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मेरा भारत महान - ओशो || भारत की महानता के संबंध में ओशो



तीसरा प्रश्न: आप भारत देश की महानता के संबंध में कभी भी कुछ नहीं कहते हैं। न ही इस देश के नेताओं की प्रशंसा में कुछ कहते हैं। क्यों?

प्रेम—पंथ ऐसो कठिन-(प्रश्नोत्तर)

 प्रवचन—छट्ठवां  

दिनांक 01 अप्रेल सन् 1979,
ओशो आश्रमकोरेगांव पार्क पूना।


चंदूलाल! आप यहां कैसे आ गएऔर ढब्बू जी को भी साथ ले आए हैं या नहीं?
गलत दुनिया में आ गए। यहां देशों इत्यादि की चर्चा नहीं होती। आदमी के द्वारा नक्शे पर खींची हुई लकीरों का मूल्य ही क्या हैयहां तो पृथ्वी एक है। यहां कैसा भारत और कैसा पाकिस्तान और कैसा चीनइस तरह की बातें सुननी हों तो दिल्ली जाओ। यहां कहां आ गए?और यहां ज्यादा देर मत टिकना। यहां की हवा खराब है! कहीं यहां ज्यादा देर टिक गएनाचने-गाने-गुनगुनाने लगेतो भूल जाओगे भारत इत्यादि।
जरूरत क्या है भारत की प्रशंसा कीऔर भारत की प्रशंसा क्यों चाहते होअहंकार को तृप्ति मिलती है। पाकिस्तान की प्रशंसा क्यों नहींप्रश्न ऐसा क्यों नहीं पूछा कि आप पाकिस्तान की महानता के संबंध में कुछ कभी क्यों नहीं कहतेपाकिस्तान कभी भारत था,अब भारत नहीं है। कभी बर्मा भी भारत था,अब भारत नहीं है। कभी अफगानिस्तान भी भारत थाअब भारत नहीं है। और जो अभी भारत हैकभी भारत रहेन रहेक्या पक्का है?तो पानी पर लकीरें क्यों खींचनीकौन है भारतकिसको कहो भारतरोज की राजनीति हैबदलती रहती हैबिगड़ती रहती है। आदमी लकीरें खींचता रहता है। आदमी बड़ा दीवाना है। लकीरें खींचने में बड़ा उसका रस है। और जमीन अखंड है। फिर भी उसको खंडों में बांटता रहता है।
हम तो यहां पूरी पृथ्वी के गीत गाते हैं। पूरी पृथ्वी के ही क्योंपूरे विश्व के गीत गाते हैं। चांदत्तारों की जरूर यहां बात होती है। सूर्यास्त कीसूर्योदयों की जरूर यहां बात होती है। वृक्षों की और फूलों कीनदी और पहाड़ों कीपशुओं और पक्षियों कीऔर मनुष्यों की जरूर यहां बात होती है। लेकिन यह कोई राजनैतिक अखाड़ा नहीं हैजहां हम भारत की प्रशंसा करें।
और भारत की प्रशंसा के पीछे तुम चाहते क्या होचंदूलालकि तुम्हारी प्रशंसा हो। कि देखो,भारत कितना महान देश है कि चंदूलाल भारत में पैदा हुए। तुम अगर कहीं और पैदा होतेतो वह देश महान होता। तुम जहां पैदा होतेवही देश महान होता। सभी देशों को यही खयाल है।
जब अंग्रेज पहली दफा चीन पहुंचेतो चीनी शास्त्रों में लिखा गया कि ये बिलकुल बंदर की औलाद हैं। ये आदमी हैं ही नहीं। ये पक्के बंदर हैं। इनकी शक्ल-सूरत तो देखो! इनके ढंग!
और अंग्रेजों ने क्या लिखा चीनियों के बाबत?कि इनको आदमी मानने में बड़ी कठिनाई है। आंखें ऐसी कि पता ही नहीं चलता कि खुली हैं कि बंद! भौंहें नदारद! दाढ़ी-मूंछअगर दाढ़ी में चार-छह बाल हैं तो गिनती कर लो। ये आदमी किस तरह के हैंइनको हो क्या गयानाकें चपटीगाल की हड्डियां उभरी। ये तो एक तरह के केरीकेचरव्यंग्य-चित्र। जैसे आदमी को उलटा-सीधा बना दो। कुछ भूल-चूक हो गई।
मगर यह सभी के साथ है। जर्मन समझते हैं कि वे सर्वश्रेष्ठ। सारी दुनिया पर उनका हक होना चाहिए। और भारतीय समझते हैं कि वे पुण्यभूमि। यहीं सारे अवतार पैदा हुए। सारे अवतारों ने इसी पुण्यभूमि को चुना--राम ने,कृष्ण नेबुद्ध ने और महावीर ने। और कहीं पैदा होने को उनको जगह न मिली। और अगर तुम यहूदियों से पूछोतो यहूदी कहते हैं कि यहूदी ही ईश्वर के द्वारा चुनी गई कौम हैं। ईश्वर ने यहूदियों को चुना है। और अगर ईसाइयों से पूछोतो वे कहते हैंईसा के सिवाय और कोई ईश्वर का असली बेटा नहीं है। बाकी तो सब नकली तीर्थंकरनकली पैगंबरनकली अवतार--इनका कोई मूल्य नहीं है। हर देशहर जाति अपनी प्रशंसा के गीत गाती है। यह बात ही मूढ़तापूर्ण है। यह अहंकार का ही प्रच्छन्न रूप है।
फिर कुछचंदूलालमहान हो तो भी कुछ चेष्टा करो! अब तुम नहीं मानते होतो प्रशंसा में कुछ बातें कहता हूं!

