तीसरा प्रश्न: आप भारत देश की महानता के संबंध में कभी भी कुछ नहीं कहते हैं। न ही इस देश के नेताओं की प्रशंसा में कुछ कहते हैं। क्यों?
प्रेम—पंथ ऐसो कठिन-(प्रश्नोत्तर)
प्रवचन—छट्ठवां
चंदूलाल! आप यहां कैसे आ गए? और ढब्बू जी को भी साथ ले आए हैं या नहीं?
गलत दुनिया में आ गए। यहां देशों इत्यादि की चर्चा नहीं होती। आदमी के द्वारा नक्शे पर खींची हुई लकीरों का मूल्य ही क्या है? यहां तो पृथ्वी एक है। यहां कैसा भारत और कैसा पाकिस्तान और कैसा चीन? इस तरह की बातें सुननी हों तो दिल्ली जाओ। यहां कहां आ गए?और यहां ज्यादा देर मत टिकना। यहां की हवा खराब है! कहीं यहां ज्यादा देर टिक गए, नाचने-गाने-गुनगुनाने लगे, तो भूल जाओगे भारत इत्यादि।
जरूरत क्या है भारत की प्रशंसा की? और भारत की प्रशंसा क्यों चाहते हो? अहंकार को तृप्ति मिलती है। पाकिस्तान की प्रशंसा क्यों नहीं? प्रश्न ऐसा क्यों नहीं पूछा कि आप पाकिस्तान की महानता के संबंध में कुछ कभी क्यों नहीं कहते? पाकिस्तान कभी भारत था,अब भारत नहीं है। कभी बर्मा भी भारत था,अब भारत नहीं है। कभी अफगानिस्तान भी भारत था, अब भारत नहीं है। और जो अभी भारत है, कभी भारत रहे, न रहे, क्या पक्का है?तो पानी पर लकीरें क्यों खींचनी? कौन है भारत? किसको कहो भारत? रोज की राजनीति है, बदलती रहती है, बिगड़ती रहती है। आदमी लकीरें खींचता रहता है। आदमी बड़ा दीवाना है। लकीरें खींचने में बड़ा उसका रस है। और जमीन अखंड है। फिर भी उसको खंडों में बांटता रहता है।
हम तो यहां पूरी पृथ्वी के गीत गाते हैं। पूरी पृथ्वी के ही क्यों, पूरे विश्व के गीत गाते हैं। चांदत्तारों की जरूर यहां बात होती है। सूर्यास्त की, सूर्योदयों की जरूर यहां बात होती है। वृक्षों की और फूलों की, नदी और पहाड़ों की, पशुओं और पक्षियों की, और मनुष्यों की जरूर यहां बात होती है। लेकिन यह कोई राजनैतिक अखाड़ा नहीं है, जहां हम भारत की प्रशंसा करें।
और भारत की प्रशंसा के पीछे तुम चाहते क्या हो, चंदूलाल? कि तुम्हारी प्रशंसा हो। कि देखो,भारत कितना महान देश है कि चंदूलाल भारत में पैदा हुए। तुम अगर कहीं और पैदा होते, तो वह देश महान होता। तुम जहां पैदा होते, वही देश महान होता। सभी देशों को यही खयाल है।
जब अंग्रेज पहली दफा चीन पहुंचे, तो चीनी शास्त्रों में लिखा गया कि ये बिलकुल बंदर की औलाद हैं। ये आदमी हैं ही नहीं। ये पक्के बंदर हैं। इनकी शक्ल-सूरत तो देखो! इनके ढंग!
