गौतम बुद्ध से किसी ने पूछा एक सुबह, एक भिक्षु ने, एक खोजी ने, एक सत्यार्थी ने मैं क्या करूं? और बुद्ध ने जो उत्तर दिया, बहुत आकस्मिक था, अनपेक्षित था। बुद्ध ने कहा "चरैवेति, चरैवेति"! चलते रहो, चलते रहो! रुको मत, पीछे लौट कर देखो मत। आगे की चिंता न लो। प्रतिपल बढ़े चलो। क्योंकि गति जीवन है। गत्यात्मकता जीवन है। और जैसे दौड़ती हुई पर्वतों से नदी की धार एक न एक दिन चलते-चलते सागर पहुंच जाती है, ऐसे ही तुम भी चलते रहे तो परमात्मा तक निश्चित पहुंच जाओगे। न तो नदी के पास नक्शा होता, न मार्गदर्शक होते, न पंडित-पुरोहित होते, न पूजा-पाठ, न यज्ञ-हवन, फिर भी पहुंच जाती है सागर। कितना ही भटके, कितने ही चक्कर खाए पर्वतों में, लेकिन पहुंच जाती है सागर। कौन पहुंचा देता है उसे सागर? उसकी अदम्य गति!
चरैवेति, चरैवेति। फिक्र नहीं लेती, सोच-विचार नहीं करती कितना भटकाव हो गया, कितना समय बीत गया, कितना और समय लगेगा, ऐसा अधैर्य नहीं पालती। मदमाती, मस्त, प्रतिपल आनंदमग्न। इससे बोझिल भी नहीं होती कि सागर अभी तक क्यों नहीं मिला? इसका संताप भी उसकी छाती पर भारी नहीं हो पाता। मिलेगा ही, ऐसी कोई गहन श्रद्धा, ऐसी कोई आस्था, मिलना अनिवार्य है। जैसे बीज टूटता है एक परम श्रद्धा में कि फूल बनेगा ही, ऐसे ही नदी बहती है एक परम श्रद्धा में कि सागर मिलेगा ही।
इस श्रद्धा का नाम ही आस्तिकता है, ईश्वर को मानने का नाम नहीं, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे में पूजा-पाठ का नाम नहीं। यह परम श्रद्धा कि यदि मैं चलता ही रहूं, तो एक न एक दिन गंतव्य आ ही जाएगा। गति है तो गंतव्य अनिवार्य है। लोग लक्ष्य बनाकर चलते हैं, इससे भटक जाते हैं।
लक्ष्य कौन बनाएगा? तुम बनाओगे। अपने अज्ञान में बनाओगे, मूर्छा में बनाओगे, सुषुप्ति में बनाओगे, स्वप्न में बनाओगे। लक्ष्य क्या होगा? तुम्हारे स्वप्न का ही विस्तार होगा। तुम्हारे लक्ष्य में तुम्हीं प्रतिबिंबित होओगे। तुम्हारा लक्ष्य अस्तित्व से मेल नहीं खाएगा, तुम से मेल खाएगा। और तुम अगर जानते होते, तो लक्ष्य की जरूरत क्या थी? तुम्हें कुछ पता नहीं है; तुम अपने इस अज्ञान में लक्ष्य निर्धारित करोगे, यह पाना है, वह पाना है, तो भटकोगे।
अलक्ष्य बढ़ते चलो!बहते चलो! गति में रहो! इतना भर ध्यान रहे, अटकना मत कहीं। भटको कितने ही, भटकना कितना ही, अटकना मत! कोई तट, कोई कूल-किनारा आसक्ति न बने। कितना ही सुंदर हो तट, गीत गुनगुनाते गुजर जाना। ठहर मत जाना, रुक मत जाना, किसी पड़ाव को मंजिल मत समझ लेना! धन्यवाद देना तट को, उसके सुंदर वृक्षों को; पक्षियों के गीत को, सुंदर मौसम को, लेकिन धन्यवाद देकर आगे बढ़ जाना। कहीं आसक्ति न बने, लगाव न बने, कोई चीज जंजीर न बने, कोई मोह बंधन न बने और तुम बढ़ते ही रहो--अज्ञात की ओर, अलक्ष्य की ओर, अपरिचित की ओर--तो सुनिश्चित एक दिन सागर पहुंच जाओगे।
नदियों को नक्शे दे दो कि फिर पक्का समझना कि सागर नहीं पहुंच पाएंगी। नक्शे ही उलझा लेंगे। नक्शों की उलझन ही काफी हो जाएगी। और नक्शों ने ही आदमी को उलझाया है। हिंदू नक्शे, मुसलमान नक्शे, ईसाई नक्शे, जैन, बौद्ध, सिक्ख, कितने नक्शे हैं! दुनिया में तीन सौ धर्म हैं। तो तीन सौ नक्शे हैं। और तीन सौ धर्मो के कम-से-कम तीन हजार संप्रदाय हैं। तो नक्शों में भी नक्शे हैं। इन तीन हजार नक्शों में आदमी खो गया है। जाए तो जाए कहां? जब तक निर्णय न हो जाए कौन-सा नक्शा ठीक है, कौन-सा मार्गदर्शक ठीक है, किसके पीछे चलूं, किसका हाथ गहूं, तब तक आदमी सोचता है जहां हूं, वहीं ठीक। कम-से-कम परिचित भूमि पर हूं।
डबरा बन गया है आदमी। और जैसे ही आदमी डबरा बनता है, उसके भीतर कुछ सड़ना शुरू हो जाता है। उसकी आत्मा मरने लगती है। जैसे ही आदमी डबरा बनता है, कब्र बन जाती है। फिर मजार है, फिर जीवन में दुर्गंध है, कीचड़ है। कमल नहीं खिलते फिर। फिर सुवास नहीं उठती। फिर गीत नहीं, संगीत नहीं। फिर नाचे कौन? भागती सरिता नाचती है, सरोवर नहीं नाचते। हालांकि सरोवर सुरक्षित होते हैं, चारों तरफ से घिरे कूल-किनारे से। नदी असुरक्षित होती है। रोज-रोज नयी असुरक्षा में प्रवेश करती है। रोज नयी चट्टानों को तोड़ती है। नए मार्ग खोजती है। नए मार्ग बनाती है--बनाती है मार्ग और उन पर चलती है। सरोवर सुरक्षा में ही मर जाता है। और नदी असुरक्षा में ही एक दिन सागर तक पहुंच जाती है। – ओशो
osho ne kaha tha bhago mat jaaago
ReplyDeletepadhkar ..bhut anand mila..
ReplyDeletedhanyawad
bahut khub aisa vidwan purush yugo yugo me hota hai
ReplyDeleteNa bhuto na bhavisyati.. Ye baat kewal osho k liye
ReplyDeleteRitesh Jharkhand bettiah Srinagar other tola... Na bhuto na bhavisyati.. Osho kewal
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