जनता का है राज यहां परगली-गली खुशहाल है।
ठुकी गरीबों के पांवों मेंप्रजातंत्र की नाल है।।
चौराहों पर नेताओं की दादुर जैसी तान है।
मेरा देश महान है।

उल्लू यहां प्रकाश बांटतेसूरज का उपहास है।
गहन अंधेरा नयन-नयन में करता यहां निवास है।।
चमचों के घर यहां पहुंचता सरकारी अनुदान है।
मेरा देश महान है।

खद्दरधारी जीव यहां परहर प्राणी को खा रहा।
किंतु अहिंसा की परिभाषा माइक पर चिल्ला रहा।।
मगरमच्छ का यहां हो रहा देवों सा सम्मान है।
मेरा देश महान है।
भ्रष्टाचारी यहां लबादा ओढ़े हैं ईमान का।
बंदूकों की नोक बताती यहां मूल्य इंसान का।।
गाया जाता यहां प्रेम से जोंकों का बलिदान है।
मेरा देश महान है।

नीर-क्षीर का ज्ञान यहां पर कौओं के अधिकार में।
समझे जाते हंस यहां पर बुद्धू हर व्यापार में।।
पृथ्वीराज से बड़ी यहां पर जयचंदों की शान है।
मेरा देश महान है।

नहीं आ रही किसी दिशा से सूरज की आवाज है।
यहां अंधेरे के माथे को मिला अनोखा ताज है।।
लगता है तिनके-तिनके पर बिखरी हुई मसान है।
मेरा देश महान है।

