परमात्मा पर और न किसी प्रकृति पर अपने कृत्यों और अपने परिणामों को थोप सकते हैं। एक बार यह बात साफ हो जाए तो इस देश का सारा कचरा कट जाए। इस देश को हम फिर से नया जीवन, पुनरु जीवन दे सकते हैं। और जरूरी है कि वह दिया जाए। इस सदी तक, इसके पूर्ण होने तक, अगर ये इन्हीं धारणाओं से जीता रहा तो ये बुरी तरह मरेगा। इसने बहुत दुख झेले हैं, बहुत गुलामी झेली है, लेकिन अभी अंतिम दुख झेलने को बाकी है। उसे टाला जा सकता है।  और सरल सी बात है कि हमारे जो भी साधन हैं- समाचार पत्र हों, रेडियो हों, टेलीविजन हों, जो भी साधन हैं, जनता तक ठीक-ठीक विचार पहुंचाने के, हम उन विचारों को जनता तक पहुंचने दें। और चिंता न करें। जैसे मेरे विचार हैं। सैकड़ों प्रश्न आएंगे, उनके प्रत्युत्तर देने को राजी हूं।
मैं एक भी प्रश्न हो बिना उत्तर दिए नहीं छोड़ने की बात कर रहा हूं। ये सारे शिक्षा के साधन हो जाने चाहिए। न केवल समाज और समाचार वितरण के, बल्कि सामाजिक क्रंाति के भी। तो जब तुम इन सारी बातों को प्रसारित करोगी, हजारों प्रश्न आएंगे। मैं हमेशा तैयार हूं। जो भी प्रश्न तुम ठीक समझो, जरूरी समझो, उसे सदा मेरे पास ले आ सकती हो।
दिसंबर, अपराह्म, कुल्लू-मनाली 


फिर पत्तों की पाजेब बजी-(प्रवचन-06)


प्रवचन-छट्ठवां


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हंसा तो मोती चूने--(लाल नाथ)-प्रवचन-10 अवल गरीबी अंग बसै—दसवां प्रवचन  दसवा प्रवचन ; दिनाक 20 मई ,  1979 ; श्री रजनीश आश्रम ,  पूना यह महलों ,  यह तख्तों ,  यह ताजों की दुनिया यह इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया  यह दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया  यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है! हर एक जिस्म घायल ,  हर इक रूह प्यासी निगाहों में उलझन ,  दिलों में उदासी यह दुनिया है या आलमे-बदहवासी यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है! यहां इक खिलौना है इन्सां की हस्ती यह बस्ती है मुर्दा -परस्तों की बस्ती यहां पर तो जीवन से है मौत सस्ती यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है! जवानी भटकती है बदकार बनकर जवा जिस्म सजते हैं बाजार बनकर यहां प्यार होता है व्योपार बनकर यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है! यह दुनिया जहां आदमी कुछ नहीं है वफा कुछ नहीं ,  दोस्ती कुछ नहीं है जहां प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है! जला दो उसे फूंक डालो यह दुनिया मेरे सामने से हटा लो यह दुनिया तुम्हारी है तुम ही सम्हालो यह दुनिया

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मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-08) आओ चाँदनी को बिछाएं ,  ओढ़े— प्रवचन—आठवां 8 अक्‍टूबर ,  1978 ; श्री रजनीश आश्रम ,  पूना। आखिरी प्रश्न : मैं अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों में भी उत्सुक हो जाता हूं लेकिन जब मेरी पत्नी किसी पुरुष में उत्सुकता दिखाती है तो मुझे बड़ी ईर्ष्या होती है भयंकर अग्नि में मैं जलता हूं। पु रुषों ने सदा से अपने लिए सुविधाएं बना रखी थीं ,  स्त्रियों को अवरुद्ध कर रखा था। पुरुषों ने स्त्रियों को बंद कर दिया था मकानों की चार दीवारों में ,  और पुरुष ने अपने को मुक्त रख छोड़ा था। अब वे दिन गए। अब तुम जितने स्वतंत्र हो ,  उतनी ही स्त्री भी स्वतंत्र है। और अगर तुम चाहते हो कि ईर्ष्या में न जलों तो दो ही उपाय हैं। एक तो उपाय है कि तुम स्वयं भी वासना से मुक्त हो जाओ। जहा वासना नहीं वहां ईर्ष्या नहीं रह जाती। और दूसरा उपाय है कि अगर वासना से मुक्त न होना चाहो तो कम—से—कम जितना हक तुम्हें है ,  उतना हक दूसरे को भी दे दो। उतनी हिम्मत जुटाओ। मैं तो चाहूंगा कि तुम वासना से मुक्त हो जाओ। एक स्त्री जान ली तो सब स्त्रियां जान लीं। एक प

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