सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-08
सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो आपने आपनूं समझ पहले—प्रवचन-आठवां
दिनांक 28 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।
प्रसाद बंटता है मंदिरों में, बच्चों को प्रसाद में रस होता है। मैं कम से कम तीन-चार दफा प्रसाद तो लेता ही था। कभी टोपी लगा कर ले लूं, कभी टोपी निकाल कर ले लूं। आखिर पुजारी मुझे पहचान गया। उसने कहा,कि भैया, तू क्यों मेहनत करता है? कभी टोपी लगाता है, कभी टोपी निकालता है। पकड़ा न होता उसने; मैं एक दिन मूंछ लगा कर पहुंच गया। उसने कहा, हद हो गई! अब बंद कर! इस उम्र में इतनी बड़ी मूंछ कहां से आ गई? उसने झटका दिया, मूंछ निकल गई। मैंने कहा, भई मुझे सिर्फ चार दफा प्रसाद चाहिए। अगर तुम वैसे ही देते हो तो मैं बंद कर दूं। और ऐसा नहीं कि मैं कोई एक ही मंदिर जाता था। गांव में सब तरह के मंदिर थे, मुझे क्या लेना-देना?
कृष्णाष्टमी आती तो मैं कृष्ण के मंदिर में जाता। उन दिनों दो पैसे का अधेला चलता था। वह बिलकुल रुपए के बराबर था। उसमें मैं चांदी का वर्क चढ़ा देता था, तो वह रुपए जैसा मालूम पड़ता था। बिजली थी नहीं गांव में। सो दीए की रोशनी में और मंदिरों में इतने पैसे चढ़ते थे,रुपए चढ़ते थे, कि ठीक मूर्ति के सामने लोग पैसे फेंकते जाते थे। मैं भी जाता और इतने जोर से फेंकता वह नकली रुपया कि सब पुजारियों को पता चल जाए कि हां फेंका और फिर मैं कहता--आठ आने वापस! मेरा रस तो उसमें था। जन्माष्टमी की मैं प्रतीक्षा करता था, क्योंकि मेरे गांव में कम से कम कृष्ण के तीस मंदिर थे। बस एक आधा घंटे में पंद्रह-बीस रुपए झपट लाता था। और मुझे कुछ कभी नहीं लेना-देना रहा।
मुसलमानों के ताजिए उठते, मैं हाजिर। वली साहब उठते। तो मैं इतना भक्ति-भाव दिखलाता कि मुझे धीरे-धीरे वली साहब की रस्सी भी पकड़ने का मौका मिलने लगा था। और रस्सी का मौका मुझे इतना मिलने लगा और उसका कारण था, क्योंकि जिस वली की भी मैं रस्सी पकड़ लेता था उस पर ही चढ़ौत्तरी ज्यादा आती। लोग कहने लगे कि इस बच्चे में कुछ खूबी है! चमत्कारी है! और चमत्कार कुल इतना था कि मैं एक लंबी सुई अपने साथ रखता था,सो वली साहब को गुलकता रहता। वह काफी उछल-कूद मचाते, दूसरे वलियों को हरा देते। स्वभावतः। और जो जितना उछले-कूदे, लगता उतने ही बड़े वली साहब आए हैं। उनको चढ़ौत्तरी भी ज्यादा होती थी।
मगर वह वली साहब, जिसकी भी रस्सी मैं पकड़ता, वही घबड़ा जाते। वह मुझसे कहने लगे, भैया आधी चढ़ौत्तरी तू ले लेना और तुझे जब उचकाना हो सिर्फ हाथ का इशारा किया कर, हम उचकेंगे, मगर यह सुई न चुभाया कर। उस वक्त हम कुछ कह भी नहीं सकते कि सुई चुभा रहा है यह लड़का, क्योंकि अगर सुई का पता चल रहा है तो तुम वली साहब कैसे! अरे,वली साहब का तो मतलब कि तुम तो रहे ही नहीं, अब तो जिंद उतरे हुए हैं, वली उतरे हुए हैं,वे तुम्हारे ऊपर सवार हैं, तुम्हें कहां पता? अपना होश है तुम्हें तो फिर पता ही चल गया, तो फिर असलियत की बात नहीं, धोखा हो रहा है।
तो मेरे पास चढ़ौतियां आने लगीं--आधी चढ़ौती वली साहब की! कहते, बिलकुल आधी तू ले,आधी से भी ज्यादा ले लेना, मगर देख सुई न चुभाना। रास्ते भर जान ले लेता है कुदा-कुदा कर! जब भी कुदाना हो, तुझे लगे कि हां भई पैसे वालों का मामला है और ज्यादा कुदाई से फायदा होगा, हाथ का इशारा कर।
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