क्या है महानऔर क्यूं यह आकांक्षासच में जब कोई चीज महान होती हैतो उसकी घोषणा नहीं करनी होती। उसका होना ही प्रमाण होता है। सूरज ऊग आयाप्रमाण हो गया कि सुबह हो गई। कोई बैंड-बाजे बजा कर खबर नहीं करनी पड़ती कि सुबह हो गई। कि भाई जागो,सूरज ऊग आया! कि हे फूलोअब खिलोकि सूरज ऊग आया! फूल खिल जाते हैं। पक्षी गीत गाने लगते हैं। लोग जग जाते हैं। सूरज आ गया,बिना कुछ कहेबिना शोरगुल किए--जरा भी आवाज नहीं करता।
यह तो भीतर कहीं छिपी हुई हीनता का भाव ही है जो हमारे मन में यह आकांक्षा उठाता है--कोई कहे कि महान। यह इनफीरिऑरिटी कांप्लेक्स है। यह भीतर छिपी हुई हीनता की ग्रंथि और बीमारी है कि हम चाहते हैं कि कोई न कोई हमें महान कहेकिसी न किसी कारण से महान कहे। और हम बड़े प्रसन्न होते हैं।
और तुम्हारे नेता होशियार हैं। वे तुम्हारी महानता के गीत गाते रहते हैं। तुम भूखे मर रहे होवे महानता के गीत तुम्हें पिलाते हैं। और तुम महानता के गीत पीकर अहंकार में अकड़े हुए,भूल ही जाते हो समस्याओं को। तुम्हारी समस्याएं भुलाने के लिए महानता का गीत अफीम का काम करता है। तो नेता आते हैं तो वे तुम्हारी महानता की...महान भारतीय संस्कृति! सबसे प्राचीन संस्कृति! सबसे धार्मिक संस्कृति!
बात कुछ जंचती नहीं। बात में कुछ सचाई नहीं है। लेकिन तुम्हें सुन कर अच्छी लगती है,प्रीतिकर लगती हैतुम भूल ही जाते हो अपनी भुखमरीअपनी दीनताअपना दारिद्रयअपनी बेईमानीअपनी चोरी। और तुम भूल जाते हो नेताओं की चोरी और नेताओं की बेईमानी और नेताओं की दगाबाजी। यह महानता का गीत दोनों तरफ लाभ पहुंचाता है। तुम महानतुम्हारे नेता महानतुम्हारा देश महान। और हालत?अगर हालत को जरा आंख खोल कर देखो तो बहुत डर लगता है। तो बेहतर यही हैआंख बंद रखो और महानता के गीत गाते रहो। अफीम का नशा है यह।
आदमी आदमी जैसे हैंसब जगह एक जैसे हैं। आदमी-आदमी में कोई खास फर्क नहीं है। और जो फर्क हैंवे बहुत ऊपरी हैं। किसी ने बाल ऐसे काट लिए हैंकिसी ने बाल वैसे काट लिए हैं,इन फर्कों से कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई एक भाषा बोलता हैकोई दूसरी भाषा बोलता है,इनसे कुछ फर्क नहीं पड़ता। ये सब ऊपरी बातें हैं। आदमी आदमी जैसा हैसारी जमीन पर एक जैसा है। उसमें कोई गुणात्मक भेद नहीं हैं। अगर कुछ भेद होंगे तो बस संस्कारगत हैं। कोई मंदिर जाता हैकोई मस्जिद जाता है। मगर जाने वाला एक जैसा ही है। मंदिर वाला मंदिर में धोखा दे रहा हैमस्जिद जाने वाला मस्जिद में धोखा दे रहा है। मंदिर में जाने वाला मंदिर में झूठी प्रार्थना कर रहा हैगिरजे में जाने वाला गिरजे में झूठी प्रार्थना कर रहा है। गिरजा और मंदिर अलग। कोई कृष्ण के चरणों में जा रहा है,कोई क्राइस्ट के। मगर वह जो जाने वाला आदमी हैवह एक जैसा आदमी है। उसमें कोई फर्क नहीं है।
ऊपर-ऊपर से तुम कितनी ही धर्म की बातें करो,लेकिन भीतर तुम उतने ही भौतिकवादी हो जितने दुनिया में कोई और लोग। शायद थोड़े ज्यादा ही होओकम तो नहीं। तुम्हारी पकड़ चीजों पर उतनी ही हैजितनी किसी और की। सच तो यह हैतुम्हारी थोड़ी ज्यादा हैक्योंकि तुम्हारे पास चीजें कम हैं। तो चीजें कम हों तो उनकी कमी को पकड़ को ज्यादा करके पूरा करना पड़ता है। जिनके पास चीजें बहुत हैंवे पकड़ेंगे भी तो कितना पकड़ेंगेवे ज्यादा नहीं पकड़ सकते।