और अंग्रेजों ने क्या लिखा चीनियों के बाबत?कि इनको आदमी मानने में बड़ी कठिनाई है। आंखें ऐसी कि पता ही नहीं चलता कि खुली हैं कि बंद! भौंहें नदारद! दाढ़ी-मूंछ, अगर दाढ़ी में चार-छह बाल हैं तो गिनती कर लो। ये आदमी किस तरह के हैं? इनको हो क्या गया? नाकें चपटी, गाल की हड्डियां उभरी। ये तो एक तरह के केरीकेचर, व्यंग्य-चित्र। जैसे आदमी को उलटा-सीधा बना दो। कुछ भूल-चूक हो गई।
मगर यह सभी के साथ है। जर्मन समझते हैं कि वे सर्वश्रेष्ठ। सारी दुनिया पर उनका हक होना चाहिए। और भारतीय समझते हैं कि वे पुण्यभूमि। यहीं सारे अवतार पैदा हुए। सारे अवतारों ने इसी पुण्यभूमि को चुना--राम ने,कृष्ण ने, बुद्ध ने और महावीर ने। और कहीं पैदा होने को उनको जगह न मिली। और अगर तुम यहूदियों से पूछो, तो यहूदी कहते हैं कि यहूदी ही ईश्वर के द्वारा चुनी गई कौम हैं। ईश्वर ने यहूदियों को चुना है। और अगर ईसाइयों से पूछो, तो वे कहते हैं, ईसा के सिवाय और कोई ईश्वर का असली बेटा नहीं है। बाकी तो सब नकली तीर्थंकर, नकली पैगंबर, नकली अवतार--इनका कोई मूल्य नहीं है। हर देश, हर जाति अपनी प्रशंसा के गीत गाती है। यह बात ही मूढ़तापूर्ण है। यह अहंकार का ही प्रच्छन्न रूप है।
फिर कुछ, चंदूलाल, महान हो तो भी कुछ चेष्टा करो! अब तुम नहीं मानते हो, तो प्रशंसा में कुछ बातें कहता हूं!
जनता का है राज यहां पर, गली-गली खुशहाल है।
ठुकी गरीबों के पांवों में, प्रजातंत्र की नाल है।।
चौराहों पर नेताओं की दादुर जैसी तान है।
मेरा देश महान है।
उल्लू यहां प्रकाश बांटते, सूरज का उपहास है।
गहन अंधेरा नयन-नयन में करता यहां निवास है।।
चमचों के घर यहां पहुंचता सरकारी अनुदान है।
मेरा देश महान है।
खद्दरधारी जीव यहां पर, हर प्राणी को खा रहा।
किंतु अहिंसा की परिभाषा माइक पर चिल्ला रहा।।
मगरमच्छ का यहां हो रहा देवों सा सम्मान है।
मेरा देश महान है।
भ्रष्टाचारी यहां लबादा ओढ़े हैं ईमान का।
बंदूकों की नोक बताती यहां मूल्य इंसान का।।
गाया जाता यहां प्रेम से जोंकों का बलिदान है।
मेरा देश महान है।
नीर-क्षीर का ज्ञान यहां पर कौओं के अधिकार में।
समझे जाते हंस यहां पर बुद्धू हर व्यापार में।।
पृथ्वीराज से बड़ी यहां पर जयचंदों की शान है।
मेरा देश महान है।
नहीं आ रही किसी दिशा से सूरज की आवाज है।
यहां अंधेरे के माथे को मिला अनोखा ताज है।।
लगता है तिनके-तिनके पर बिखरी हुई मसान है।
मेरा देश महान है।
क्या है महान? और क्यूं यह आकांक्षा? सच में जब कोई चीज महान होती है, तो उसकी घोषणा नहीं करनी होती। उसका होना ही प्रमाण होता है। सूरज ऊग आया, प्रमाण हो गया कि सुबह हो गई। कोई बैंड-बाजे बजा कर खबर नहीं करनी पड़ती कि सुबह हो गई। कि भाई जागो,सूरज ऊग आया! कि हे फूलो, अब खिलो, कि सूरज ऊग आया! फूल खिल जाते हैं। पक्षी गीत गाने लगते हैं। लोग जग जाते हैं। सूरज आ गया,बिना कुछ कहे, बिना शोरगुल किए--जरा भी आवाज नहीं करता।
यह तो भीतर कहीं छिपी हुई हीनता का भाव ही है जो हमारे मन में यह आकांक्षा उठाता है--कोई कहे कि महान। यह इनफीरिऑरिटी कांप्लेक्स है। यह भीतर छिपी हुई हीनता की ग्रंथि और बीमारी है कि हम चाहते हैं कि कोई न कोई हमें महान कहे; किसी न किसी कारण से महान कहे। और हम बड़े प्रसन्न होते हैं।
और तुम्हारे नेता होशियार हैं। वे तुम्हारी महानता के गीत गाते रहते हैं। तुम भूखे मर रहे हो, वे महानता के गीत तुम्हें पिलाते हैं। और तुम महानता के गीत पीकर अहंकार में अकड़े हुए,भूल ही जाते हो समस्याओं को। तुम्हारी समस्याएं भुलाने के लिए महानता का गीत अफीम का काम करता है। तो नेता आते हैं तो वे तुम्हारी महानता की...महान भारतीय संस्कृति! सबसे प्राचीन संस्कृति! सबसे धार्मिक संस्कृति!
