महाराष्ट्र में एक गांव है सिरपुर, जहां आज सत्तर साल से अदालत में एक मुकदमा चल रहा है, दिगंबर और श्वेतांबर जैनों में। सत्तर साल से तो अदालत में चल रहा है, उसके पहले तीस साल तक अदालत के बाहर चला। मतलब पूरे सौ साल हो गए। असल में इसका उत्सव मनाना चाहिए सारे देश में। शताब्दी पूरी हो गई! और गजब का काम, सत्तर साल में सब वकील मर चुके, जिन-जिन ने भी मुकदमा हाथ में लिया दोनों तरफ से। सब मजिस्ट्रेट मर चुके। मजिस्ट्रेट-वकीलों की छोड़ो, सरकार भी बदल चुकी। जिन्होंने मुकदमा शुरू किया था वे मर चुके, उनके बेटे मर चुके। मगर उनके बेटे मुकदमा लड़ रहे हैं। मुकदमा जारी है। और बात यहां तक बढ़ गई कि एक बार मंदिर की महावीर की प्रतिमा तक को अदालत में गवाही देने आना पड़ा। सुनते हो, क्या-क्या गजब होते हैं! मंदिर पर ताला पड़ा हुआ है। झगड़ा क्या है? झगड़ा तुम सुनोगे तो बहुत हंसी आएगी।
झगड़ा लंगोटी का है, क्योंकि श्वेतांबर महावीर को लंगोटी पहना कर पूजते हैं और दिगंबर लंगोटी निकाल कर पूजते हैं। सवाल यह है कि लंगोटी पहनाई जाए कि न पहनाई जाए। फिर जब श्वेतांबर पहना देते हैं तो दिगंबर निकालें तो झगड़ा खड़ा होता है; जब दिगंबर निकाल देते हैं, श्वेतांबर पहनाएं, तो झगड़ा खड़ा होता है कि तुम हमारे भगवान को कैसे लंगोटी पहना रहे हो, वे तो दिगंबर हैं! और श्वेतांबर कहते हैं कि हम बामुश्किल तो लंगोटी पहना पाए–अब पत्थर की बैठी हुई पद्मासन में मूर्ति, उसको लंगोटी पहनाओगे तो दिक्कत तो होगी ही–बामुश्किल तो हम पहना पाए, अब तुम फिर निकालने लगे। रोज का धंधा।
सौ साल पहले यूं व्यवस्था थी कि समय बंटा हुआ था कि इतने घंटे दिगंबर लंगोटी निकाल कर पूजा करें, इतने घंटे श्वेतांबर लंगोटी पहना कर पूजा कर लें। मगर एक दिन बात बिगड़ गई, कोई ज्यादा भक्ति-भाव में आ गए। लंगोटी पहना कर पूजा करते ही गए, करते ही गए। दिगंबर आ गए, उन्होंने कहा, निकालो लंगोटी। वह पूजा चलती ही रही, वे लंगोटी खींचने लगे। बात बिगड़ गई। लकड़ियां चल गईं, लहू बह गया। पुलिस के ताले पड़ गए।
फिर अदालत में सत्तर साल से मुकदमा चल रहा है। तुम हैरान होओगे, सिरपुर की छोटी-सी अदालत का मुकदमा प्रिवी कौंसिल तक जा चुका है। प्रिवी कौंसिल से फिर वापस भेज दिया गया है, क्योंकि निर्णय कैसे हो कि महावीर जो हैं वे लंगोटी पसंद करते हैं कि नहीं? दिगंबर अपने शास्त्र रख कर बताते हैं कि नंगे थे वे। श्वेतांबर अपने शास्त्र बताते हैं कि वे लंगोटी पहने हुए थे। तो फिर आखिर में यही हुआ कि उन्हीं को बुला कर देख लिया जाए। क्योंकि मूर्ति, अगर मूर्ति नंगी है तो जाहिर है कि मूर्ति बनाने वालों ने लंगोटी नहीं बनाई, नहीं तो पत्थर में लंगोटी बनाई होती। इसलिए मूर्ति को अदालत में लाया गया।
देखते हो गजब! गरीब महावीर के साथ क्या व्यवहार किया जा रहा है! एक रिक्शे में बैठ कर चले महावीर स्वामी, अदालत पहुंचे! मजिस्ट्रेटों ने निरीक्षण किया, वकीलों ने जिरह की, बड़ी भीड़-भड़क्का इकट्ठी हुई। मगर कुछ निर्णय करना मुश्किल हो गया। निर्णय करना इसलिए मुश्किल हो गया कि श्वेतांबरियों ने पलास्तर कर दिया। लंगोटी तो थी नहीं, मगर उनके पूरे शरीर पर पलास्तर चढ़ा दिया। अब तब से यह झगड़ा चल रहा है कि पलास्तर किसने चढ़ाया? और पलास्तर निकाला जा सकता है कि नहीं?
झगड़ा जारी रहेगा, इसका कोई अंत नहीं होने वाला है। झगड़ा इतना-सा है, अगर दिगंबर के ध्यान में लंगोटी लगा कर आ जाएं महावीर स्वामी, निकाल धक्के देकर बाहर करेगा कि हट, कमबख्त, यहां कहां चला आ रहा है लंगोटी लगाए? या श्वेतांबरी के मन में ध्यान कर रहे हों बेचारे और महावीर स्वामी चले आएं नंग-धड़ंग तो जल्दी से उठ कर लंगोटी पहना देगा कि भैया, कुछ तो खयाल करो!
स्वाध्याय में चुनाव नहीं किया जा सकता। जो भी मन में चल रहा हो, अच्छा या बुरा, नैतिक या अनैतिक, मान्यता के अनुकूल या प्रतिकूल, तुम निर्विकल्प, निर्विचार बने रहना। चलने देना मन के पर्दे पर, तुम निर्णय न लेना। तुम बैठे देखते रहना शांत-भाव से–निष्पक्ष, तटस्थ। जैसे कोई तट के किनारे बैठा और नदी को बहता देखता रहे, या राह के किनारे बैठा और राह को चलती हुई देखता रहे। अच्छे लोग भी निकलते हैं, बुरे लोग भी निकलते हैं, साधु-महात्मा जा रहे हैं, चोर-लफंगे जा रहे हैं। हालांकि तय करना मुश्किल है कि कौन साधु-महात्मा हैं, कौन चोर-लफंगे हैं। चोर-लफंगे साधु-महात्मा हो सकते हैं, साधु-महात्मा चोर-लफंगे हो सकते हैं। कुछ तय करना इतना आसान नहीं। निकलने दो मगर, तुम्हें क्या लेना-देना है? तुम अपने झाड़ के नीचे बैठे देख रहे हो; हाथी-घोड़े निकल रहे हैं, गधे निकल रहे हैं, सब निकल रहे हैं। गधों पर बैठे हुए भी लोग निकलेंगे।
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