पश्चिम में जहां चीजें बहुत बढ़ गई हैंउनको तुम कहते हो भौतिकवादी लोगसिर्फ इसीलिए कि उनके पास भौतिक चीजें ज्यादा हैं। इसलिए भौतिकवादी। और तुम अध्यात्मवादीक्योंकि तुम्हारे पास खाने-पीने को नहीं हैछप्पर नहीं है,नौकरी नहीं है। यह तो खूब अध्यात्म हुआ! ऐसे अध्यात्म का क्या करोगेऐसे अध्यात्म को आग लगाओ।
और जिनके पास चीजें बहुत हैंउनकी पकड़ कम हो गई हैस्वभावतः। कितना पकड़ोगे?जिनके पास कुछ नहीं हैउनकी पकड़ ज्यादा होती है। जिनके पास सिर्फ लंगोटी हैवे उसको पकड़े बैठे रहते हैं कि वही हाथ से न छूट जाए। और तो कुछ है ही नहीं। लेकिन जिनके पास बड़ा विस्तार हैकुछ छूट भी जाए तो क्या फिकर! उनमें देने की भी क्षमता आ जाती है। बांटने की भी क्षमता आ जाती है। सच तो यह है कि जितनी भौतिक उन्नति होती हैउतना देश कम भौतिकवादी हो जाता है। क्योंकि जो चीज हमारे पास होती हैउस पर हमारी पकड़ कम हो जाती है। जो हमारे पास नहीं होतीउस पर हमारी पकड़ बहुत गहरी होती हैहमारी आकांक्षा बहुत गहरी होती है।
मनुष्य के मन के इस नियम को ठीक से समझ लेना। उलटा लगेगा यह। जो हमारे पास नहीं है,उसे हम ज्यादा पकड़ते हैं। और जो हमारे पास हैउसे हम कम पकड़ते हैं। तुम खुद ही अपने जीवन पर थोड़ा विचार करोजो तुम्हारे पास है,उस पर तुम्हारी ज्यादा पकड़ नहीं होती। है ही,तो पकड़ना क्या है! जो तुम्हारे पास नहीं है,उसकी आकांक्षा होती है। उसे पकड़ने का इरादा बना रहता है।
यह देश अध्यात्म की व्यर्थ दावेदारी करता है। इस देश को पहले भौतिकवादी होना चाहिएतो यह अध्यात्मवादी भी हो सकेगा। इस देश के पास अभी तो शरीर को भी सम्हालने का उपाय नहीं हैआत्मा की उड़ान तो यह भरे तो कैसे भरेवीणा ही पास नहीं हैतो संगीत तो कैसे पैदा होपेट भूखे हैंउनमें प्रेम के बीज कैसे फलेंपेट भूखे हैंउनमें ध्यान कैसे उगाया जाए?
मेरे हिसाब मेंहमने अगर कोई बड़ी से बड़ी भूल की है इन पांच हजार वर्षों में तो वह यह कि हमने भौतिकवाद की निंदा की है। और भौतिकवाद की निंदा पर अध्यात्मवाद को खड़ा करना चाहा है। उसका यह दुष्परिणाम है जो हम भोग रहे हैं। इसमें तुम्हारे साधु-संतों का हाथ है। और जब तक तुम यह न समझोगे कि तुम्हारे साधु-संतों की जिम्मेवारी है तुम्हें भिखमंगा रखने मेंगरीब रखने मेंदीन-बीमार रखने मेंतब तक तुम इस नरक के पार नहीं हो सकोगे। क्योंकि तुम मूल कारण को ही न पहचानोगे तो उसकी जड़ कैसे कटेगी?
मेरे हिसाब मेंभौतिकवाद अध्यात्मवाद का अनिवार्य चरण है। भौतिकवाद बुनियाद है मंदिर की और अध्यात्म मंदिर का शिखर है। बुनियाद के बिना मंदिर नहीं हो सकता। भौतिकवाद और अध्यात्म में कोई विरोध नहीं हैसहयोग है। आत्मा और शरीर में कितना सहयोग हैगौर से देखो तो! जो शरीर में घटता है वह आत्मा में घट जाता है। जो आत्मा में घटता है वह शरीर में घट जाता है। किसी आदमी को विश्वास दिला दो कि वह बीमार हैउसका शरीर बीमार हो जाएगा।
तुम प्रयोग करके देख लो। तय कर लो कि फलां आदमी बिलकुल स्वस्थ हैपूरा मुहल्ला तय कर ले कि जो भी उससे मिलेजयरामजी करने के बाद पहला सवाल यही पूछे कि भईबात क्या हैशरीर तुम्हारा बड़ा पीला-पीला पड़ा जा रहा है! तुम कुछ बीमार होपहले वह इनकार करेगाक्योंकि वह बीमार नहीं है। लेकिन जब दो-चार लोग पूछ चुकेंगेतो इतने जोर से इनकार नहीं करेगा। उसे शक होने लगेगा। और सांझ होते-होते तुम देखोगेवह बिस्तर पर लेट गया है। कंबल ओढ़े पड़ा है। हो सकता है कि बुखार चढ़ आए। इतने लोग कहते हैं तो झूठ तो न कहते होंगे!