बात कुछ जंचती नहीं। बात में कुछ सचाई नहीं है। लेकिन तुम्हें सुन कर अच्छी लगती है,प्रीतिकर लगती है; तुम भूल ही जाते हो अपनी भुखमरी, अपनी दीनता, अपना दारिद्रय, अपनी बेईमानी, अपनी चोरी। और तुम भूल जाते हो नेताओं की चोरी और नेताओं की बेईमानी और नेताओं की दगाबाजी। यह महानता का गीत दोनों तरफ लाभ पहुंचाता है। तुम महान, तुम्हारे नेता महान, तुम्हारा देश महान। और हालत?अगर हालत को जरा आंख खोल कर देखो तो बहुत डर लगता है। तो बेहतर यही है, आंख बंद रखो और महानता के गीत गाते रहो। अफीम का नशा है यह।
आदमी आदमी जैसे हैं, सब जगह एक जैसे हैं। आदमी-आदमी में कोई खास फर्क नहीं है। और जो फर्क हैं, वे बहुत ऊपरी हैं। किसी ने बाल ऐसे काट लिए हैं, किसी ने बाल वैसे काट लिए हैं,इन फर्कों से कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई एक भाषा बोलता है, कोई दूसरी भाषा बोलता है,इनसे कुछ फर्क नहीं पड़ता। ये सब ऊपरी बातें हैं। आदमी आदमी जैसा है, सारी जमीन पर एक जैसा है। उसमें कोई गुणात्मक भेद नहीं हैं। अगर कुछ भेद होंगे तो बस संस्कारगत हैं। कोई मंदिर जाता है, कोई मस्जिद जाता है। मगर जाने वाला एक जैसा ही है। मंदिर वाला मंदिर में धोखा दे रहा है, मस्जिद जाने वाला मस्जिद में धोखा दे रहा है। मंदिर में जाने वाला मंदिर में झूठी प्रार्थना कर रहा है, गिरजे में जाने वाला गिरजे में झूठी प्रार्थना कर रहा है। गिरजा और मंदिर अलग। कोई कृष्ण के चरणों में जा रहा है,कोई क्राइस्ट के। मगर वह जो जाने वाला आदमी है, वह एक जैसा आदमी है। उसमें कोई फर्क नहीं है।
ऊपर-ऊपर से तुम कितनी ही धर्म की बातें करो,लेकिन भीतर तुम उतने ही भौतिकवादी हो जितने दुनिया में कोई और लोग। शायद थोड़े ज्यादा ही होओ, कम तो नहीं। तुम्हारी पकड़ चीजों पर उतनी ही है, जितनी किसी और की। सच तो यह है, तुम्हारी थोड़ी ज्यादा है, क्योंकि तुम्हारे पास चीजें कम हैं। तो चीजें कम हों तो उनकी कमी को पकड़ को ज्यादा करके पूरा करना पड़ता है। जिनके पास चीजें बहुत हैं, वे पकड़ेंगे भी तो कितना पकड़ेंगे? वे ज्यादा नहीं पकड़ सकते।
पश्चिम में जहां चीजें बहुत बढ़ गई हैं, उनको तुम कहते हो भौतिकवादी लोग, सिर्फ इसीलिए कि उनके पास भौतिक चीजें ज्यादा हैं। इसलिए भौतिकवादी। और तुम अध्यात्मवादी, क्योंकि तुम्हारे पास खाने-पीने को नहीं है, छप्पर नहीं है,नौकरी नहीं है। यह तो खूब अध्यात्म हुआ! ऐसे अध्यात्म का क्या करोगे? ऐसे अध्यात्म को आग लगाओ।
और जिनके पास चीजें बहुत हैं, उनकी पकड़ कम हो गई है, स्वभावतः। कितना पकड़ोगे?जिनके पास कुछ नहीं है, उनकी पकड़ ज्यादा होती है। जिनके पास सिर्फ लंगोटी है, वे उसको पकड़े बैठे रहते हैं कि वही हाथ से न छूट जाए। और तो कुछ है ही नहीं। लेकिन जिनके पास बड़ा विस्तार है, कुछ छूट भी जाए तो क्या फिकर! उनमें देने की भी क्षमता आ जाती है। बांटने की भी क्षमता आ जाती है। सच तो यह है कि जितनी भौतिक उन्नति होती है, उतना देश कम भौतिकवादी हो जाता है। क्योंकि जो चीज हमारे पास होती है, उस पर हमारी पकड़ कम हो जाती है। जो हमारे पास नहीं होती, उस पर हमारी पकड़ बहुत गहरी होती है, हमारी आकांक्षा बहुत गहरी होती है।
