सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-10
सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो
समाधि की सुवास—प्रवचन-दसवां
दिनांक 30 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।
रज्जु-सर्प भ्रम! साहबदास जी निरंतर इसका उल्लेख करते थे कि अरे, यह संसार क्या है, बस रस्सी में सांप। उनकी सुनते-सुनते एक दिन मुझे खयाल आया कि जांच तो कर ली जाए।
वे रोज रात नौ, साढ़े नौ बजे प्रवचन देकर मेरे मकान की बगल की गली से गुजरते थे। वहीं आगे चल कर उनका आश्रम था। गली में अंधेरा रहता था। उन दिनों वहां कोई बिजली भी न थी। सो मैंने एक रस्सी बनाई। बाजार से एक सांप खरीद कर लाया कागज का। कागज के सांप के मुंह को रस्सी में जोड़ा। रस्सी में पतला धागा बांधा और एक खाट खड़ी करके उसके पीछे छिप कर मैं बैठा रहा। जब साहबदास जी वहां से निकले तो मैंने धीरे से धागा खींचा। धागा तो दिख ही नहीं सकता था। अंधेरी रात, अंधेरा में धागा, काला धागा। रस्सी सरकी, सांप का मुंह हिला। साहबदास जी क्या भागे! गिर पड़े, पैर फिसल गया। मैं भी घबड़ाहट के मारे भागा,क्योंकि अब मैं फंसूंगा। सो वह खाट गिर पड़ी,मैं पकड़ा गया। साहबदास जी ने मुझे रंगे हाथों पकड़ लिया। और उनको तो काफी चोट आई थी। कोई छह सप्ताह तक पलस्तर बंधा रहा।
वे पकड़ कर मेरे पिता के पास मुझे ले गए। और कहा कि अब हद हो गई, यह लड़का क्या जान लेगा मेरी? एक तो मेरी सभाओं में अंट-संट सवाल उठाता है। अगर जवाब न दूं तो भद्द होती है; अगर जवाब दूं तो भद्द होती है। और आज तो इसने हद कर दी। वह तो मेरे जैसा मजबूत काठी का आदमी था कि जिंदा रह गया। अरे, अंधेरे में चलता हुआ सांप दिखाई पड़े तो कोई भी भाग खड़ा हो।
मैंने कहा, साहबदास जी, आप ही तो समझाते थे कि यह संसार जो है रस्सी में सांप जैसा, तो मैंने समझा आप तो ऐसे ज्ञानी! यह तो परीक्षा के लिए मैंने किया था।
कहा कि चुप! इस तरह की परीक्षाएं, किसी की जान लेना है?
और मैंने कहा, आप एक दफे तो सोच लेते--रज्जु-सर्प भ्रम। एक दफे भी न सोचा, एकदम भाग ही खड? हुए! और मैंने कहा, मेरा इसमें कोई कसूर नहीं है। श्रोताओं को अधिकार है कि जो कहा जाए उसकी परीक्षा भी तो की जाए कि यह आदमी मानता भी है कि सिर्फ कहता ही है। और आपको मैं कम से कम पांच-सात साल से सुन रहा हूं, ऐसा कोई दिन नहीं गया जिस दिन यह रज्जु-सर्प भ्रम की चर्चा न उठती हो। सारा मायावाद ही इस पर खड़ा हुआ है। तो आपको इतना तो होश रखना था कि अरे, बहुत से बहुत असली भी सांप अगर होगा तो भी तो माया ही है। असली भी होगा समझ लो, तो भी कहां से असली होगा? है तो माया ही। नकली हुआ तब तो है ही नकली, असली हुआ तो भी नकली है। यह तो सीधा तर्क था।
उस दिन से उन्होंने रज्जु-सर्प भ्रम की बात करनी बंद कर दी। मैं उनकी सभा में जाऊं भी तो मेरी तरफ गुस्से से देखें। एक-दो दफा मैंने पूछा भी कि साहबदास जी बहुत दिन से रज्जु-सर्प की बात नहीं समझाई।
कि तू चुप रह भइया! अब ऐसी बातें समझा कर क्या और हड्डी-पसली तुड़वानी है।
और उस गली से भी उन्होंने निकलना बंद कर दिया। वे चक्कर लगा कर काफी दूर से जाने लगे।
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