तुमने उस आदमी को सम्मोहित कर दिया। तुमने उसके मन को प्रभावित कियाउसकी देह भी प्रभावित हो गई।
और इससे उलटा भी सच है। जब देह प्रभावित होती है तो मन भी प्रभावित होता है। ये कोई अलग-अलग चीजें नहीं हैंएक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम्हारी आत्मा और तुम्हारी देह के बीच कैसा तारतम्य हैकैसा समन्वय है! समवेत परमात्मा और उसके अस्तित्व के बीच कैसा गहरा नाता है!
तो भौतिकवाद और अध्यात्मवाद विपरीत नहीं हो सकते। भारत ने बड़ी भूल की है दोनों को विपरीत मान कर। पश्चिम भी भूल कर रहा है दोनों को विपरीत मान कर। पश्चिम ने भौतिकवाद चुन लिया अध्यात्म के खिलाफ। भारत ने अध्यात्म चुन लिया भौतिकवाद के खिलाफ। दोनों ने आधा-आधा चुनादोनों तड़फ रहे हैं। दोनों मछली जैसे तड़फ रहे हैंजिसका पानी खो गया हो। क्योंकि पानी समग्रता में है।
मेरा उदघोष यही है कि हमें एक नई मनुष्यता का सृजन करना है। ऐसी मनुष्यता काजो दोनों भूलों से मुक्त होगी। जो न तो भौतिकवादी होगी,न अध्यात्मवादी होगीजो समग्रवादी होगी। जो न तो देहवादी होगीन आत्मवादी होगीजो समग्रवादी होगी। जो बाहर को भी अंगीकार करेगी और भीतर को भी। बाहर और भीतर में जो विरोध खड़ा न करेगी। जो बाहर और भीतर के बीच संबंध बनाएगीसेतु बनाएगी। एक ऐसी मनुष्यता का जन्म होना चाहिए। उसी मनुष्यता के जन्म के लिए प्रयास चल रहा है।
मेरा संन्यासी उसी नये मनुष्य की पहली-पहली खबर है। वह संसार को स्वीकार करता हैऔर फिर भी अध्यात्म को इनकार नहीं करता। वह अध्यात्म को स्वीकार करता हैफिर भी संसार को इनकार नहीं करता। वह संसार में रह कर और संसार के बाहर कैसे रहा जाएइसका अनूठा प्रयोग कर रहा है।
मेरे मन में तुम्हारे तथाकथित भारत की कोई प्रतिष्ठा नहीं है। और जितनी जल्दी इन थोथे दंभों से तुम मुक्त हो जाओउतना अच्छा है।
और तुम पूछते हो कि न ही मैं इस देश के नेताओं की प्रशंसा में कुछ कहता हूं।
मैं करूं भी तो क्या करूंप्रशंसा योग्य कुछ हो तो भी! एक तो राजनेताओं में प्रशंसा योग्य कभी कुछ हो नहीं सकता। होता तो वे राजनेता नहीं होते। राजनीति में तो रुग्णचित्त लोग ही सम्मिलित होते हैं। विक्षिप्त चित्त लोग ही सम्मिलित होते हैं। महत्वाकांक्षी लोग उत्सुक होते हैं। राजनीति में तो वे ही लोग उत्सुक होते हैंजिनके भीतर इतनी हीनता का भाव है कि वे किसी पद पर बैठ कर सिद्ध करना चाहते हैं कि मैं हीन नहीं हूं। राजनीति में जिनके पास कोई भी गुण हैवे उत्सुक नहीं होते। जो मूर्तिकार हो सकता है वह मूर्तिकार होना पसंद करेगा,राजनीतिज्ञ नहीं। जो चित्रकार हो सकता है वह चित्रकार होना पसंद करेगाराजनीतिज्ञ नहीं। जो संगीतज्ञ हो सकता है वह संगीतज्ञ होना पसंद करेगाराजनीतिज्ञ नहीं। राजनीति तो गुणहीनों के लिए है। इसीलिए राजनीति में कोई योग्यता आवश्यक नहीं होती। असल में तो अयोग्यता ही योग्यता है वहां। जितना अयोग्य आदमी होउतना राजनीति में आगे जा सकता है। क्योंकि योग्य आदमी तो थोड़ा झिझकता है,सोचता है कि अपनी योग्यता से चलना चाहिए। अयोग्य तो घुस जाते हैं। सौ-सौ जूते खाएं तमाशा घुस कर देखें। मारोपीटोघसीटोकुछ भी फिकर करोवे घुसते ही चले जाते हैं!