मनुष्य के मन के इस नियम को ठीक से समझ लेना। उलटा लगेगा यह। जो हमारे पास नहीं है,उसे हम ज्यादा पकड़ते हैं। और जो हमारे पास है, उसे हम कम पकड़ते हैं। तुम खुद ही अपने जीवन पर थोड़ा विचार करो, जो तुम्हारे पास है,उस पर तुम्हारी ज्यादा पकड़ नहीं होती। है ही,तो पकड़ना क्या है! जो तुम्हारे पास नहीं है,उसकी आकांक्षा होती है। उसे पकड़ने का इरादा बना रहता है।
यह देश अध्यात्म की व्यर्थ दावेदारी करता है। इस देश को पहले भौतिकवादी होना चाहिए, तो यह अध्यात्मवादी भी हो सकेगा। इस देश के पास अभी तो शरीर को भी सम्हालने का उपाय नहीं है, आत्मा की उड़ान तो यह भरे तो कैसे भरे? वीणा ही पास नहीं है, तो संगीत तो कैसे पैदा हो? पेट भूखे हैं, उनमें प्रेम के बीज कैसे फलें? पेट भूखे हैं, उनमें ध्यान कैसे उगाया जाए?
मेरे हिसाब में, हमने अगर कोई बड़ी से बड़ी भूल की है इन पांच हजार वर्षों में तो वह यह कि हमने भौतिकवाद की निंदा की है। और भौतिकवाद की निंदा पर अध्यात्मवाद को खड़ा करना चाहा है। उसका यह दुष्परिणाम है जो हम भोग रहे हैं। इसमें तुम्हारे साधु-संतों का हाथ है। और जब तक तुम यह न समझोगे कि तुम्हारे साधु-संतों की जिम्मेवारी है तुम्हें भिखमंगा रखने में, गरीब रखने में, दीन-बीमार रखने में, तब तक तुम इस नरक के पार नहीं हो सकोगे। क्योंकि तुम मूल कारण को ही न पहचानोगे तो उसकी जड़ कैसे कटेगी?
मेरे हिसाब में, भौतिकवाद अध्यात्मवाद का अनिवार्य चरण है। भौतिकवाद बुनियाद है मंदिर की और अध्यात्म मंदिर का शिखर है। बुनियाद के बिना मंदिर नहीं हो सकता। भौतिकवाद और अध्यात्म में कोई विरोध नहीं है, सहयोग है। आत्मा और शरीर में कितना सहयोग है, गौर से देखो तो! जो शरीर में घटता है वह आत्मा में घट जाता है। जो आत्मा में घटता है वह शरीर में घट जाता है। किसी आदमी को विश्वास दिला दो कि वह बीमार है, उसका शरीर बीमार हो जाएगा।
तुम प्रयोग करके देख लो। तय कर लो कि फलां आदमी बिलकुल स्वस्थ है, पूरा मुहल्ला तय कर ले कि जो भी उससे मिले, जयरामजी करने के बाद पहला सवाल यही पूछे कि भई, बात क्या है? शरीर तुम्हारा बड़ा पीला-पीला पड़ा जा रहा है! तुम कुछ बीमार हो? पहले वह इनकार करेगा, क्योंकि वह बीमार नहीं है। लेकिन जब दो-चार लोग पूछ चुकेंगे, तो इतने जोर से इनकार नहीं करेगा। उसे शक होने लगेगा। और सांझ होते-होते तुम देखोगे, वह बिस्तर पर लेट गया है। कंबल ओढ़े पड़ा है। हो सकता है कि बुखार चढ़ आए। इतने लोग कहते हैं तो झूठ तो न कहते होंगे!
