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भारत के धर्माकाश में वे कौन चार लोग हैं जो ओशो की दृष्टि में सबसे चमकते हुए सितारे हैं?

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महाकवि सुमित्रानंदन पंत ने मुझसे एक बार पूछा कि भारत के धर्माकाश में वे कौन बारह लोग हैं—मेरी दृष्टि में—जो सबसे चमकते हुए सितारे हैं? मैंने उन्हें यह सूची दी : कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, नागार्जुन, शंकर, गोरख, कबीर, नानक, मीरा, रामकृष्ण, कृष्णमूर्ति। सुमित्रानंदन पंत ने आंखें बंद कर लीं, सोच में पड़ गये...।

सूची बनानी आसान भी नहीं है, क्योंकि भारत का आकाश बड़े नक्षत्रों से भरा है! किसे छोड़ो, किसे गिनो?.. वे प्यारे व्यक्ति थे—अति कोमल, अति माधुर्यपूर्ण, स्त्रैण...। वृद्धावस्था तक भी उनके चेहरे पर वैसी ही ताजगी बनी रही जैसी बनी रहनी चाहिए। वे सुंदर से सुंदरतर होते गये थे...। मैं उनके चेहरे पर आते—जाते भाव पढ़ने लगा। उन्हें अड़चन भी हुई थी। कुछ नाम, जो स्वभावत: होने चाहिए थे, नहीं थे। राम का नाम नहीं था! उन्होंने आंख खोली और मुझसे कहा : राम का नाम छोड़ दिया है आपने! मैंने कहा : मुझे बारह की ही सुविधा हो चुनने की, तो बहुत नाम छोड़ने पड़े। फिर मैंने बारह नाम ऐसे चुने हैं जिनकी कुछ मौलिक देन है। राम की कोई मौलिक देन नहीं है, कृष्ण की मौलिक देन है। इसलिये हिंदुओं ने भी उन्हें पूर्णावतार नहीं कहा।
उन्होंने फिर मुझसे पूछा : तो फिर ऐसा करें, सात नाम मुझे दें। अब बात और कठिन हो गयी थी। मैंने उन्हें सात नाम दिये : कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, शंकर, गोरख, कबीर। उन्होंने कहा : आपने जो पांच छोड़े, अब किस आधार पर छोड़े हैं? मैंने कहा : नागार्जुन बुद्ध में समाहित हैं। जो बुद्ध में बीज—रूप था, उसी को नागार्जुन ने प्रगट किया है। नागार्जुन छोड़े जा सकते हैं। और जब बचाने की बात हो तो वृक्ष छोड़े जा सकते हैं, बीज नहीं छोड़े जा सकते। क्योंकि बीजों से फिर वृक्ष हो जायेंगे, नये वृक्ष हो जायेंगे। जहा बुद्ध पैदा होंगे वहा सैकड़ों नागार्जुन पैदा हो जायेंगे, लेकिन कोई नागार्जुन बुद्ध को पैदा नहीं कर सकता। बुद्ध तो गंगोत्री हैं, नागार्जुन तो फिर गंगा के रास्ते पर आये हुए एक तीर्थस्थल हैं—प्यारे! मगर अगर छोड़ना हो तो तीर्थस्थल छोड़े जा सकते हैं, गंगोत्री नहीं छोड़ी जा सकती।
ऐसे ही कृष्णमूर्ति भी बुद्ध में समा जाते हैं। कृष्णमूर्ति बुद्ध का नवीनतम संस्करण हैं—नूतनतम; आज की भाषा में। पर भाषा का ही भेद है। बुद्ध का जो परम सूत्र था—अप्प दीपो भव—कृष्‍णमूत्रि बस उसकी ही व्याख्या हैं। एक सूत्र की व्याख्या—गहन, गंभीर, अति विस्तीर्ण, अति महत्वपूर्ण! पर अपने दीपक स्वयं बनो, अप्प दीपो भव—इसकी ही व्याख्या हैं। यह बुद्ध का अंतिम वचन था इस पृथ्वी पर। शरीर छोड़ने के पहले यह उन्होंने सार—सूत्र कहा था। जैसे सारे जीवन की संपदा को, सारे जीवन के अनुभव को इस एक छोटे—से सूत्र में समाहित कर दिया था।
रामकृष्ण, कृष्ण में सरलता से लीन हो जाते हैं। मीरा, नानक, कबीर में लीन हो जाते हैं; जैसे कबीर की ही शाखायें हैं। जैसे कबीर में जो इकट्ठा था, वह आधा नानक में प्रगट हुआ है और आधा मीरा में। नानक में कबीर का पुरुष—रूप प्रगट हुआ है। इसलिए सिक्स धर्म अगर क्षत्रिय का धर्म हो गया, योद्धा का, तो आश्चर्य नहीं है। मीरा में कबीर का स्त्रैण रूप प्रगट हुआ है—इसलिए सारा माधुर्य, सारी सुगंध, सारा सुवास, सारा संगीत, मीरा के पैरों में घुंघरू बनकर बजा है। मीरा के इकतारे पर कबीर की नारी गाई है; नानक में कबीर का पुरुष बोला है। दोनों कबीर में समाहित हो जाते हैं।
इस तरह, मैंने कहा : मैंने यह सात की सूची बनाई। अब उनकी उत्सुकता बहुत बढ़ गयी थी। उन्होंने कहा : और अगर पांच की सूची बनानी पड़े? तो मैंने कहा : काम मेरे लिये कठिन होता जायेगा।
मैंने यह सूची उन्हें दी : कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, गोरख।.. क्योंकि कबीर को गोरख में लीन किया जा सकता है। गोरख मूल हैं। गोरख को नहीं छोड़ा जा सकता। और शंकर तो कृष्ण में सरलता से लीन हो जाते हैं। क्या के ही एक अंग की व्याख्या हैं, कृष्ण के ही एक अंग का दार्शनिक विवेचन हैं।
तब तो वे बोले : बस, एक बार और...। अगर चार ही रखने हों?
तो मैंने उन्हें सूची दी. कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, गोरख।... क्योंकि महावीर बुद्ध से बहुत भिन्न नहीं हैं, थोड़े ही भिन्न हैं। जरा—सा ही भेद है; वह भी अभिव्यक्ति का भेद है। बुद्ध की महिमा में महावीर की महिमा लीन हो सकती है।
वे कहने लगे : बस एक बार और...। आप तीन व्यक्ति चुनें।
मैंने कहा : अब असंभव है। अब इन चार में से मैं किसी को भी छोड़ न सकूंगा। फिर मैंने उन्हें कहा : जैसे चार दिशाएं हैं, ऐसे ये चार व्यक्तित्व हैं। जैसे काल और क्षेत्र के चार आयाम हैं, ऐसे ये चार आयाम हैं। जैसे परमात्मा की हमने चार भुजाएं सोची हैं,