क्या कहेंकैसे कहेंकिससे कहेंक्यों कर कहें
पीठ के पीछे कहें या रूबरू होकर कहें
कुछ समझ आता नहींहंस कर कहेंरोकर कहें
आज के नेता को लीडर मानें या जोकर कहें
हर किसी का है यहां अंदाज न्यारादेखिए
देखिएकुर्सीपरस्तों का नजारा देखिए

सींखचों में जेल के मिल-जुल के रोए थे अभी
पीठ पर पर्वत दुखों के सबने ढोए थे अभी
तान चादरलोग सुख की नींद सोए थे अभी
राहतों के ख्वाब पलकों में पिरोए थे अभी
हैं बिखरने को सभी सपने दुबारादेखिए
देखिएकुर्सीपरस्तों का नजारा देखिए

रात-दिन चलता है बस फर्जी मुलाकातों का दौर
रूठने का सिलसिलाबेकार की बातों का दौर
जाने किस दिन खत्म होगा आपसी घातों का दौर
मनमुटावों का यह किस्सायह खुराफातों का दौर
तिकड़मों का खुल गया फिर से पिटारादेखिए
देखिएकुर्सीपरस्तों का नजारा देखिए

क्या मजा आता है जानेरोज की तकरार में
पगड़ियां पल-पल उछलती हैं भरे बाजार में
कोई उखड़ा कोई फिर से जम गया सरकार में
कोई डांवाडोल हैडूबा कोई मझधार में
क्या कहेंकैसे कहेंकिससे कहेंक्यों कर कहें
ढूंढ़ता है कोई तिनके का सहारादेखिए
देखिएकुर्सीपरस्तों का नजारा देखिए

अपहरण होते न होंऐसा नगर कोई नहीं
राहजन चारों तरफ हैंराहबर कोई नहीं
जेल से छूटे गिरहकटअब कसर कोई नहीं
चोर सब निर्भय बनेडंडे का डर कोई नहीं
रंग के मौसम में कांटों का इशारा देखिए
देखिएकुर्सीपरस्तों का नजारा देखिए

किसकी प्रशंसा करोऔर क्यों?
और चंदूलालयहां तुम भारत की और भारत के नेताओं की प्रशंसा सुनने आए होकि आए हो कि कुछ जागोकुछ जीवन का तुम्हें स्वाद लगे,कि कुछ तुम भी परमात्मा के रस से संयुक्त हो सको! यहां तुम आए हो सौंदर्य का पान करने,प्रभु की प्रार्थना में डूबनेकि थोड़ा समाधि का साथ हो लेकि थोड़ा जला हुआ दीया तुम्हारे बुझे हुए दीये के करीब सरक आएकि तुम्हारे भीतर भी एक अभीप्सा उठे कि कब मैं जलूंगा,कब मेरा भी हृदय रोशन होगा!
आते हो कुछ और काम सेपूछताछ कुछ और करने लगते हो। ऐसी बातें घर छोड़ कर आया करो। ऐसे प्रश्न घर छोड़ कर आया करो। यहां तो प्रश्न लाओ कुछ प्रश्न जैसे! यहां तो प्रश्न लाओ कुछ जो तुम्हें जीवन के रहस्य के प्रति और भी जिज्ञासा से भरें। यहां तो प्रश्न लाओ कुछ ऐसे,जो मौत के पार हैउसका तुम्हें दर्शन करा सकें।