तुमने उस आदमी को सम्मोहित कर दिया। तुमने उसके मन को प्रभावित किया, उसकी देह भी प्रभावित हो गई।
और इससे उलटा भी सच है। जब देह प्रभावित होती है तो मन भी प्रभावित होता है। ये कोई अलग-अलग चीजें नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम्हारी आत्मा और तुम्हारी देह के बीच कैसा तारतम्य है, कैसा समन्वय है! समवेत परमात्मा और उसके अस्तित्व के बीच कैसा गहरा नाता है!
तो भौतिकवाद और अध्यात्मवाद विपरीत नहीं हो सकते। भारत ने बड़ी भूल की है दोनों को विपरीत मान कर। पश्चिम भी भूल कर रहा है दोनों को विपरीत मान कर। पश्चिम ने भौतिकवाद चुन लिया अध्यात्म के खिलाफ। भारत ने अध्यात्म चुन लिया भौतिकवाद के खिलाफ। दोनों ने आधा-आधा चुना, दोनों तड़फ रहे हैं। दोनों मछली जैसे तड़फ रहे हैं, जिसका पानी खो गया हो। क्योंकि पानी समग्रता में है।
मेरा उदघोष यही है कि हमें एक नई मनुष्यता का सृजन करना है। ऐसी मनुष्यता का, जो दोनों भूलों से मुक्त होगी। जो न तो भौतिकवादी होगी,न अध्यात्मवादी होगी, जो समग्रवादी होगी। जो न तो देहवादी होगी, न आत्मवादी होगी, जो समग्रवादी होगी। जो बाहर को भी अंगीकार करेगी और भीतर को भी। बाहर और भीतर में जो विरोध खड़ा न करेगी। जो बाहर और भीतर के बीच संबंध बनाएगी, सेतु बनाएगी। एक ऐसी मनुष्यता का जन्म होना चाहिए। उसी मनुष्यता के जन्म के लिए प्रयास चल रहा है।
मेरा संन्यासी उसी नये मनुष्य की पहली-पहली खबर है। वह संसार को स्वीकार करता है, और फिर भी अध्यात्म को इनकार नहीं करता। वह अध्यात्म को स्वीकार करता है, फिर भी संसार को इनकार नहीं करता। वह संसार में रह कर और संसार के बाहर कैसे रहा जाए, इसका अनूठा प्रयोग कर रहा है।
मेरे मन में तुम्हारे तथाकथित भारत की कोई प्रतिष्ठा नहीं है। और जितनी जल्दी इन थोथे दंभों से तुम मुक्त हो जाओ, उतना अच्छा है।
और तुम पूछते हो कि न ही मैं इस देश के नेताओं की प्रशंसा में कुछ कहता हूं।
मैं करूं भी तो क्या करूं, प्रशंसा योग्य कुछ हो तो भी! एक तो राजनेताओं में प्रशंसा योग्य कभी कुछ हो नहीं सकता। होता तो वे राजनेता नहीं होते। राजनीति में तो रुग्णचित्त लोग ही सम्मिलित होते हैं। विक्षिप्त चित्त लोग ही सम्मिलित होते हैं। महत्वाकांक्षी लोग उत्सुक होते हैं। राजनीति में तो वे ही लोग उत्सुक होते हैं, जिनके भीतर इतनी हीनता का भाव है कि वे किसी पद पर बैठ कर सिद्ध करना चाहते हैं कि मैं हीन नहीं हूं। राजनीति में जिनके पास कोई भी गुण है, वे उत्सुक नहीं होते। जो मूर्तिकार हो सकता है वह मूर्तिकार होना पसंद करेगा,राजनीतिज्ञ नहीं। जो चित्रकार हो सकता है वह चित्रकार होना पसंद करेगा, राजनीतिज्ञ नहीं। जो संगीतज्ञ हो सकता है वह संगीतज्ञ होना पसंद करेगा, राजनीतिज्ञ नहीं। राजनीति तो गुणहीनों के लिए है। इसीलिए राजनीति में कोई योग्यता आवश्यक नहीं होती। असल में तो अयोग्यता ही योग्यता है वहां। जितना अयोग्य आदमी हो, उतना राजनीति में आगे जा सकता है। क्योंकि योग्य आदमी तो थोड़ा झिझकता है,सोचता है कि अपनी योग्यता से चलना चाहिए। अयोग्य तो घुस जाते हैं। सौ-सौ जूते खाएं तमाशा घुस कर देखें। मारो, पीटो, घसीटो, कुछ भी फिकर करो, वे घुसते ही चले जाते हैं!