गोरख को नहीं छोड़ सकता हूं क्योंकि गोरख से इस देश में एक नया ही सूत्रपात हुआ, महावीर से कोई नया सूत्रपात नहीं हुआ। वे अपूर्व पुरुष हैं;मगर जो सदियों से कहा गया था, उनके पहले जो तेईस जैन तीर्थंकर कह चुके थे, उसकी ही पुनरुक्ति हैं। वे किसी यात्रा का प्रारंभ नहीं हैं। वे किसी नयी शृंखला की पहली कड़ी नहीं हैं, बल्कि अंतिम कड़ी हैं।

गोरख एक शृंखला की पहली कड़ी हैं। उनसे एक नये प्रकार के धर्म का जन्म हुआ, आविर्भाव हुआ। गोरख के बिना न तो कबीर हो सकते हैं, न नानक हो सकते हैं, न दादू न वाजिद, न फरीद, न मीरा—गोरख के बिना ये कोई भी न हो सकेंगे। इन सब के मौलिक आधार गोरख में हैं। फिर मंदिर बहुत ऊंचा उठा। मंदिर पर बड़े स्वर्ण—कलश चढ़े..। लेकिन नींव का पत्थर नींव का पत्थर है। और स्वर्ण—कलश दूर से दिखाई पड़ते हैं, लेकिन नींव के पत्थर से ज्यादा मूल्यवान नहीं हो सकते। और नींव के पत्थर किसी को दिखाई भी नहीं पड़ते, मगर उन्हीं पत्थरों पर टिकी होती है सारी व्यवस्था, सारी भित्तिया, सारे शिखर...। शिखरों की पूजा होती है, बुनियाद के पत्थरों को तो लोग भूल ही जाते हैं। ऐसे ही गोरख भी भूल गये हैं।

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