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हंसा तो मोती चूने--(लाल नाथ)-प्रवचन-10 अवल गरीबी अंग बसै—दसवां प्रवचन  दसवा प्रवचन ; दिनाक 20 मई ,  1979 ; श्री रजनीश आश्रम ,  पूना यह महलों ,  यह तख्तों ,  यह ताजों की दुनिया यह इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया  यह दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया  यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है! हर एक जिस्म घायल ,  हर इक रूह प्यासी निगाहों में उलझन ,  दिलों में उदासी यह दुनिया है या आलमे-बदहवासी यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है! यहां इक खिलौना है इन्सां की हस्ती यह बस्ती है मुर्दा -परस्तों की बस्ती यहां पर तो जीवन से है मौत सस्ती यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है! जवानी भटकती है बदकार बनकर जवा जिस्म सजते हैं बाजार बनकर यहां प्यार होता है व्योपार बनकर यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है! यह दुनिया जहां आदमी कुछ नहीं है वफा कुछ नहीं ,  दोस्ती कुछ नहीं है जहां प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है! जला दो उसे फूंक डालो यह दुनिया मेरे सामने से हटा लो यह दुनिया तुम्हारी है तुम ही सम्हालो यह दुनिया

होश की साधना - ओशो || मुल्ला नसीरुद्दीन पर ओशो || Osho Jokes in Hindi

होश की साधना - ओशो   एक सुंदर अध्यापिका की आवारगी की चर्चा जब स्कूल में बहुत होने लगी तो स्कूल की मैनेजिंग कमेटी ने दो सदस्यों को जांच-पड़ताल का काम सौंपा। ये दोनों सदस्य उस अध्यापिका के घर पहुंचे। सर्दी अधिक थी, इसलिए एक सदस्य बाहर लान में ही धूप सेंकने के लिए खड़ा हो गया और दूसरे सदस्य से उसने कहा कि वह खुद ही अंदर जाकर पूछताछ कर ले। एक घंटे के बाद वह सज्जन बाहर आए और उन्होंने पहले सदस्य को बताया कि अध्यापिका पर लगाए गए सारे आरोप बिल्कुल निराधार हैं। वह तो बहुत ही शरीफ और सच्चरित्र महिला है। इस पर पहला सदस्य बोला, "ठीक है, तो फिर हमें चलना चाहिए। मगर यह क्या? तुमने केवल अंडरवीयर ही क्यों पहन रखी है? जाओ, अंदर जाकर फुलपेंट तो पहन लो।" यहां होश किसको? मुल्ला नसरुद्दीन एक रात लौटा। जब उसने अपना चूड़ीदार पाजामा निकाला तो पत्नी बड़ी हैरान हुई; अंडरवीयर नदारद!! तो उसने पूछा, "नसरुद्दीन अंडरवीयर कहां गया?" नसरुद्दीन ने कहा कि अरे! जरूर किसी ने चुरा लिया!! अब एक तो चूड़ीदार पाजामा! उसमें से अंडरवीयर चोरी चला जाए और पता भी नहीं चला!! चूड़ीदार पाजामा नेतागण पहनते

पति और पत्नी का संबंध और प्रेम - ओशो

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-08) आओ चाँदनी को बिछाएं ,  ओढ़े— प्रवचन—आठवां 8 अक्‍टूबर ,  1978 ; श्री रजनीश आश्रम ,  पूना। आखिरी प्रश्न : मैं अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों में भी उत्सुक हो जाता हूं लेकिन जब मेरी पत्नी किसी पुरुष में उत्सुकता दिखाती है तो मुझे बड़ी ईर्ष्या होती है भयंकर अग्नि में मैं जलता हूं। पु रुषों ने सदा से अपने लिए सुविधाएं बना रखी थीं ,  स्त्रियों को अवरुद्ध कर रखा था। पुरुषों ने स्त्रियों को बंद कर दिया था मकानों की चार दीवारों में ,  और पुरुष ने अपने को मुक्त रख छोड़ा था। अब वे दिन गए। अब तुम जितने स्वतंत्र हो ,  उतनी ही स्त्री भी स्वतंत्र है। और अगर तुम चाहते हो कि ईर्ष्या में न जलों तो दो ही उपाय हैं। एक तो उपाय है कि तुम स्वयं भी वासना से मुक्त हो जाओ। जहा वासना नहीं वहां ईर्ष्या नहीं रह जाती। और दूसरा उपाय है कि अगर वासना से मुक्त न होना चाहो तो कम—से—कम जितना हक तुम्हें है ,  उतना हक दूसरे को भी दे दो। उतनी हिम्मत जुटाओ। मैं तो चाहूंगा कि तुम वासना से मुक्त हो जाओ। एक स्त्री जान ली तो सब स्त्रियां जान लीं। एक प