क्या कहें, कैसे कहें, किससे कहें, क्यों कर कहें
पीठ के पीछे कहें या रूबरू होकर कहें
कुछ समझ आता नहीं, हंस कर कहें, रोकर कहें
आज के नेता को लीडर मानें या जोकर कहें
हर किसी का है यहां अंदाज न्यारा, देखिए
देखिए, कुर्सीपरस्तों का नजारा देखिए
सींखचों में जेल के मिल-जुल के रोए थे अभी
पीठ पर पर्वत दुखों के सबने ढोए थे अभी
तान चादर, लोग सुख की नींद सोए थे अभी
राहतों के ख्वाब पलकों में पिरोए थे अभी
हैं बिखरने को सभी सपने दुबारा, देखिए
देखिए, कुर्सीपरस्तों का नजारा देखिए
रात-दिन चलता है बस फर्जी मुलाकातों का दौर
रूठने का सिलसिला, बेकार की बातों का दौर
जाने किस दिन खत्म होगा आपसी घातों का दौर
मनमुटावों का यह किस्सा, यह खुराफातों का दौर
तिकड़मों का खुल गया फिर से पिटारा, देखिए
देखिए, कुर्सीपरस्तों का नजारा देखिए
क्या मजा आता है जाने, रोज की तकरार में
पगड़ियां पल-पल उछलती हैं भरे बाजार में
कोई उखड़ा कोई फिर से जम गया सरकार में
कोई डांवाडोल है, डूबा कोई मझधार में
क्या कहें, कैसे कहें, किससे कहें, क्यों कर कहें
ढूंढ़ता है कोई तिनके का सहारा, देखिए
देखिए, कुर्सीपरस्तों का नजारा देखिए
अपहरण होते न हों, ऐसा नगर कोई नहीं
राहजन चारों तरफ हैं, राहबर कोई नहीं
जेल से छूटे गिरहकट, अब कसर कोई नहीं
चोर सब निर्भय बने, डंडे का डर कोई नहीं
रंग के मौसम में कांटों का इशारा देखिए
देखिए, कुर्सीपरस्तों का नजारा देखिए
किसकी प्रशंसा करो? और क्यों?
और चंदूलाल, यहां तुम भारत की और भारत के नेताओं की प्रशंसा सुनने आए हो? कि आए हो कि कुछ जागो, कुछ जीवन का तुम्हें स्वाद लगे,कि कुछ तुम भी परमात्मा के रस से संयुक्त हो सको! यहां तुम आए हो सौंदर्य का पान करने,प्रभु की प्रार्थना में डूबने, कि थोड़ा समाधि का साथ हो ले, कि थोड़ा जला हुआ दीया तुम्हारे बुझे हुए दीये के करीब सरक आए, कि तुम्हारे भीतर भी एक अभीप्सा उठे कि कब मैं जलूंगा,कब मेरा भी हृदय रोशन होगा!
आते हो कुछ और काम से, पूछताछ कुछ और करने लगते हो। ऐसी बातें घर छोड़ कर आया करो। ऐसे प्रश्न घर छोड़ कर आया करो। यहां तो प्रश्न लाओ कुछ प्रश्न जैसे! यहां तो प्रश्न लाओ कुछ जो तुम्हें जीवन के रहस्य के प्रति और भी जिज्ञासा से भरें। यहां तो प्रश्न लाओ कुछ ऐसे,जो मौत के पार है, उसका तुम्हें दर्शन करा सकें।
silence shared in Words...
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