शिवलिंग का रहस्य - ओशो

शिवलिंग का रहस्य - ओशो पुराण में कथा यह है कि विष्णु और ब्रह्मा में किसी बात पर विवाद हो गया। विवाद इतना बढ़ गया कि कोई हल का रास्ता न दिखायी पड़ा, तो उन्होंने कहा कि हम चलें और शिवजी से पूछ लें, उनको निर्णायक बना दें। वे जो कहेंगे हम मान लेंगे। तो दोनों गए। इतने गुस्से में थे, विवाद इतना तेज था कि द्वार पर दस्तक भी न दी, सीधे अंदर चले गए। शिव पार्वती को प्रेम कर रहे हैं। वे अपने प्रेम में इतने मस्त हैं कि कौन आया कौन गया, इसकी उन्हें फिक्र ही नहीं है। ब्रह्मा-विष्णु थोड़ी देर खड़े रहे, घड़ी-आधा-घड़ी, घड़ी पर घड़ी बीतने लगी और उनके प्रेम में लवलीनता जारी है। वे एक-दूसरे में डूबे हैं। भूल ही गए अपना विवाद ब्रह्मा और विष्णु और दोनों ने यह शिवजी के ऊपर दोषारोपण किया कि हम खड़े हैं, हमारा अपमान हो रहा है और शिव ने हमारी तरफ चेहरा भी करके नहीं देखा। तो हम यह अभिशाप देते हैं कि तुम सदा ही जननेंद्रियों के प्रतीक-रूप में ही जाने जाओगे। इसलिए शिवलिंग बना। तुम्हारी प्रतिमा कोई नहीं बनाएगा। तुम जननेंद्रिय के ही रूप में ही बनाए जाओगे। वही तुम्हारा प्रतीक होगा। यही हमारा अभिशाप है, ताकि यह बात सद

संयमित आहार के सूत्र || भोजन करने का सही तरीका - ओशो

संयमित आहार के सूत्र - ओशो  मेरे पास बहुत लोग आते हैं ,   वे कहते हैं ,   भोजन हम ज्यादा कर जाते हैं ,   क्या करें ?   तो मैं उनसे कहता हूं ,   होशपूर्वक भोजन करो। और कोई   डाइटिंग   काम देनेवाली नहीं है। एक दिन ,   दो दिन   डाइटिंग   कर लोगे जबर्दस्ती ,   फिर क्या होगा ?   दोहरा टूट पड़ोगे फिर से भोजन पर। जब तक कि मन की मौलिक व्यवस्था नहीं बदलती ,   तब तक तुम दो-चार दिन उपवास भी कर लो तो क्या फर्क पड़ता है! फिर दो-चार दिन के बाद उसी पुरानी आदत में सम्मिलित हो जाओगे। मूल आधार बदलना चाहिए। मूल आधार का अर्थ है ,   जब तुम भोजन करो ,   तो होशपूर्वक करो ,   तो तुमने मूल बदला। जड़ बदली। होशपूर्वक करने के कई परिणाम होंगे। एक परिणाम होगा ,   ज्यादा भोजन न कर सकोगे। क्योंकि होश खबर दे देगा कि अब शरीर भर गया। शरीर तो खबर दे ही रहा है ,   तुम बेहोश हो ,   इसलिए खबर नहीं मिलती। शरीर की तरफ से तो इंगित आते ही रहे हैं। शरीर तो यंत्रवत खबर भेज देता है कि अब बस ,   रुको। मगर वहां   रुकनेवाला   बेहोश है। उसे खबर नहीं मिलती। शरीर तो टेलीग्राम दिये जाता है ,   लेकिन जिसे मिलना चाहिए वह सोया ह